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अभी पिछले सप्ताह तक कोयला चर्चा में था। कोयले की कमी और उसके विद्युत उत्पादन पर असर को लेकर तकरीबन पूरे देश में राजनीतिक करंट फैलने लगा था। समस्या अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है
हरजिंदर। अभी पिछले सप्ताह तक कोयला चर्चा में था। कोयले की कमी और उसके विद्युत उत्पादन पर असर को लेकर तकरीबन पूरे देश में राजनीतिक करंट फैलने लगा था। समस्या अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, लेकिन इसको लेकर होने वाला राजनीतिक बवाल क्योंकि आनुपातिक रूप से काफी ज्यादा था, इसलिए वह जरूर ठंडा पड़ गया है। विपक्ष को समझ में आ गया है कि कोयले से कहीं अधिक राजनीतिक ऊर्जा लखीमपुर खीरी कांड से खींची जा सकती है।
लेकिन कोयला पूरी तरह से ठंडा पड़ गया हो, ऐसा नहीं है, और इस सप्ताह के अंत तक वह फिर से चर्चा में आ सकता है। 31 अक्तूबर से स्कॉटलैंड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन-2021 शुरू होने वाला है, जहां हर बार की तरह भारत और चीन में कोयले से बिजली बनाए जाने का मसला चर्चा में आएगा ही।
बेशक इस उत्सर्जन में चीन की भूमिका भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा है, लेकिन अगर चीन पर निशाना साधा जाता है, तो भारत भी निशाने पर आएगा ही। चीन के नेता शी जिनपिंग इसे अच्छी तरह से समझते हैं, इसलिए उन्होंने सम्मेलन में न शामिल होने का फैसला किया है। इधर, भारत में छपी खबरों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में शिरकत करने वाले हैं। चूंकि उन्हें वहां ऐसे कई सवालों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा, इसलिए जाहिर तौर पर वह अपने जवाब और भारत की तैयारियों का ब्योरा भी लेकर जाएंगे। उनमें बहुत सारे तर्क उन दबावों के भी होंगे, जिन्हें महामारी काल की दुनिया बहुत अच्छी तरह समझती है। वैसे भी, यह सम्मेलन पिछले साल होना था, लेकिन महामारी की वजह से उसे टाल देना पड़ा था।
पहले बात चीन की। पिछले हफ्ते जब हमने भारत के कोयला संकट की बात शुरू की थी, उस समय तक चीन कोयले के गंभीर संकट से जूझ रहा था। वहां यह संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई कारखानों को अपनी क्षमता से कम उत्पादन करना पड़ रहा है, जबकि कई उद्योगों का विस्तार फिलहाल के लिए रोक दिया गया है। स्टील, सीमेंट, एल्युमिनियम और रासायनिक फाइबर उद्योगों पर इसका असर सबसे ज्यादा पड़ा है।
भारत में बिजली की मांग काफी तेजी से बढ़ रही है, लेकिन चीन में जो मांग की वृद्धि है, उसके सामने यह कहीं नहीं ठहरती। उसके चलते चीन अपनी विद्युत उत्पादन क्षमता भी तेजी से बढ़ा रहा है, जिसका सबसे सस्ता और आसान तरीका है कोयला। इसलिए कोयले की मांग वहां बहुत ज्यादा है। चीन के विद्युत उत्पादन गणित को हम इससे भी समझ सकते हैं कि वहां 2015 से 2020 तक विद्युत खपत में 1,880 टेरावॉट घंटे की वृद्धि हुई है, जबकि भारत में साल 2020 का कुल विद्युत उत्पादन इससे कम रहा है। यह भी कहा जाता है कि भारत को अगर चीन की तरह ही औद्योगिक विकास की दौड़ में आगे बढ़ना है, तो उसे इसी तरह से विद्युत उत्पादन बढ़ाना होगा।
