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हम सब जानते हैं कि सैर पर जाना सेहत के लिए अच्छा है। हम सब जानते हैं कि भोजन चबा-चबाकर खाना सेहत के लिए अच्छा है। हम जानते हैं कि यह सच है, मानते भी हैं कि यह सच है, पर जानते और मानते हुए भी हम उसे जीवन में नहीं उतारते। अक्सर ऐसा ही होता है, ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है। हम सब जानते हैं कि कुछ नया सीखना अच्छा है क्योंकि इसके कई लाभ हैं। पहला लाभ तो यही है कि हमने कुछ नया सीख लिया, दूसरा लाभ यह है कि यह समय का सदुपयोग है, तीसरा लाभ यह है कि जब हम कुछ नया सीखते हैं तो हमारे मस्तिष्क का व्यायाम होता है, हमारे मस्तिष्क के न्यूरॉन नये तरीके से जुड़ते हैं और हमारी याद्दाश्त तेज होती है, चौथा लाभ यह है कि अगर हम कुछ नया सीखते हैं तो हम अपने उस नये ज्ञान को अपनी आय का साधन भी बना सकते हैं। पश्चिमी दुनिया में और भारतीय संस्कृति में जो एक मूलभूत अंतर है वो यह भी है कि यहां हम अपने ज्ञान को शौक बना लेते हैं, व्यवसाय नहीं बनाते। पश्चिमी देशों में, खासकर अमेरिका में बच्चे यही सीखते हैं कि अपने ज्ञान को, अपने पैशन को ही अपना व्यवसाय भी बना लो। जापान में तो इकीगाई के नाम से पूरी संस्कृति ही इस बात पर टिकी है कि अपने ज्ञान और पैशन को ही अपना व्यवसाय भी बना लो। जिस बिजनेस को चलाने में और बढ़ाने में आनंद भी मिले, वह तो सोने पर सुहागा जैसा है। यह जानते हुए भी हम ज्ञान को पैशन से आगे नहीं बढ़ाते, उसे अपने व्यवसाय में नहीं बदलते, उसे अपनी आय का साधन या अतिरिक्त आय का साधन बनाने की बात नहीं सोचते। इकीगाई के चार स्तंभ हैं जिनमें से पहला है पैशन, यानी धुन।
किसी काम की धुन होना, इस हद तक उसके पीछे पडऩा कि वो सनक बन जाए। वो होता है पैशन। इकीगाई का दूसरा स्तंभ है मिशन, यानी लक्ष्य, जीवन का लक्ष्य। तीसरा स्तंभ है वोकेशन, यानी वह काम जिसमें रुचि हो, वह व्यवसाय जिसमें रुचि हो। चौथा और अंतिम स्तंभ है प्रोफेशन, यानी वह व्यवसाय जिसमें महारत हो, कुशलता हो, जिस काम में हम कुशल हों, जिसे हम सरलता से और ठीक तरीके से कर सकें। इन चारों के मेल से बनता है इकीगाई। इसे थोड़ा और समझते हैं। जब सिर्फ पैशन और प्रोफेशन मिलते हैं, यानी वह काम जिसकी हमें धुन लगी हो, सनक हो और हमें उसमें महारत भी हो, हम वो करने लग जाएं तो तसल्ली तो बहुत होती है लेकिन धीरे-धीरे यह भी समझ आने लगता है कि हमारी इस धुन का और इस महारत का दुनिया के लिए कोई उपयोग नहीं है, तो आखिरकार अनुपयोगी होने की स्थिति खलने लगती है। इसी तरह अगर पैशन के साथ मिशन भी मिल जाए, यानी हम कोई ऐसा काम करना शुरू कर दें जिसकी हमें धुन भी थी और वही हमारे जीवन का लक्ष्य भी था तो खुशी तो बहुत मिलती है पर उसे हम ऐसे व्यवसाय में नहीं बदल सकते जिससे हमें धन भी मिले। हमें समझना होगा कि हम सांसारिक व्यक्ति हैं, परिवार भी चलाना है और परिवार चलाना है तो धन भी चाहिए ही। कहा भी गया है कि ‘भूखे भजन न होई गोपाला’। इसी का अगला पक्ष है कि हम कोई ऐसा काम करना शुरू कर दें जिसमें हमें रुचि हो और वही हमारे जीवन का लक्ष्य भी हो, यानी मिशन और वोकेशन मिल जाएं और हम उसे व्यवसाय बना लें तो यह तो सच है कि हम खूब उत्साह से काम करेंगे, संतोष भी होगा कि हम वही कर रहे हैं जो करना चाहते हैं लेकिन उसमें हमेशा एक अनिश्चितता बनी रहेगी क्योंकि उस काम का केंद्र हम हैं, लोग नहीं। हमने यह नहीं देखा कि लोगों को उसकी जरूरत है या नहीं। हमने यह नहीं देखा कि हमारे उस काम की बाजार में भी कोई मांग है या नहीं, क्योंकि दुनिया को उसकी जरूरत तो है पर वो उसके लिए पैसे नहीं देना चाहते, खर्च नहीं करना चाहते।
