सम्पादकीय

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : एक और अयोध्या सफरनामा का आगाज़, भारत को इससे सावधान रहना चाहिए

Rani Sahu
17 May 2022 2:29 PM GMT
ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : एक और अयोध्या सफरनामा का आगाज़, भारत को इससे सावधान रहना चाहिए
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सोमवार दोपहर को भगवा कुर्ते में एक अधेड़ व्यक्ति वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Mosque) से बाहर भागता हुआ आया और टीवी चैनलों पर ऐलान कर दिया, बाबा मिल गए

संदीपन शर्मा |

सोमवार दोपहर को भगवा कुर्ते में एक अधेड़ व्यक्ति वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Mosque) से बाहर भागता हुआ आया और टीवी चैनलों पर ऐलान कर दिया, बाबा मिल गए. इसके बाद तो उन्माद वैसी ही दिखी जैसा भारत में अमूमन देखने को मिलता है. एक व्यक्ति के कुछ शब्दों को शुभ समाचार मानकर देश का एक बड़ा वर्ग उन्माद की गिरफ्त में आ गया. बाबा विश्वनाथ (Baba Vishwanath) के काशी लौटने की जय-जयकार करने लग गया. कुछ निडर लोगों द्वारा भगवान की खोज की खबर से टीवी चैनल तो जैसे पागल ही हो गए. यदि भारतीयों ने विश्वास की एक विशाल छलांग का सपना देखा था तो निस्संदेह यह अमेरिकी ट्रैक एंड फील्ड स्टार कार्ल लुईस क्षण जैसा था. (अमेरिकी एथलीट कार्ल लुईस ने ओलंपिक में अकेले ही 9 स्वर्ण पदक जीते हैं और उन्होंने लम्बी छलांग में रिकार्ड बनाया था).
इतिहास खुद को दोहराता है. कभी राम लला बनकर तो कभी भोले बाबा बनकर. 23 दिसंबर 1949 की सुबह रामलला भी नाटकीय रूप से उस समय की बाबरी मस्जिद के गर्भगृह में प्रकट हुए थे. उस दिन अभिराम दास नाम के एक अधेड़ व्यक्ति और पुजारी ने दुनिया के सामने एक गंभीर खोज की घोषणा की थी. वह एक स्कूल से दूसरे स्कूल, एक बाजार से दूसरे बाजार तक चिल्लाता रहा कि अयोध्या के भगवान ने आखिरकार अपने जन्मस्थान को पुनः प्राप्त कर लिया है. कुछ घंटों बाद अभिराम दास को मस्जिद में मूर्ति स्थापित करने की साजिश में नामित किया गया. लेकिन, यह एक अलग कहानी है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की पूरी तरह से अवहेलना है
इतिहास के उस कालखंड में ले जाने का कारण यह था कि आपको बताया जा सके कि भारत एक बार फिर से अयोध्या आंदोलन की शुरुआत देख रहा है. एक देवता को दूसरे देवता के स्थान पर रखने की पागलपन की दौड़ एक बार फिर लोगों की नसों में फड़कने लगी हैं. ये घटनाक्रम मौजूदा कानूनों का साफ उल्लंघन है, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की पूरी तरह से अवहेलना है और हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा ली गई सार्वजनिक प्रतिज्ञा को भूलने का क्षण है जब उन्होंने कहा था कि वे इस देश में अयोध्या नहीं दोहराएंगे.
एक स्थानीय अदालत द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद में वीडियोग्राफी कराने का आदेश देना न्याय का उपहास है. 1991 में भारतीय संसद ने एक कानून पारित किया था जो किसी भी पूजा स्थल के रूपांतरण पर रोक लगाता है. स्पष्ट शब्दों में यह कहता है कि 5 अगस्त, 1947 को जो स्थिति थी उसे बनाए रखना है. इतिहासकारों और पुरातत्वविदों को इसमें कोई संदेह नहीं है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण एक मंदिर को समतल करके किया गया था. बहस केवल उन परिस्थितियों और कारणों के इर्द-गिर्द है जिनके कारण मंदिर का विनाश हुआ. बहरहाल 1991 का कानून ऐसे सभी पुराने विवादों पर फिर से विचार करने पर रोक लगाता है. तो फिर वीडियोग्राफी का उद्देश्य क्या है और वाराणसी की अदालत ने मस्जिद के इतिहास पर फिर से विचार करने की याचिका पर विचार क्यों किया?
