सम्पादकीय

Happy Holi : होली में फगुनाहट मिलो-जुलो और कुंठा निकालो!

Rani Sahu
17 March 2022 3:56 PM GMT
Happy Holi : होली में फगुनाहट मिलो-जुलो और कुंठा निकालो!
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होली में फगुनाहट मिलो-जुलो और कुंठा निकालो!

शंभूनाथ शुक्ल

बनारस, कानपुर और पूरा विंध्य व बुंदेलखंड लगभग महीने भर तक होली (Holi) खेलता है. फागुन (Fagun) में चाहे जितना कड़क बुड्ढा हो, कोई भी नई-नवेली बहू उसके झकाझक सफ़ेद कुर्ते को गुलाबी कर देगी. और बेचारा कुछ नहीं बोल पाएगा. होली के हफ़्ता भर पहले से हफ़्ता भर बाद तक कोई भी आपके मुंह पर कालिख पोत दे, कहीं कोई लकड़ी कर दे या आपके बालों पर सफ़ेदी पोत जाए, इसका विरोध करना सही नहीं समझा जाता. और ये सब लोग शान से करवाते हैं. यही है होली का उल्लास! जब जात-पात, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष और धर्म-अधर्म के भेद टूट जाते हैं.

होली को इसीलिए उल्लास का उत्सव कहा गया है. यूं भी उत्सव उत्स से जुड़ा हुआ है, यानी कुछ भी भीतर न रखो, बल्कि भीतर जो कुछ भी है, उसे निकालो. भले वह कुंठा हो, कोई विचार हो या कि जमा कर रखा गया धन. इसीलिए होली प्रेरित करती है और लोगबाग अगले को कुंठा निकालने को प्रेरित भी करते हैं. इसीलिए होली पूरे फागुन भर खेली जाती है या आज की भाषा में कहें तो उसे इनजॉय किया जाता है. पिछले दो वर्षों में सिर्फ़ कोरोना का डर ही इस त्योहार को मनाने से रोक पाया है. यह हमारे मन के उत्साह का प्रतीक है, जो स्वतः फूट पड़ता है.

होली पर कविता का रंडुआ युग

भारतेंदु युग के प्रसिद्ध निबंधकार और कानपुर के स्थापित साहित्यकार पंडित प्रताप नारायण मिश्र तो होली पूरे फागुन भर मनाते थे. उन्होंने अपना पत्र 'ब्राह्मण' निकाला ही होली के रोज़ था. वह तारीख़ थी 15 मार्च सन 1883 ईस्वी. इसलिए वे स्वयं और उनका पत्र पूरे फगुनाहट के मूड़ में रहता था. उन्होंने कानपुर में रंडुआ (विधुर) सम्मेलन की परंपरा शुरू क़राई. होली के दौरान सारे रंडवे इकट्ठा होते और सिर्फ़ 'रति' चर्चा करते. बाद में तो कानपुर के एक अन्य प्रसिद्ध कवि दयाशंकर दीक्षित 'देहाती' ने इस संदर्भ में एक कविता लिखी, जो यूं है- "रंडुआ मिलि बैठत जहां, रति पैदा हुई जात! यथा सभा के बीच ते, पति पैदा हुई जात!!" इसी कविता में वे आगे लिखते हैं- "सत्य, अहिंसा जप किया, सत्याग्रह उपदेश! जब बापू रंडुआ भये, तब स्वतंत्र भा देश!!"

गंगा मेला की शुरुआत

मिश्र जी के बारे में एक क़िस्सा कानपुर इतिहास समिति के अध्यक्ष अनूप शुक्ल बताते हैं कि मिश्र जी हद दर्जे के दिलेर, हंसोड़ और ज़िद्दी थे. एक बार उनके मासिक पत्र 'ब्राह्मण' का चंदा एक कपड़ा व्यापारी सेठ जी दबाये हुए थे. मिश्र जी ने ब्राह्मण के मुखपत्र पर ही चंदा वसूली के लिए एक कविता लिखी- "आठ मास बीते जजमान अब तो करो दक्षिणा दान! आज-काल्ह जो रूपिया देव, मानो कोटि जग्य करि लेव!!" लेकिन सेठ जी चुप रहे तो ऐन होली खेलने वाले दिन मिश्र जी उनके दरवाज़े पर जा कर बैठ गए और बोले, बिना नेग (चंदा) के नहीं जाऊंगा

