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- हमास-इजरायल संघर्ष और...
गाजा पट्टी पर हमास का ही कब्जा है। हमास एक आतंकवादी संगठन है जो इजराइल को समाप्त करना चाहता है। इजराइल का अस्तित्व 1948 में फिलिस्तीन के एक हिस्से में हुआ था। वैसे यह क्षेत्र मूल रूप से यहूदियों का ही था, लेकिन कालक्रमानुसार इसी क्षेत्र में ईसा मसीह का जन्म हुआ, जिसने यहूदी विश्वासों से इतर एक नए पंथ को जन्म दिया। यहूदी ओल्ड टैस्टामैंट को अपनी धार्मिक किताब स्वीकारते हैं। लेकिन ईसा मसीह ने उससे भिन्न उपदेश देने शुरू किए तो उस समय के शासकों ने उसकी अत्यन्त क्रूर तरीके से हत्या कर दी। ईसा मसीह के चेले ईसाई कहे जाने लगे। इन चेलों की संख्या भी बढऩे लगी और साथ ही उनमें गुस्सा भी बढऩे लगा कि उनके मार्गदर्शक की हत्या यहूदियों ने की थी। इन चेलों ने ईसा मसीह के वचनों को भी संकलित करना शुरू कर दिया और नई पोथी का नाम न्यू टैस्टामैंट रखा, जिसे सामान्य भाषा में बाईबल भी कहा जाता है। ज्यों ज्यों ईसा मसीह के चेले बढऩे लगे त्यों त्यों उनकी यहूदियों से पार बढऩे लगी। यहूदियों ने वहां से भागना शुरू कर दिया और शेष बचे ईसा मसीह के चेलों में ही शामिल हो गए। लेकिन मामला यहीं शान्त नहीं हुआ। कालान्तर में इसी क्षेत्र में हजरत मोहम्मद का जन्म हुआ।
उन्होंने एक अलग मजहब की शुरुआत की जिसे अरबी भाषा में इस्लाम कहा जाता है। शुरू में तो मोहम्मद साहिब का भी बहुत विरोध हुआ और उनको भाग कर मदीना जाना पड़ा। लेकिन मोहम्मद साहिब ने इन सभी विरोधों का बहादुरी से मुकाबला किया और अन्तत: जीत प्राप्त की। धीरे धीरे मोहम्मद साहिब के चेले भी बढऩे लगे और अब ईसाइयों पर संकट आ खड़ा हुआ। बहुत से ईसाई ही अब इस्लाम पंथ में दाखिल हो गए। फिलिस्तीन अब इस्लाम मानने वालों का केन्द्र हो गया। जहां कभी यहूदी रहते थे, वहां अब इस्लाम पंथ को मानने वाले थे। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि बहुत से लोग तो वही थे जो पहले यहूदी थे, बाद में ईसाई हो गए और उसके बाद इस्लाम पंथी बन गए। जो यहूदी ही बने रहे, वे जान बचाने के लिए फिलिस्तीन के अलावा दुनिया के हर हिस्से में चले गए। और फिलिस्तीन ओटोमन साम्राज्य के कब्जे में चला गया। उस पर तुर्कों का झंडा फहराने लगा। कभी अरब तुर्कों को बुद्ध से हटा कर इस्लाम के पाले में ले आए थे, लेकिन उस वक्त शायद उन्होंने नहीं सोचा था कि वही तुर्क इस्लाम का चोगा पहन कर उन्हीं पर राज करना शुरू कर देंगे। लेकिन इससे यहूदियों को कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था। वे तो पूरी दुनिया में दर-बदर होकर भटक रहे थे। वे भारत में भी आए थे। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध ने पासा पलट दिया। इस युद्ध ने ओटोमन साम्राज्य को तोड़ दिया। उसकी गुुलामी में दिन काट रहे देश आजाद होने लगे। फिलिस्तीन भी उनमें से एक था। (यह अलग बात है कि कांग्रेस ने उस समय आन्दोलन चलाया था कि ओटोमन साम्राज्य को बरकरार रखा जाए जिसे खिलाफत आन्दोलन कहा जाता है)। जब फिलिस्तीन तुर्कों की गुलामी से आजाद हो गया तो यहूदियों में भी आशा जगने लगी थी। इसलिए इधर उधर भटक रहे अनेक सम्पन्न यहूदियों ने फिलिस्तीन में जमीन खरीदनी शुरू कर दी थी और कुछ ने तो वहां अपना व्यवसाय भी शुरू कर दिया था। लेकिन यूरोप में हालात फिर बदल रहे थे जिसके कारण एशिया में भी हलचल मचने वाली थी। पिछली सदी के चौथे दशक तक आते आते दूसरा विश्व युद्ध दस्तक देने लगा।