हिंदुत्व ब्रिगेड की मंशा बिल्कुल साफ है. शिवलिंग की खोज की घोषणा के तुरंत बाद भगवा परिवार के एक प्रमुख सदस्य ने NDTV पर घोषणा की कि 1991 का कानून पवित्र नहीं है क्योंकि यह "भगवान द्वारा फ्रेम नहीं की गई थी." भगवा परिवार पुराने विवादों को न उठाने के अपने सार्वजनिक वादों से मुकर गया है. इतना ही नहीं, जो तर्क वो अयोध्या आंदोलन के दौरान दिया करता थे उस पर भी वापस लौट आए हैंः कानून आस्था के मामलों को तय नहीं कर सकते, केवल हिंदू बहुसंख्यक ही कर सकते हैं.
आंकड़ों में ये बताया जा रहा है कि कितने मंदिर तोड़े गए
9 नवंबर, 2019 को अपने अयोध्या फैसले में पांच-न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच ने पूजा के स्थान अधिनियम को "भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए डिज़ाइन किया गया एक विधायी साधन जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है" बताते हुए इसका स्वागत किया था. दरअसल सुप्रीम कोर्ट को इसे शुरू में ही खत्म कर देना चाहिए था. सुप्रीम कोर्ट को वाराणसी की अदालत को 1991 के कानून और उसके अपने फैसले की याद दिलानी चाहिए थी. हमें उम्मीद करना चाहिए कि इस बहस को मंगलवार को संबोधित किया जाएगा जब सुप्रीम कोर्ट ज्ञानवापी मस्जिद में वीडियोग्राफी को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करेगी.
यहां बड़ा सवाल यह नहीं है कि क्या मंदिर की जगह मस्जिद बनाई गई थी. बल्कि सवाल यह है कि क्या यह देश कानूनों के आधार पर चलेगा या निचली अदालतों के कुछ कट्टर लोगों की सनक और मर्ज़ी के आधार पर चलने वाला है? क्या संसद द्वारा पारित अधिनियमों या सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित फैसलों की बार-बार भारत समीक्षा करता रहेगा और वो भी सिर्फ आबादी के एक वर्ग को खुश करने के लिए. सवाल है कि आखिर यह संशोधनवादी जोश कहां खत्म होगा? ज्ञानवापी मस्जिद पहले से ही लाइन में है और आगे मथुरा की जामा मस्जिद हो सकती है. ताजमहल को हिंदू मंदिर में बदलने की कोशिश जारी है. पुराने पूजा स्थलों को फिर से प्राप्त करने के दक्षिणपंथी खोज से उत्साहित होकर सोशल मीडिया पर हास्यास्पद आंकड़े फैलाए जा रहे हैं. इन आंकड़ों में ये बताया जा रहा है कि कितने मंदिर तोड़े गए.
अगर कोई इन मामलों को आगे बढ़ाने का फैसला करता है तो करीबन 8000 से 80000 के बीच ऐसे विवादित स्थल हो सकते हैं. और मामला अगर आगे बढ़ा तो पूरा भारत प्रतिस्पर्धी धर्मों के युद्ध के मैदान में बदल जाएगा. कई मस्जिदों का निर्माण वास्तव में मंदिरों को तोड़कर किया गया था. उसी तरह पूर्व-इस्लामिक युग में कई बौद्ध विहारों को भी हिंदू राजाओं ने नष्ट किए और बाद में मुस्लिम हमलावरों ने इसे बर्बाद किया. विभाजन के दौरान उत्तर पश्चिमी भारत में कुछ मस्जिदों को हिंदू मंदिरों में परिवर्तित कर दिया गया था. अतीत को खोदने से मध्यकालीन युग के प्रतिशोध को ही हम आगे बढ़ा सकते हैं. इससे हमारा ध्यान और ऊर्जा आधुनिक युग की वास्तविक चुनौतियों जैसे विकास, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, रोजगार और जलवायु परिवर्तन से हट जाएगा. एक और अयोध्या की कीमत बहुत अधिक होगी.
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