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By: divyahimachal
पंजाब पुनर्गठन के कई सुराख अब सामने आ रहे हैं और इस तरह हरियाणा और हिमाचल उस दौर की निगाहों से पुन: अपने हक देख रहे हैं। मामला शिकायतों तक रहा या सरकारें केवल मसले को धकियाती रहीं, इसलिए पुनर्गठन के अनुपात बिखरते रहे। समय ने इसी समझौते की खाल उस समय खींची जब उत्तर भारत की नदियों ने साबित किया कि उनका अस्तित्व पहाड़ के दर्द में समाया है या उस वक्त सामने आया जब जमीन के बंटवारे ने पंजाब-हरियाणा के बीच विवादों का समुद्र खड़ा किया। इनसाफ उन समझौतों की आंत में फंसा है जो पंजाब पुनर्गठन से पहले हुए या उस फांस में मौजूद है जो चंडीगढ़ में भी हिस्सेदारी के लिए अड़ा है। पंजाब के पर्वतीय इलाके अपने साथ हिमाचल में एक समृद्ध इलाका ही नहीं लाए, बल्कि 7.19 प्रतिशत की हिस्सेदारी भी लाए, लेकिन हिमाचल के इतिहास के ये पन्ने सुखरू नहीं हुए। उस दौर में किसी को यह चिंता नहीं हुई कि 7.19 प्रतिशत की हिस्सेदारी में स्थापित संस्थानों में हिमाचल के हित लिए जाएं। यह हिस्सा चंडीगढ़ को अगर पंजाब-हरियाणा की राजधानी में कबूल था, तो वहां आज तक हिमाचल के इन्हीं रिश्तों की जमीन क्यों हासिल नहीं हुई। आश्चर्य यह कि जिस दिल की खातिर ये पर्वतीय क्षेत्र हिमाचल की जमीन पर खड़ा होना चाहते थे, उसे भी ऊपरी व निचले क्षेत्रों या पुराने व नए हिमाचल की जागीर में देखते रहे। उस वक्त की चिंताए केवल सियासी रहीं, लेकिन क्या किसी ने विशाल हिमाचल की परिकल्पना में पंजाब से मिले 7.19 प्रतिशत के अधिकार को सीने से लगाया।
अगर इसे सीने का दर्द समझा होता तो आज पौंग बांध के बदले हिमाचल में भी आर्थिकी का नया सूर्य उग आया होता। यही 7.19 प्रतिशत हिस्सा शिमला की कई संपत्तियों और चंडीगढ़ की परिधि में हिमाचली अस्तित्व का मुकाम हासिल कर पाया होता। पर्वतीय क्षेत्रों का हिमाचल में आना अगर प्रदेश का गौरव बनाया होता, तो आज जिसे पानी कहते हैं, वह सोना हो जाता। जिस लीज की बुनियाद पर शानन विद्युत परियोजना आज तक हमारी छाती पर आर्थिक मूंग दलती रही, वह पर्वतीय खजाने की इज्जतदार बेटी बनी होती। गौर करें इसी दर्पण की दूसरी ओर खड़े पंजाब पुनर्गठन के सरोकारों को पंजाब आज भी अपनी संपत्ति मान रहा है। गोया कि पुनर्गठन का समझौता केवल उसके लिए खड़ा है। दूसरी ओर हरियाणा के अस्तित्व और दस्तूर को समझे बिना हिमाचल पुनर्गठन के मर्म को नहीं जान सकता। अभी ताजा हिसाब देखें तो पंजाब विश्वविद्यालय में भी हरियाणा अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहता है, तो क्या हमने ऐसी कोशिश कभी की। बाकायदा विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके हरियाणा न केवल पीयू के टैग में हिस्सेदारी चाहता है, बल्कि राज्य के कुछ कालेजों को इसके तहत मान्यता दिलाना चाहता है। हमारी सोच अलग है।
हमने कभी यह नहीं सोचा कि चंडीगढ़ की भूमि में हमारा राज्य भी हकदार बने। और तो और हमने तो शिमला विश्वविद्यालय को भी इतना काट दिया है कि अब इसकी प्रतिष्ठा पर भी आंच आ रही है। ऐसे में मंडी विश्वविद्यालय की जरूरत की सौ दलींले होंगी, लेकिन पिछले चालीस सालों में धर्मशाला में स्थित शिमला विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र को बीच मझधार में छोड़ दिया गया है। पंजाब पुनर्गठन ने हिमाचल में कांगड़ा क्षेत्र का वजूद, सैन्य इतिहास, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि तथा भाषाई आधार मिलाया था, लेकिन क्या यह पूरी तरह संभव हुआ। जिस भाषाई मेलजोल और समीपता से हमने एक समान हिमाचली भाषा तराशनी थी, क्या हम यह सपना पूरा कर पाए, अलबत्ता पर्वतीय संकीर्णता और निर्बलता ने ऐसे क्षेत्रों की बाहुलता में भाषा के सुदृढ़ संपर्कों को नजरअंदाज करने की ठान ली है। चाहे हरियाणा हो या हिमाचल, प्रादेशिक भाषा की पृष्ठभूमि में हम राजनीतिक तौर पर पंजाबी शब्दावली से अपने पहाड़ी अर्थों की समीपता को दूर नहीं कर सकते। जरूरत यह है कि पंजाब पुनर्गठन को फिर से रेखांकित और परिभाषित करते हुए क्षेत्रीय सहयोग-संपर्क के सेतु को मजबूत किया जाए। अतीत में हिमाचल का अपना कोई मीडिया नहीं था, लेकिन अब हिमाचल की बात कहने का सामथ्र्य और अंदाज बदला है, फिर भी पूरे समाज को यह जान लेना होगा कि प्रदेश के व्यापक हित में कुछ कदम घर से बाहर और संघर्ष के समर्थन में उठाने पड़ सकते हैं।

Rani Sahu
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