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हाल में बिजऩेस न्यूज चैनल पर एक विज्ञापन देखा जिसमें बताया गया था कि तेज रफ्तार वाली फार्मूला गाडिय़ां अब अपनी जरूरत का कुछ ईंधन अपनी गति की मदद से ही तैयार कर लेंगी। यह नई तकनीक का कमाल है, ऐसा विज्ञापन बता रहा था। यह खबर खास इसलिए है कि दुनिया भर में बिजली का संकट खड़ा हो रहा है। इसके दो मुख्य कारण हैं : पर्यावरण का संकट और रूस-यूक्रेन युद्ध। ये दोनों ही संकट मानव निर्मित हैं। अमेरिका के बाद रूस प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा उत्पादक तो है ही, वह दुनिया का सबसे बड़ा गैस निर्यातक भी है। रूस दुनिया में बिकने वाले कच्चे तेल के 14 फीसदी का मालिक है। यूरोप अपनी जरूरत का आधा प्राकृतिक गैस से पूरा करता है और एक तिहाई कच्चा तेल रूस से लेता है। यूक्रेन युद्ध की वजह से यूरोप ने रूस पर कई तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं जिसके जवाब में रूस ईंधन से यूरोप का गला दबा रहा है। आजकल यूरोप को 20 फीसदी कम ईंधन से काम चलाना पड़ रहा है। रूस से आने वाली मुख्य पाइप लाइन मरम्मत के लिए बंद कर दी गई है। जैसे-जैसे ठंड नजदीक आ रही है, रूस तैयारी कर रहा है कि यूरोप को ईंधन की आपूर्ति पूरी तरह बंद कर दे। बिजली से जुड़ा दूसरा बड़ा वैश्विक संकट है सूखा। यूरोप, अमेरिका और चीन में भयानक सूखा पड़ा है, नदियां सूख गई हैं। इस सूखे का सीधा असर बिजली उत्पादन पर पड़ रहा है। अब हम वापस लौटते हैं उस विज्ञापन पर जिससे मैंने बात शुरू की थी। अव्वल तो, जब हम ईंधन व पर्यावरण के ऐसे संकटों से जूझ रहे हैं तब क्या ऐसी कार रेसों का आयोजन समझदारी है? ईंधन संकट का मुकाबला करने के लिए ईंधन बचाना जरूरी है, बजाय ईंधन खर्चने के नए-नए तरीकों के, लेकिन बाजार ने हमारी समझ पर पर्दा डाल दिया है। यह विज्ञापन आया ही इसलिए है।
पर्यावरण संकट ने मनुष्य के सामने एक नया बाजार खोल दिया है जिसका नाम है पर्यावरण बचाओ बाजार! अब हम अपनी बिजली खुद बनाने वाली गाडिय़ां बनाएंगे! दो साल पहले की ही बात है जब हमारे हाईवे मंत्री गडकरी साहब इलेक्ट्रिक गाडिय़ों का नगाड़ा बजा रहे थे। अब वे ही हाइड्रोजन से चलने वाली गाडिय़ों का ढोल पीट रहे हैं क्योंकि अरबों-अरब की लागत से बने उनके हाईवे को ऐसी-वैसी-कैसी भी गाडिय़ों की जरूरत है। गाड़ी नहीं तो हाईवे नहीं। हाईवे नहीं तो गाड़ी नहीं। अगर विज्ञापन का पर्दा आंखों पर न पड़ा हो तो आपको भी यह सवाल जायज लगेगा कि संकट की इस घड़ी में फोरम्यूला : वन रेस होनी ही क्यों चाहिए? उसी तरह यह सवाल भी जायज बन जाता है कि चाहे गैस पर या एथनॉल पर, हवा पर या पानी पर, दुनिया में इतनी गाडिय़ां बनें और बिकें ही क्यों? सिर्फ इसलिए कि हमने हाईवे बनाए हैं? या कि बाजार चलता ही रहे, ताकि पैसे वालों के लिए कमाने के रास्ते खुलते रहें? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि ईंधन का रूप चाहे जितना बदल जाए, हर नई गाड़ी और अधिक पतरा, लोहा, रबर, प्लास्टिक खाती ही है जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता ही है। जितने हाईवे बन रहे हैं उतने ही पेड़ों और जंगलों को हम काट भी तो रहे हैं! विकास का प्रदूषण जल-जंगल-जमीन तीनों को खाकर ही जिंदा रह सकता है। हम सालों से यह सवाल उठा रहे हैं कि दुनिया के विकास का मॉडल गलत है, हमें 'यू-टर्न' लेने की जरूरत है। अगर हम समझ-बूझकर यू-टर्न नहीं लेते हैं तो दिनोंदिन बिगड़ती परिस्थिति हमें दौड़ाती हुई उधर ही ले जाएगी जिधर घटाटोप विनाश है। यूरोप में बाजार बंद, चीन में उद्योग-धंधे बंद, अमेरिका में इलेक्ट्रिक वाहनों पर लगाई जा रही बंदिश- ये सभी उसी 'यू-टर्न' की ओर इशारा कर रहे हैं। आजादी के समय गांधी ने भी भारत के लिए स्वदेशी पर आधारित विकेंद्रित व्यवस्था का सुझाव दिया था।
प्रेरणा
स्वतंत्र लेखिका
By: divyahimachal
Rani Sahu
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