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कुल्लू में कांग्रेस की गर्जना से कहीं अहम मुख्यमंत्री का दिल्ली दौरा उल्लास पैदा करता है
दिव्याहिमाचल.
हिमाचल में उमड़ते बादलों की राजनीतिक तासीर समझना कल भी मुश्किल था और आज भी इनके भ्रमजाल में करवटें चल रही हैं। चौथे साल के अंतिम पहर में प्रदेश सरकारों का विशषण न केवल गैर करते हैं, बल्कि अपनों की निगाहों में भी गंदगी आ जाती है। कमोबेश इस स्थिति में हिमाचल की वर्तमान सरकार की पैरवी और परिचय के बीच राजनीति द्वंद्व शुरू है। अफवाहों की आग में रोटियां सेंक रहे सोशल मीडिया के लिए सत्ता परिवर्तन के गरुड़ पूरे आकाश में घूम रहे हैं, तो सत्ता की नई अभिलाषा में शेष कार्यकाल की बंदगी करते भाजपा के ही कुछ लोग भी दिखाई देते हैं।
कुल्लू में कांग्रेस की गर्जना से कहीं अहम मुख्यमंत्री का दिल्ली दौरा उल्लास पैदा करता है या उदास करता है, इस शक में भी महत्त्वाकांक्षा का आलेप है। हिमाचल को इस वक्त अपना रिपोर्ट कार्ड देखना हो तो किस झुंड से होकर गुजरे। शांता की बाहों में फैलते आशीर्वाद से मोहित हो जाएं या केंद्र में शक्तिशाली हो रहे धु्रव की कानाफूसी पर विश्वास करें। जो भी हो, गुुजरात आपरेशन के टांकें हिमाचल की आंतरिक तकलीफ बढ़ा रहे हैं। क्या पता आसमान से गिर कर खजूर पर लटके लोग अब जमीन पर उतर आएं या जो आसमान तोड़ रहे थे, उन पर बिजली गिर जाए। राजनीति की वर्तमान दुविधा में भाजपा की कार्रवाइयों समझना अति कठिन है। सारे कयास किसी चाय की टपरी पर लग जाएं, तो फिर आज की भाजपा को समझना आसान हो जाएगा। हिमाचल के संदर्भ में पार्टी आलाकमान का त्रिकोण समझना होगा। यह दीगर है कि गुजरात में मुख्यमंत्री परिवर्तन से अमित शाह के वजन पर असर पड़ा है, तो क्या जगत प्रकाश नड्डा के लिए हिमाचल की राजनीतिक दौलत में सेंध लग जाएगी। बेशक! कॉडर सुधारने की फितरत में भाजपा के बड़े फैसले अप्रत्याशित होते हैं, इसलिए कनखियों से हर घटनाक्रम देखने की आदत सी हो गई है। बहरहाल हिमाचल में सत्ता बनाम सत्ता के पारंपरिक खेल को विराम देने के प्रश्र पर आलाकमान के पास आसान से लेकर कठोरतम समाधान होना स्वाभाविक है। यहां भाजपा आज तक हिमाचल को कांग्रेस मुक्त करने का नारा बुलंद नहीं कर पाई तो इसकी पृष्ठभूमि इतनी सरल कैसे हो सकती है कि मात्र चेहरे बदलने से समाधान हो जाए।
फिकर को फितूर में बदलना अगर आसान हो जाए, तो सफल होने की झांकियां बदल जाएंगी। हिमाचल सरकार के समक्ष कांग्रेस की झांकियों में से कुल्लू में विपक्ष का जमावड़ा जो कह रहा है, उस पर गौर करना होगा। यहां प्रश्र अगली सत्ता के इंतजार में मुंहबाए खड़े हैं, तो मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव की तासीर में गोलबंद हो रहे हैं। दरअसल हर चुनाव के दौरान क्षेत्रवाद के खंभों पर सरकार के फैसलों को चढ़ाया जाता है और कुछ ऐसा प्रयत्न कांगे्रसी नेता कर रहे हैंं। मसला राजनीतिक क्षेत्रवाद का पैदा होने लगा है और हर सरकार की तफतीश सरीखा है। मुद्दे, मसले खड़े करके 'मरहम की राजनीति पैदा की जाती है। विपक्ष तो आरोप लगाएगा, लेकिन अपनों की बारात जिस तरह सुशासन का उल्लंघन कराती है, उसे समझना होगा। मसलन नए जिलों के गठन को हवा देकर जिस राजनीतिक विभाजन को भाजपा का ही एक वर्ग सशक्त करता है, वह सांकेतिक विरोध है जिसे सत्ता के संदर्भों में चौकस भरी निगाहों से देखना होगा। बहरहाल बदलाव की गलबहियों में सियासत के अंदरूनी अक्स जोड़ तोड़ करते रहेंगे, लेकिन दिल्ली का समाधान किसी चिट्ठी पर उकेरा नहीं जा सकता। भाजपा की श्रम-साधना अब सत्ता से निकलती है और सत्ता तक ही जाती है, इसलिए हिमाचल का अंकगणित यूं ही फिसल जाए, कहा नहीं जा सकता। दिल्ली के इशारों में हिमाचल की सत्ता नई खोज शुरू करेगी, तो यकीन करना होगा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए अब उपचुनावों के साथ आगामी विधानसभा चुनाव का टास्क नई पिच पर शुरू हो रहा है।
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