सम्पादकीय

हरेला 2022: प्रकृति से कदमताल का खास पर्व, वनों और हरियाली को अक्षुण्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी

Rani Sahu
16 July 2022 9:46 AM GMT
हरेला 2022: प्रकृति से कदमताल का खास पर्व, वनों और हरियाली को अक्षुण्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी
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प्रकृति से कदमताल का खास पर्व, वनों और हरियाली को अक्षुण्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी

सोर्स - अमर उजाला

प्रतिभा नैथानी
देवभूमि उत्तराखंड के लोगों के लिए जीवन का अर्थ है प्रकृति से तादात्म्य, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है हरेला पर्व। यह राज्य का राजकीय पर्व भी है । हरेला की परंपरा यह रही है कि परिवार के मुखिया एक टोकरी में मिट्टी डालकर उसमें गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, गहत, सरसों, चना बो देते हैं। नवें दिन डिकर पूजा यानी गुड़ाई होती है और दसवें दिन हरेला काटा जाता है।
देवी-देवताओं को अर्पित करने के बाद आशीर्वाद स्वरूप उसे परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर रखा जाता है। कान के पीछे झूमती हरी-हरी लंबी पतली हरेला की पत्तियां दिनभर पर्व का सूचक बनी झूमती रहती हैं। कहा जाता है कि
'जी रिया जागि रया, यो दिन-मास भेंटने रया'
मतलब कि जीते-जागते रहें, यह दिन-महीने आपसे यूं ही भेंटने आते रहें।
जब तक आबादी कम, जमीन ज्यादा, सुविधाएं क्षीण थीं तब तक यह पर्व स्वाभाविक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था, जरूरी भी था। गर्मियों में घड़े का सा ठंडा और सर्दियों में गुनगुनी तासीर वाला पानी प्राकृतिक रूप से तो आखिर बांज के घाट पर ही मिल पाना संभव था ना ? पहाड़ में बिजली ही नहीं तो फिर एसी, पंखा, कूलर की बात कौन कहे ? ये पेड़ भी ना हों तो कौन फर्क कर पाएगा रेगिस्तान की गर्मी और पहाड़ की बर्फ जैसी सर्दी में।
कहां कोई अस्पताल, कोई डॉक्टर, कोई दवा बनी पिछले जमाने में पहाड़ों के लिए? इसीलिए तो क्षय रोग था हर घर में किसी न किसी को निगलने को आतुर। छह महीने के निर्वासन में वन में गए रोगी को चीड़ और देवदार के पेड़ों की हवा ही संभालती थी। आखिरी सांस गिनते मरीज के भी मौत के मुंह से लौट आने का कमाल ही था कि भवाली में एशिया के सबसे बड़े टी.बी सेनिटोरियम की स्थापना हो गई।
गढ़वाल में ग्वीराल, कुमाऊं में क्वीराल और मैदानी इलाके में कचनार कहे जाने वाले वृक्ष की फलियों, छाल, फूल का सेवन भी अमृत से कम नहीं। शरीर में कहीं भी कैंसर जैसी गांठ हो जाए तो उसे गलाने और रक्त विकारों से निजात पाने के लिए कचनार है ना! इसके नियमित उपयोग से बदन ख़ुद कचनार ना हो जाए तो कहिए। तभी तो अपने बैंगनी, गुलाबी फूलों के साथ यह जगह-जगह खड़ा मिल जाता था तब।
इसी तरह सेमल भी है, सब्जी बनाइए इसके फलों की तो स्वाद ऐसा कि मुर्गा, मछली में स्वाद तलाशने वालों को भी विमुक्त कर दे मांसाहार से। शरीर को निरोगी रखने वाले कई गुणों की खान भी है यह लाल फूल वाले पेड़ का फल 'सेमल डोडा'। पेड़ तो पेड़, झाड़ियां भी उपयोगी हैं। यह जानकर घर के आस-पास बसिंग की झाड़ियों को काटा नहीं जाता था। सफेद मीठे फूल और कड़वी पत्ती वाले बसिंग की सब्जी मधुमेह के लिए रामबाण मानी जाती है। बस इसे कुशलतापूर्वक पकाने की कला आनी चाहिए।
बसिंग की तरह ही हैं जगह-जगह खड़ी कढीपत्ते की झाड़ियां। खुशबू के कारण पहाड़ में भले ही उसे गंधेलू जैसा मामूली-सा नाम दिया गया हो, मगर है यह बड़े काम का। इसकी नौ पत्तियों का प्रतिदिन सेवन मोटापा से लेकर मधुमेह तक को भी मात देता है। झोई या कढ़ी, पोहा, फ्राइड राइस, बैंगन की सब्जी किसी भी व्यंजन में इसकी पत्तियों का तड़का स्वाद में चार चांद लगा देता है।
