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ऐसा संभव हुआ है, क्योंकि उन्होंने अपनी लेखनी का खाद पानी अपने आसपास से ही लिया है
पंकज शुक्ला, पत्रकार, लेखक।
व्यंग्य… इस विधा का जिक्र होते ही जो पहला नाम दिमाग में कौंधता है, वह है हरिशंकर परसाई. 22 अगस्त को परसाई जी की जयंती है. मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी में 1924 को जन्मे परसाई जी व्यंग्य के पर्याय हैं और अब तक उन्हें ही व्यंग्य विधा में अकादमी पुरस्कार दिया गया है. यह पुरस्कार प्रसिद्ध व्यंग्य निबंध संग्रह 'विकलांग श्रद्धा का दौर' के लिए सन 1982 में प्रदान किया गया. अपने समय, समाज और राजनीति पर सबसे मारक व्यंग्य करने वाले परसाई जी के व्यंग्य समय के साथ अधिक प्रासंगिक और सटीक सिद्ध होते जा रहे हैं.
ऐसा संभव हुआ है, क्योंकि उन्होंने अपनी लेखनी का खाद पानी अपने आसपास से ही लिया है. इसी कारण उनका साहित्य सही अर्थ में समाज का दर्पण साबित हुआ. इन दिनों कविता से ज्यादा या उतनी मात्रा में व्यंग्य लिखे जा रहे हैं. श्रेष्ठ व्यंग्यकारों के एकल और संयुक्त संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं. अखबारों में व्यंग्य के लिए जगह विस्तार पा रही है. इन व्यंग्यकारों में पाठक हरदम परसाई जी की छवि तलाशते हैं. फिर भी अधिकांश व्यंग्य में उस मारकता की कमी क्यों महसूस होती है, जिसके सिद्ध परसाई जी थे? इसका जवाब स्वयं परसाई जी ने दिया था.
भोपाल के भारत भवन में एक सत्र चर्चित व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के साथ आयोजित किया गया था. इस सत्र में परसाई जी ने कहा था कि कुम्हार मिट्टी को पका कर अपने कौशल से तरह तरह की सामग्री गढ़ता है. ठीक उसी तरह से लेखक भी अपने रचनाकर्म के लिए कच्चा माल अपने आसपास से ही पाता है. फिर उसे अपने ज्ञान, कौशल, शैली और विचारधारा के अनुसार ढाल लेता है. वही रचना अधिक पाठकों तक पहुंच पाती है.
हरिशंकर परसाई के विचार के आईने में अब उनकी व्यंग्य रचनाओं को देखिए. ये व्यंग्य रचनाएं हास्य या कटाक्ष से कहीं आगे पाठक के मन में सवाल पैदा करते हैं. हमें सोचने के लिए प्रेरित करते हैं. हमें शर्मिंदा करते हैं. हमें मुंह चुराने के लिए मजबूर कर देते हैं. ऐसा हो नहीं सकता कि आप परसाई जी के व्यंग्य पढ़ कर अप्रभावी रह जाएं. एक साहित्यकार के रूप में परसाई जी ने कहानी और उपन्यास भी लिखे हैं. उनकी कहानियां हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव शीर्षक से संग्रह रूप में प्रकाशित हुई हैं.
रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल उनके उपन्यास है. तिरछी रेखाएं संस्मरण संग्रह है. मगर इतने समृद्ध रचना संसार में से सबसे ज्यादा उल्लेख होता है तो वे व्यंग्य ही हैं. उनके व्यंग्य निबंध संग्रह तब की बात और थी. भूत के पांव पीछे, बेइमानी की परत, अपनी अपनी बीमारी, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, उखड़े खंभे, सदाचार का ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर, तुलसीदास चंदन घिसैं, हम एक उम्र से वाकिफ हैं, बस की यात्रा आज भी खरीद कर पढ़े जाते हैं.