इसकी जगह हम किसी ऐसे व्यवसाय में पड़ जाएं जिसमें हमारी रुचि है और महारत भी है, हम उसे कुशलतापूर्वक कर भी सकते हैं, यानी वोकेशन और प्रोफेशन मिल जाएं तो हमें धन तो मिलेगा पर संतोष नहीं होगा। हम हल में जुते हुए बैल की तरह बन जाते हैं जो काम तो करता है, पर एक ही दायरे में घूमता रहता है। आत्मसंतोष के बिना किया जाने वाला व्यवसाय, चाहे उसमें कितना ही धन क्यों न हो, अंतत: जीवन में खालीपन का एहसास करवाता है। इसीलिए इकीगाई संस्कृति का मानना है कि हम ऐसा व्यवसाय चुनें जिसमें इकीगाई के चारों स्तंभों का संतुलन हो, यानी पैशन (धुन), मिशन (जीवन का लक्ष्य), वोकेशन (रुचि) और प्रोफेशन (वह व्यवसाय जिसमें हम कुशल हों), ये चारों मिल जाएं तो इकीगाई हो जाती है, यानी जीवन में पूर्णता आती है, संतुलन आता है, समृद्धि आती है और खुशी भी आती है। मैं इसे ‘खुशियों भरी सफलता’ कहता हूं जिसका अर्थ है कि हम जीवन के हर क्षेत्र में सफल हैं, हमारा परिवार खुशहाल है, हमारे रिश्तों में मिठास है और हमारे पास सुख-सुविधा के आवश्यक साधन भी हैं। इस सीख के तीन चरण हैं। पहला चरण है जानना, किसी तथ्य को जानना, उसकी जानकारी होना, उसका पता होना। दूसरा चरण है मानना, यह मानना कि हां, यह सच है, संभव है, डू-एबल है, करने योग्य है। तीसरा चरण है ठानना, यह ठान लेना कि इसी को जीवनयापन का, आय का, या कम से कम अतिरिक्त आय का साधन बनाएंगे। जानने और मानने की बात हम शुरू में ही कर चुके हैं। वहां तक कुछ खास नहीं होता, जब तक कि हम ठान न लें, यानी एक्शन न लें, उसे जीवन में न उतारें, उसका कार्यान्वयन न करें। लेकिन जैसे ही हम ठान लेते हैं तो चमत्कार होने शुरू हो जाते हैं।
रास्ते की कठिनाइयां दूर करने के लिए नये-नये विचार आने शुरू हो जाते हैं। योजना को अमलीजामा पहनाने में देर तो हो सकती है, साधन इक_े करने में भी अड़चनें आ सकती हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके समाधान निकल आते हैं, संयोग बनते चलते हैं, चमत्कार होते चलते हैं और काम बन जाता है। ठान लेने की बात है, सब कुछ यहीं से शुरू होता है। कोविड के जब नौकरियां गईं, व्यवसाय बंद हुए और बिजनेस माडल बदलने पड़ गए, तब समझ आया कि आपका ज्ञान, आपकी पैशन, आपका व्यवसाय भी बन सकता है। बेरोजगारी सामने थी तो सोचना शुरू हुआ, कोशिश शुरू हुई और आखिरकार दिन फिरे क्योंकि यह स्पष्ट हो गया था कि कोशिश करेंगे तो हल निकलेगा, आज नहीं तो कल निकलेगा, जो आज है थमा-थमा सा, वो भी चल निकलेगा। अब हमें करना सिर्फ यह है कि हम उस पाठ को न भूलें, जीवन में इकीगाई को अपनाएं, पूर्णता को अपनाएं, व्यावसायिक दृष्टि से सफल हों और रिश्ते भी मजबूत बनाएं, मिठास भरे बनाएं ताकि जीवन में खुशहाली भी हो। ऐसा होगा तो इकीगाई हो जाएगी, खुशियों भरी सफलता आएगी। यही करना है, बस यही करना है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेल: [email protected]
By: divyahimachal
Rani Sahu
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