सेठ जी भी उतने ही ज़िद्दी, अड़ गए. बोले, नहीं दूंगा. यह सुन कर मिश्र जी वहीं जम गए. और कहा, यदि नहीं दोगे तो यह ब्राह्मण यहां से टलने वाला नहीं. सेठ जी ने कोतवाल को बुला लिया किंतु मिश्र जी नहीं हटे. आख़िर सेठ को चंदा देना ही पड़ा. लोक मान्यता यह भी है कि होली के पांच-छह दिन बाद अनुराधा नक्षत्र में कानपुर में गंगा जी के किनारे स्थित सरसैया घाट में मेला भी उन्होंने शुरू कराया. हालांकि शुक्ल जी के मुताबिक़ कानपुर में हटिया के पास जो शिलालेख मिला है उसके अनुसार यह मेला गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत के बाद शुरू हुआ.

इस बार मेला 23 मार्च को

कानपुर में होली के पांच दिन बाद आयोजित किए जाने वाले गंगा मेले की कहानी अद्भुत है. कहते हैं, कि सांप्रदायिक दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी 25 मार्च 1931 को मारे गए. उनकी हत्या से हिंदू मुस्लिम दोनों विचलित हो गए. कहते हैं कि तय हुआ कि होली के बाद सरसैया घाट पर जो होली मेला लगता है, उसमें आगे से हिंदू-मुस्लिम दोनों साझा होली मिलन करेंगे. तब से आज तक कानपुर में होली मेला की यह परंपरा बदस्तूर जारी है. तब से इस घाट पर इस दिन कांग्रेस का भी पंडाल लगता रहा तो मुस्लिम लीग का भी, कम्युनिस्टों और संघियों का भी. सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक यह मेला आज भी जारी है. इस वर्ष यह मेला 23 मार्च को लगेगा. इसमें प्रशासन का भी पंडाल लगता है. कलेक्टर और पुलिस कप्तान भी इसमें शरीक रहते हैं. धर्म, जाति और भेदभाव से परे यह मेला होली के उल्लास को ज़िंदा किए हुए है.

कपड़ा मज़दूरों की छुट्टी

यह भी कहा जाता है कि होली के अवसर पर चूंकि दूर-दराज के मज़दूर अपने गांव चले जाते इसलिए व्यापारी भी होली के बाद हफ़्ते भर तक अपनी दूक़ानें बंद रखते. अब ये व्यापारी ख़ाली समय में क्या करते इसलिए कपड़ा कमेटी के लोग खूब बतकही करते. यह बतकही सारी नैतिक सीमाओं को लांघ कर अक्सर अश्लील हो जाती. और यही इसकी खूबी बन गई. इसलिए पूरी बंदी के दौरान सिर्फ़ होली खेलते, भंग के तरंग में रहते और वि सम्मेलनों में खूब फूहड़ता होती. जो मन के भीतर घुमड़ रहा है, वह सब निकल जाए.

दिगम्बर खेलें मसाने में होरी

बनारस की मसाने (श्मशान) की होरी तो बहुत प्रसिद्ध है. लोक आख्यान है कि स्वयं भगवान शिव इस दिन चिता की राख उड़ा कर होली खेलते हैं. भूत-पिशाच भी उनके साथ राख उड़ाते हैं. पंडित छन्नूलाल मिश्र का गाया "दिगम्बर खेलें मसाने में होरी!" तो विश्वविख्यात गाना है. बनारस में होली मिलन होली से कुछ पहले रंग भरी एकादशी से शुरू हो जाता है जो होली के बाद तक चलता है. पूरा बनारस होली के साथ उसकी तरंग में जीने लगता है. क्योंकि होली का एक रंग भांग भी है. इसलिए भांग के साथ होली का आनंद कुछ और हो जाता है.