'प्रेमचंद का फटे जूते' में समाज की रूढ़ियों और साहित्यकार की भूमिका…
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं. तुम्हारा जूता कैसे फट गया? मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो.कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया. कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस परतुमने अपना जूता आज़माया. तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे. टीलों से समझौता भी तो हो जाता है. सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है. तुम समझौता कर नहीं सके. क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही 'नेम-धरम' वाली कमज़ोरी? 'नेम-धरम' उसकी भी ज़ंजीर थी. मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद 'नेम-धरम' तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
'एक गौभक्त से भेंट' व्यंग्य में वे लिखते हैं…
बच्चा, जब चुनाव आता है, तब हमारे नेताओं को गोमाता सपने में दर्शन देती है. कहती है बेटा चुनाव आ रहा है. अब मेरी रक्षा का आंदोलन करो. देश की जनता अभी मूर्ख है. मेरी रक्षा का आंदोलन करके वोट ले लो. बच्चा, कुछ राजनीतिक दलों को गोमाता वोट दिलाती है, जैसे एक दल को बैल वोट दिलाते हैं. ये नेता एकदम आंदोलन छेड़ देते हैं और हम साधुओं को उसमें शामिल कर लेते हैं. हमें भी राजनीति में मज़ा आता है. बच्चा, तुम हमसे ही पूछ रहे हो.
'भारत को चाहिए जादूगर और साधु' लेख में महसूस करें व्यंग्य की तीक्ष्णता
जनता को सचमुच कुछ नहीं चाहिए. उसे जादू के खेल चाहिए. मुझे लगता है, ये दो छोटे-छोटे जादूगर रोज खेल दिखा रहे हैं, इन्होंने प्रेरणा इस देश के राजनेताओं से ग्रहण की होगी. जो छब्बीस सालों से जनता को जादू के खेल दिखाकर खुश रखे हैं, उन्हें तीन-चार घंटे खुश रखना क्या कठिन है. इसलिए अखबार में रोज फोटो देखता हूँ, किसी शहर में नए विकसित किसी जादूगर की.
सोचता हूं. जिस देश में एकदम से इतने जादूगर पैदा हो जाएं, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों जादू से इतनी प्रभावित है? वह क्यों चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो राशन की दुकान पर लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता, वह लाइन छोड़कर जादू के खेल देखने क्यों खड़ी रहती है? मुझे लगता है, छब्बीस सालों में देश की जनता की मानसिकता ऐसी बना दी गई है कि जादू देखो और ताली पीटो. चमत्कार देखो और खुश रहो.
अखबारों में कॉलम में जरिये व्यंग्य को लोकप्रिय विधा बना देने वाले परसाई जी ने विचारधारा को लेकर विरोध के हमले झेले मगर लेखनी से समझौता न किया, न व्यंग्य की धार ही बोथरी हुई. उन्होंने अंधभक्ति को भी पहचाना और रूढ़ियों को भी. विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध रहे मगर उनके व्यंग्य से उनकी अपनी विचारधारा के लोग भी नहीं बच पाए. व्यंग्य की इस यात्रा के लिए एक वक्तव्य में कही गई परसाई जी की यह बात उन पर और उनके लेखन पर सटीक साबित होती है
'व्यंग्य' अब 'शूद्र' से 'क्षत्रिय' मान लिया गया है. विचारणीय है कि वह शूद्र से क्षत्रिय हुआ है, ब्राहमण नहीं, क्योंकि ब्राहमण 'कीर्तन' करता है. निस्संदेह व्यंग्य कीर्तन करना नहीं जानता, पर कीर्तन को और कीर्तन करने वालों को खूब पहचानता है. कैसे-कैसे अवसर, कैसे-कैसे वाद्य और कैसी-कैसी तानें-जरा-सा ध्यान देंगे, तो अचीन्हा नहीं रहेगा विकलांग श्रद्धा का (यह) दौर.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जानता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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