लेकिन इस विश्व युद्ध का सबसे बड़ा खमियाजा यूरोप में बसे यहूदियों को ही भुगतना पड़ा। जर्मनी ने तो इन्तहा ही कर दी। यहूदियों को गैस चैम्बरों में डाल डाल कर मारा जाने लगा। घायल जर्मन सैनिकों को बचाने के लिए यहूदियों का सारा खून निकाला जाने लगा। हाहाकार मच गया। यहूदी अब भाग कर कहां जाएं? वे अमेरिका की ओर भागे। यूरोप की सरकारों ने उन्हें घरों से मुकाम निकाल कर शरणार्थी शिविरों में कैद कर लिया। दूसरे विश्व युद्ध का यदि किसी को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, तो यहूदियों को ही भुगतना पड़ा। विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। वहां भी यह सवाल उठा कि जगह जगह शरणार्थी शिविरों में दिन काट रहे यहूदियों का क्या किया जाए। तब 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने रास्ता निकाला कि उनको वापस उनकी मूल भूमि में लाकर बसा दिया जाए। मूल भूमि तो उनकी फिलिस्तीन थी। उसी के एक हिस्से में उनको बसा कर उनके सनातन देश इजराइल का नाम भी उनको वापस दे दिया गया। लेकिन अब तक यह सारा क्षेत्र इस्लाम मजहब में मतान्तरित हो चुके अरब देशों से घिर चुका था। इतिहास का एक चक्र पूरा हो चुका था और अब दूसरा शुरू होने वाला था। इस्लाम पंथ में जा चुके अरब देश इन यहूदियों को दोबारा इजराइल में देखने के इच्छुक नहीं थे। अरब अनेक यहूदी एक। बत्तीस दान्तों में जीभ के समान। दोनों पक्षों में यदा कदा लड़ाई होने लगी। हैरानी की बात तो यह थी कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम पंथी, तीनों ही अपने आप को एक ही पूर्वज अब्राहम की औलाद मानते हैं। लेकिन आपस में लड़ रहे हैं। जब अरब हार कर थक गए तो लगा कि मिलजुल कर रहना चाहिए। आखिर एक ही पूर्वज की औलाद हैं तो धीरे धीरे अरब देशों और इजराइल में सन्धियां होने लगीं। दूतावास खुलने लगे। अब तो मामला यहां तक आ गया था कि इस्लाम के गढ़ सऊदी अरब और इजराइल में भी निकट भविष्य में बातचीत होने वाली थी। अमेरिका इसका प्रयास भी कर रहा था। गाजा पट्टी के आतंकवादी संगठन हमास को लगा कि यदि ऐसा हो गया तो उसकी अपनी उपयोगिता खत्म हो जाएगी। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में एक देश ऐसा था जो पिछले कई सौ साल से अपने लिए अवसर की तलाश कर रहा था। वह है ईरान। ईरान को अरबों को सबक सिखाना था।
सदियों पहले अरबों ने ईरान पर हमला करके उसे जीत लिया था। जीत ही नहीं लिया था बल्कि उसे बलपूर्वक इस्लाम पंथ में मतान्तरित भी कर लिया था। बहुत से ईरानी उस समय मतान्तरण से बचने के लिए ईरान से भाग कर भारत में भी आ गए थे जिन्हें आजकल पारसी कहा जाता है। लेकिन अब ईरान अरबों के आगे विवश था। उसकी सभ्यता संस्कृति खत्म हो रही थी। अरबों से बदला लेने का उसे पहला अवसर तब मिला जब मुसलमानों ने हजरत मोहम्मद को दामाद हजरत अली और उनके सभी रिश्तेदारों की कर्बला के मैदान में धोखे से हत्या कर दी थी। तब अली के शिष्यों में शिया पंथ की शुरुआत कर दी। ईरान, अरबों को सबक सिखाने के लिए शिया पंथ में चला गया। लेकिन उसने दूसरे अवसर की तलाश नहीं छोड़ी। उसे दूसरा अवसर मिला हमास की सहायता से। हमास इजराइल पर हमला कर देगा तो अरब देश चाह कर भी इजराइल के साथ समझौते कर सुखपूर्वक नहीं रह सकेंगे। ईरान चाहता है कि इजराइल और अरब लड़ते रहें ताकि उनकी शक्ति का क्षय होता रहे। अंग्रेजी में इसे कहेंगे ब्लीडिंग अब्र्ज। इजराइल के पास दूसरा रास्ता ही नहीं है। हमास ने हजारों इजराइलियों को नृशंसता से मौत के घाट ही नहीं उतारा, बल्कि सैकड़ों को बन्धक बना कर ले गया है। ईरान हालत को वहां तक ले गया है जहां से कोई भी पक्ष वापस नहीं हट सकता। क्या ईरान अरबों से सैकड़ों साल पहले की पराजय का बदला ले रहा है!
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल:[email protected]
divyahimachal