वन ही वैद्य और वनस्पतियां दवाई
हक़ीक़त यह है कि पहाड़ के रहवासियों के लिए वन ही वैद्य और वनस्पतियां ही दवाई साबित होती आ रही हैं आजतक। इतना होने के बाद भी विडंबना ही है कि सन सत्तर के बाद ही गौरा देवी, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट या अनिल जोशी जैसे नाम इस हरित प्रदेश में पर्यावरणविद के तौर पर जोर-शोर से उभरे। बढ़ती जनसंख्या के कारण घर बसाने या विकास के कार्यों के लिए कहीं न कहीं ज़मीन तो चाहिए, लेकिन जीवनदायी हरियाली की कीमत पर नहीं।
हाल के वर्षों इस देवभूमि में ही नहीं, इस पूरे हिमालय क्षेत्र में पर्यटकों की लगातार बढ़ती भीड़ और उसकी वजह से फैल रही गंदगी, आवागमन की सुविधाओं के लिए टूटते पहाड़ों और कटते पेड़ों की वजह से पर्यावरण में भारी बदलाव आने लगा है। गर्मी बढ़ रही है और ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे हैं। ग्लेशियर के पिघलने की यह रफ्तार हाल के वर्षों में कई जलप्रलयों का कारण बना है।
पर्यटकों की संख्या हम रोक नहीं सकते, विकास कार्य भी चलते ही रहेंगे। अब आने वाली किसी तबाही से हिमालय क्षेत्र को कोई बचा सकता है तो वे पेड़ ही हैं। प्रदेश में वनों और हरियाली को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए शहर-शहर, गांव-गांव में हरेला पर्व की प्रासंगिकता और जरूरत आज हमेशा से ज्यादा है, शायद इसीलिए उत्तराखंड की सरकार इसे संरक्षण भी दे रही है और विस्तार भी
स्वर्गीय उर्मिल कुमार थपलियाल का संस्मरण
सुविख्यात रंगकर्मी और लेखक स्वर्गीय उर्मिल कुमार थपलियाल के बहुत पहले पढ़े गए संस्मरण का एक अंश मेरे दिलोदिमाग में आज भी घूमता है। वे लिखते हैं-
'देहरादून में 50 के दशक की मेरी बचपन की यादें रेंजर्स कॉलेज के आसपास घूमती हैं। कॉलेज के मैदान और घने वृक्षों से मुझे बहुत कुछ मिला। बचपन में मैं न जाने किस हीन भाव के कारण बहुत हकलाता था, लोग हंसते थे। सो मैंने अभ्यास की एक युक्ति निकाली और मैं वृक्षों से बातचीत करने लगा। खुद को एक धोखा दे रहा था मैं कि पेड़ भी मुझसे बातें कर रहे हैं। मेरा आत्मविश्वास कुछ-कुछ बढ़ने लगा। उनके बीच जोर-जोर से अख़बार पढ़ता था। कभी-कभी ऊंचे स्वर में गाने भी लगता।
सवाल भी मैं करता और जवाब भी मैं ही देता। यह अभ्यास नियमित रहा। आश्चर्य की बात यह हुई कि बचपन में बुरी तरह हकलाने वाला बच्चा आगे चलकर आकाशवाणी में चीफ न्यूज़ रीडर बनकर रिटायर हुआ। यही घने वृक्ष और उनकी छांव मेरा स्टडी रूम रहे। परीक्षाओं के दौरान में वहीं बैठ कर पढ़ाई भी करता था।'
सुखद जीवन के लिए पेड़ों की रक्षा जरूरी
पेड़ हमें सांस लेने के लिए हवा देते हैं, फूल-फल देते हैं। अपनी जड़ों में जल संचित रखने वाले ये पेड़ पीने के पानी का स्रोत भी बनते हैं। बादलों को अपनी और खींचकर बारिश करवाना इनका काम है। मगर यही पेड़ किसी के लिए डॉक्टर भी हो सकते हैं यह कम ही लोग सोच पाते हैं।
आज हमारे उत्तराखंड में हरेला पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है। सावन के महीने में पेड़ लगाने की यह प्राचीन परंपरा है। शहरीकरण के दौर में पेड़ों के अंधाधुंध कटान के बाद इसकी आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ जाती है। जरूरत इस बात की भी है कि जिन नवजात पौधों को आज हम मिट्टी में रोप रहे हैं, वृक्ष की तरह जड़ जमा लेने तक हम उनकी देखभाल करते रहें।

Rani Sahu

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