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हर तरफ दुखवाद की ओर बढ़ती दुनिया को सुख की याद दिलाना बहुत जरूरी है। बुनियादी रूप से सुख एक सकारात्मक, समरसतापूर्ण अनुभव है। इसके बारे में लोगों की परिभाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं।
हर तरफ दुखवाद की ओर बढ़ती दुनिया को सुख की याद दिलाना बहुत जरूरी है। बुनियादी रूप से सुख एक सकारात्मक, समरसतापूर्ण अनुभव है। इसके बारे में लोगों की परिभाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं। कुछ लोग दुख की अनुपस्थिति, ऐंद्रिक सुख और दैहिक आराम को खुशी मानते हैं; कुछ लोग खुशी का अर्थ आतंरिक समृद्धि मानते हैं। प्राचीन यूनानियों ने इन दोनों के लिए क्रमश: हेडोनिया और यूडेमोनिया शब्दों का इस्तेमाल किया।
सुख सकारात्मक भावनात्मक अनुभव और जीवन में गहरी सार्थकता के आभास का मिश्रण होता है, जिसमें स्पर्श होता है संतोष, सुकून और आनंद का। सुख का क्षण कृतज्ञता का क्षण होता है; हमारा हृदय समूचे अस्तित्व के प्रति आभार से भर उठता है। सुख का पल करुणा का क्षण भी होता है, सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, समष्टिगत ऐसी करुणा, जो आंखों से आंसू बन कर बह निकलती है।
सुख उन घटनाओं, चीजों या लोगों से ही नहीं आता, जो हमारे जीवन में होते हैं। हम सुख को हथेली पर रख कर निहारें, तो वास्तव में वह हमारे अंतस से प्रवाहित होता दिखेगा। हम वस्तुओं या लोगों के बारे में अपनी सोच बदलते हैं, तो हमारे दुख खुशी में बदल जाते हैं! हमारी अपनी नकारात्मकता और विषाक्तता ही सकारात्मकता में परिवर्तित हो जाती है। सुख अक्सर किसी काम के साथ भी जुड़ा होता है। परिवार, दोस्त और अच्छे संबंध, धूप, सर्दी, कुदरत और घर से बाहर खुले में रहना, अपनी पसंद का काम, कृतज्ञता और करुणा जैसे भाव, शारीरिक तंदुरुस्ती, आर्थिक सुरक्षा, सार्थक काम, कुछ हासिल करना और कोई सृजनात्मक काम करना।
पर क्या खुशी लगातार नए अनुभवों की खोज में खुद को थका डालने में है? उत्तेजना में सुख हो, ऐसा नहीं लगता। खुशी में तो सुकून होना चाहिए। बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है : 'सुखी जीवन बहुत हद तक एक शांत जीवन होना चाहिए। शांति के वातावरण में ही वास्तविक आनंद का अनुभव किया जा सकता है।' गांधी का कहना था : 'जब आपके कहने, बोलने और करने में समरसता होती है, तभी सुख होता है।' वास्तव में कथनी और करनी का अंतर ही आतंरिक द्वंद्व और दुख का दूसरा नाम है। जीवन का इसे एक दृढ़ सिद्धांत बना लिया जाए, तो शर्तिया जीवन में सुख बढ़ेगा, दुख घटेगा।
दुख का महिमामंडन सुख को दीमक की तरह चाट जाता है। कीट्स लिखते हैं कि दुनिया एक ऐसी जगह है, जहां लोग बैठ कर एक-दूसरे की कराह सुनते हैं। वास्तव में दुख में खूबसूरत कुछ भी नहीं। यह मस्तिष्क की कोशिकाओं को भारी नुकसान पहुंचाता है। अतृप्त कामनाओं से शुरू होकर यह एक ऐसे अवसाद की तरफ ले जाता है, जिसके दलदल में एक बार पांव धंसे तो उससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है।
दुख हमारी नैसर्गिक मनोदशा नहीं। वेदांत और बौद्ध धर्म हमारी ऐसी मूलभूत अवस्था की तरफ संकेत करते हैं, जहां 'शांति का एक द्वीप है', जो हर तरह की उठापटक, ऊहापोह और उद्वेलन से दूर है। समूची कुदरत में सिर्फ आनंद है, बस इंसान इस अद्भुत गणितीय व्यवस्था और इसके आनंद से छिटक कर कहीं दूर जा गिरा है और अपने स्व-निर्मित दुख में लोट रहा है। ऐसे में सुख की खोज करने से ज्यादा जरूरी है कि हम अपने रोजमर्रा के छोटे-छोटे दुखों की तह में जाएं और उनके कारणों को खत्म करें।
सादगी में भी अद्भुत सुख है। आइन्स्टाइन कहते थे : 'एक मेज, एक कुर्सी, फलों का एक कटोरा और एक वायलिन… खुश होने के लिए इससे अधिक भला क्या चाहिए।' मशहूर अंतरिक्ष वैज्ञानिक स्टीवन हाकिंग मोटर न्यूरान संबंधित बीमारी की वजह से बोल तक नहीं पाते थे। वे एक मशीन के सहारे बात करते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा कि ऐसा जीवन जीते हुए उन्हें कैसा महसूस होता है।
हाकिंग का जवाब था : 'इतना कुछ तो है; जीने के लिए और क्या चाहिए!' एड डेनर अमेरिका के इलिनोइ विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर और 'पर्सपेक्टिव्स आन साइकोलाजिकल साइंस' के संपादक हैं। लोगों को क्या सुखी बनाता है इस विषय पर शोध करने में उन्होंने कई दशक खर्च किए हैं। उनके मुताबिक सुखी व्यक्ति ज्यादा धन कमाता है, दीर्घजीवी होता और अच्छा नागरिक भी बनता है। डेनर का कहना है कि पांच कारक आपको खुश बनाते हैं- सामाजिक संबंध, स्वभाव, धन, समाज, संस्कृति और सोचने की सकारात्मक शैली।
डेनर का कहना है कि स्कूल के स्तर पर सुख का अध्ययन होना चाहिए, क्योंकि दैनिक जीवन में इसकी गहरी प्रासंगिकता है। ताज्जुब की बात है कि जिसकी हमें सबसे अधिक जरूरत है, उसके अभाव को हम बचपन से ही अनदेखा करते जाते हैं। एक खेलते-कूदते बच्चे को पढ़ाई और परवरिश, सफलता की उपासना के जरिए हम अपने उदास समाज में शामिल करने में लग जाते हैं! समाज को सफल और शिक्षित पर दुखी इंसान चाहिए या एक कम शिक्षित पर सुखी इंसान? यह एक बड़ा सवाल होना चाहिए।
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