कार्बन उत्सर्जन में कोयले की क्या भूमिका है, यह भारत और चीन, दोनों अच्छी तरह समझते हैं। दोनों ने ही पेरिस के जलवायु सम्मेलन में इसे लेकर बाकायदा वादा तक किया है। भारत ने कहा है कि वह 2030 तक ऊर्जा उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को 40 फीसदी तक ले जाएगा। चीन का वायदा तो इससे भी बड़ा है। उसने कहा है कि साल 2060 तक चीन में होने वाला कार्बन उत्सर्जन शून्य स्तर तक पहंुच जाएगा। दोनों यह भी जानते हैं कि दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से बचाने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। लेकिन यह सब आसान भी नहीं है।
भारत में 60 फीसदी से ज्यादा विद्युत उत्पादन कोयले से होता है। इसे एकाएक कम नहीं किया जा सकता। भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां प्रति व्यक्ति बिजली की खपत सबसे कम है। समय, जरूरत और विकास के साथ-साथ यह खपत बढ़नी ही है। ऐसा नहीं हो सकता कि भारत यह सारा पनबिजली के हवाले कर दे। देश की ज्यादातर नदियों और जलधाराओं पर विद्युत संयंत्र लगाए जा चुके हैं। और आजादी के बाद से अब तक के हमारे लंबे अनुभव ने यह भी बता दिया है कि नया जल विद्युत संयंत्र लगाना ज्यादा महंगा सौदा है। पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान इसी वजह से होता है।
पिछले कुछ समय से अक्षय ऊर्जा, और खासकर सौर ऊर्जा की काफी चर्चा होती रही है, लेकिन इसकी सीमाएं हैं। दुनिया के किसी भी देश की अक्षय ऊर्जा पर निर्भरता अभी तक दस फीसदी से ज्यादा नहीं है। यह ऐसा काम है, जिसके लिए दुनिया बहुत तेजी से चीन पर निर्भर होती जा रही है। इसके लिए सबसे ज्यादा सोलर पैनल भी चीन में बन रहे हैं और इनमें इस्तेमाल होने वाला पॉलीसिलिकॉन भी यहीं बनता है। पॉलीसिलिकॉन को बनाने वाली फैक्टरियों में बड़े पैमाने पर उसी बिजली का इस्तेमाल हो रहा है, जो कोयले से बनती है। बैटरी से चलने वाली कार टेस्ला अपनी 70 फीसदी बैटरियों के लिए चीन पर निर्भर है और अब इसकी आपूर्ति में बाधा आ गई है, क्योंकि कोयले की कमी से उसे बनाने वाली फैक्टरियों पर विद्युत इस्तेमाल की कई पाबंदियां लगा दी गई हैं।
एक बड़ी उम्मीद परमाणु ऊर्जा से की जा सकती है, लेकिन नए परमाणु संयंत्र लगाने के भारत के अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। इसके रास्ते में आने वाली राजनीतिक बाधाएं भी बहुत बड़ी हो जाती हैं। फिर, पिछले कुछ समय में इसकी कोशिशें भी कम हो गई हैं।
हर बार की तरह यह लगभग तय है कि इस पर्यावरण सम्मेलन में भी भारत और चीन के लिए बहुत सारी खरी खोटी बातें होंगी। दूसरी तरफ, कार्बन उत्सर्जन की तकनीक हस्तांतरित करने के नाम पर कई किंतु-परंतु आ जाएंगे। महामारी जब फैली थी, तो वैक्सीन और अन्य जरूरी दवाइयों से पेटेंट कानून हटाने की बातें की गई थीं, हुआ भले ही कुछ नहीं। क्या जलवायु परिवर्तन सम्मेलन को भी ऐसी ही बातचीत से शुरू करने का समय नहीं आ गया है?
तमाम मजबूरियां होती हैं, वरना कोयले के इस्तेमाल से कौन अपने हाथ काले करना चाहता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Rani Sahu
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