सम्पादकीय

श्रावण मास में 'हर-हर महादेव'

Subhi
26 July 2022 3:48 AM GMT
श्रावण मास में हर-हर महादेव
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भारत मेलों और त्यौहारों का देश है। इसकी संस्कृति उल्लास मय है। उत्सव इसकी तासीर है। भारत की संस्कृति में इस देश में जन्में विभिन्न धर्मों के उत्सवों में ऐसा आपसी सामंजस्य है कि विभिन्न धर्मों की विशिष्टताएं भारतीय भाव में एकाकार हो जाती हैं। बौद्ध, जैन, सिख व हिन्दू उत्सवों में भारतीय भाव ही प्रमुख रहता है।

आदित्य चोपड़ा: भारत मेलों और त्यौहारों का देश है। इसकी संस्कृति उल्लास मय है। उत्सव इसकी तासीर है। भारत की संस्कृति में इस देश में जन्में विभिन्न धर्मों के उत्सवों में ऐसा आपसी सामंजस्य है कि विभिन्न धर्मों की विशिष्टताएं भारतीय भाव में एकाकार हो जाती हैं। बौद्ध, जैन, सिख व हिन्दू उत्सवों में भारतीय भाव ही प्रमुख रहता है। इन सभी धर्मों के विभिन्न अनुभागों के प्रचिलित उत्सव भी सभी भारतीयों को एकात्म भाव से इनमें भाग लेने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि सभी के लिए भारत व इस उपमहाद्वीप की धरती पूज्य व वन्दनीय है। जिन धर्मों में भारत की धरती के प्रति ऐसा आदर-भाव नहीं देखा जाता है उनके मानने वालों को भी भारत ने अपने आंचल में स्थान दिया। अतः ऐसे लोगों का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वे भारत की संस्कृति के प्रति नतमस्तक होकर वन्दनीय भाव रखें। परन्तु हम देखते हैं कि एक विशेष धर्म के मानने वाले लोग जब 'भारत माता की जय' लगाने के नारे पर भी गुरेज रखते हैं और इसे अपने मजहब के पैमाने पर कसते हैं तो आम भारतीय के मन में विक्षोभ पैदा होता है।भारत में छह ऋतुुएं होती हैं और हर ऋतु में इस देश के विभिन्न प्रदेशों में कोई न कोई त्यौहार या उत्सव होता ही रहता है। श्रावण या सावन का महीना वर्षाकालीन समय का होता है और इस दौरान उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में भगवान शंकर की आराधना का सत्र चलता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि शिव 'सृष्टि' के प्रतीक हैं और उनकी पत्नी पार्वती 'प्रकृति' की। सृष्टि के संहारक व रचयिता और संचालक शिव का अस्तित्व ही प्रकृति पर निर्भर करता है क्योंकि प्रकृति दत्त उपहारों के बिना सृष्टि की संरचना संभव नहीं हैं। सूर्य और जल के बिना प्रकृति के पुष्पित होने की संभावना नहीं होती। भारत में सूर्य मन्दिरों की महत्ता की असली वजह यही है। अतः जितना-जितना हम पूर्व दिशा की ओर बढ़ते जायेंगे उतना ही उस दिशा में बसे राज्यों में सूर्य की पूजा-अर्चना का रिवाज बढ़ता चला जायेगा। इनमें बिहार व ओडिशा प्रमुख हैं।दूसरी तरफ जल का केन्द्र उत्तर है, अतः उत्तर दिशा से प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल का विशेष महत्व भारतीय संस्कृति में होता है। साथ ही श्रावण महीना जल की बरखा से सृष्टि के सभी जीव-जन्तुओं, प्राणियों व चर-अचर, जड़ व चेतन को जीवनदान देता है, अतः इस महीने में सृष्टि के स्वामी भगवान शंकर का जलाभिषेक करने का विशेष महत्व स्वतः ही बन जाता है। हम यदि ध्यान से देखें तो मनुष्य का शरीर पांच तत्वों, धरती, आकाश, जल, वायु व सूर्य अर्थात अग्नि से मिलकर बनता है। हिन्दू संस्कृति में इन पांचों तत्वों की पूजा का विधान किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। परन्तु हमारे शरीर में 70 प्रतिशत से अधिक जल रहता है। अतः सबसे अधिक इसी की महत्ता है और श्रावण मास इसके प्रतीक रूप में ही पवित्र और पूज्य माना जाता है। इस महीने में गंगा जल की विशेष महिमा है क्योंकि इस नदी को जीवनदायिनी कहा गया है, सृष्टि के उदय और सभ्यता के विकास में इस नदी का उत्तर भारत के क्षेत्रों मे विशेष महत्व है। प्रारम्भ में गंगा नदी के तटों पर ही सभ्यता का विकास हुआ और समाज ने आर्थिक प्रगति की।संपादकीय :अमृत महोत्सव : रक्षा आत्मनिर्भरता-8अमृत महोत्सव : अब जाकर कम हुआ दर्द-7उत्तर प्रदेश का 'बाबा माडल'अमृत महोत्सवः दर्द अभी जिंदा है-6सर्वोच्च 'संसद' का चलना जरूरीद्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना अन्त्योदय ​की मिसाल...यह शोध का विषय हो सकता है कि भारत में सबसे पहले किस नदी का उद्गम हुआ परन्तु भारतीय संस्कृति साफ कहती है कि गंगा के साथ ही धरती पर प्रकृति ने अपनी छटा बिखेरनी शुरू की। अतः सावन के महीने में भगवान शंकर पर जल चढ़ाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों से जो 'कांवड़िये' गंगाजल लेकर जाते हैं उसका मन्तव्य सृष्टि को जल से फ्लावित करने का ही रहता है। बेशक इसे धार्मिक स्वरूप दिया गया है जिससे आम जन ज्यादा से ज्यादा इस तरफ ध्यान दे सकें। इसलिए कांवड़ियों को जो सुविधाएं भी सरकार या समाज की तरफ से दी जाती हैं उनका प्रत्येक भारतीय को स्वागत करना चाहिए।उत्तर प्रदेश से ही इन कांवड़ियों का मार्ग अपने-अपने राज्यों के लिए गुजरता है। अतः मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने इनकी सुविधा के लिए कई राजमर्गों को सार्वजनिक परिवहन के लिए बन्द करने के आदेश भी दिये। उनका यह कार्य प्रशंसनीय है क्योंकि कांवड़िये सृष्टि के हित में ही यह कार्य कर रहे हैं। कांवड़ियों के लिए जगह-जगह विश्राम स्थल बनाने का आशय भी यही है कि उनकी यात्रा सुगम हो सके। इसकी आलोचना करने का भी कोई औचित्य नजर नहीं आता। कम से कम आजादी के कई दशकों के बाद हमें पता तो चल रहा है कि भारतीय संस्कृति का उद्देश्य केवल प्राणी मात्र का कल्याण होता है। इससे पहले तो ऐसे कार्यक्रमों को ढकोसला कह दिया जाता था और अन्य धर्मों के लोगों को सारी सुविधाएं देने को सरकारें तैयार रहती थी।

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