ब्रज की होली

मथुरा और आसपास की लठमार होली देखने तो बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं. यूं भी होली के साथ जो मस्ती है और नैतिक वर्जनाओं को तोड़ने की लालसा, वह कृष्ण के चरित्र में ही देखने को मिलती है. कृष्ण एक ऐसे अवतार हैं, जो पंडिताऊ नैतिकता से ऊपर हैं. इसलिए होली में जो फगुनाता हुआ चंचल मन है, वह कृष्ण की जन्म भूमि में मथुरा में ज़्यादा तीव्रता से प्रकट होता है. यही कारण है कि ब्रज का पूरा क्षेत्र बसंत पंचमी के बाद से ही फागुन की उत्कट प्रतीक्षा करने लगता है.

यहां स्त्री-पुरुष की सामाजिक वर्जनाएं काफ़ी हद तक समाप्त हो जाती हैं. कृष्ण का तो संबंध ही गोप और गोपिकाओं से है, जो उनके साथ सखा भाव से रहते हैं. जब सखा भाव है तो द्वैत कैसा! इसीलिए ब्रज की होली का अंदाज़ ही अलग है. और कृष्ण का चरित्र सब को लुभाता है. मध्य काल में तो इस चरित्र को कई मुस्लिम शासकों ने भी जिया. सैयद इब्राहिम रसखान तो पूरी तरह कृष्णमय हो गए थे. रहीम हैं और अनेक अन्य मुस्लिम कवि भी. पूरी सूफ़ी परंपरा में जिस वैविध्य के दर्शन हमें होते हैं, वह कृष्ण काव्य की विविधता ही तो है.

और अवध की होरी

अवध को राम से जोड़ा जाता है, क्योंकि यही उनका जन्म क्षेत्र है. राम भारतीय धर्म और दर्शन में आदर्श के प्रतीक हैं. नैतिकता और सामाजिक वर्जनाओं पर वे सख़्ती से अमल करते हैं. मध्य काल में उनकी मर्यादा को सख़्ती के साथ अमल करवाने वाले तुलसी दास भी कहीं-कहीं इन सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ते हैं. सीता स्वयंवर के समय वे अपने गुरु ऋषि विश्वमित्र के साथ मिथिला गए हुए हैं. वहां पर राम अपने भाई लक्ष्मण और गुरु के साथ जिस वाटिका में ठहरे हैं, वहीं पर राजकुमारी सीता गौरी पूजन हेतु आती हैं. अनायास आंखें चार होती हैं, तो सीता को बार-बार देखने के लिए राम विचलित होने लगते हैं. अंत में वे अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं- कंकण, किंकिन, नूपुर धुन सुनि.

कहत लखन सन राम हृदय गुनि।।

मानहु मदन दुंदुभी दिन्हीं।

मनसा विस्व विजय कर लिन्हीं।।

(अर्थात् ऐ लक्ष्मण! सीता के आभूषणों की आवाज़ सुन कर मैं विचलित हो गया हूं. ऐसा लगता है, स्वयं कामदेव ने दुंदुभी बाज़ा दी हो) ऐसी कई उदाहरण हैं, जब राम स्त्री वियोग से पीड़ित हो जाते हैं. इसीलिए अवध की होरी भी मशहूर है. "होरी खेलें रघुबीरा, अवध मा होली खेलें!"

पूरे देश में होली

होली अकेले उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है बल्कि किसी न किसी रूप में यह द्रविड़ प्रदेशों में भी विद्यमान है. बंगाल और आगे के पूर्व में वसंत पंचमी या मदनोत्सव इसी का एक रूप है और उस दिन वहां खूब गुलाल उड़ाया जाता है. इसी तरह अन्य क्षेत्रों की लोक गाथाओं में रंग का महत्त्व है. रंग पंचमी तो महाराष्ट्र से ही आया है. पंजाब के सिख डेरों में होला-मोहल्ला भी होली ही है. दुनिया के अन्य मुल्कों में भी होली जैसे त्योहार हैं, जब सामाजिक वर्जनाओं को लांघा जाता है. इसकी वजह है, मनुष्य का मन जिसे बांध कर नहीं रखा जा सकता है. और अपने अंदर को प्रकट करने का त्योहार है होली. इसलिए होली एक ऐसा उत्सव है जो उल्लास को प्रकट करता है. किसी धर्म या समाज से परे है यह

Rani Sahu

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