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- बढ़ते बुजुर्ग
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने देश में बुजुर्ग आबादी के आंकड़े जारी कर दिए हैं। इसके अनुसार इस साल भारत की बुजुर्ग आबादी बढ़ कर तेरह करोड़ अस्सी लाख हो गई। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। बुजुर्ग आबादी तो पिछले छह दशकों से बढ़ रही है। इसका बड़ा कारण जीवन प्रत्याशा का बढ़ना रहा है। जैसे-जैसे दुनिया में स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ी हैं और साधारण से लेकर गंभीर बीमारियों तक के इलाज मिल गए हैं, उससे लोगों की जान बचा पाना संभव हुआ है।
पिछले तीन दशकों में तो भारत में यह स्थिति और बेहतर हुई है। वरना छह-सात दशक पहले तो मामूली बीमारियां भी जानलेवा रूप धारण कर लेती थीं और जीवन बचा पाना संभव नहीं हो पाता था। पर अब ऐसा नहीं है। देखा जाए तो लोगों के जीवन की गुणवत्ता में काफी बदलाव आया है। रहन-सहन और खान-पान से लेकर हर तरह से जीवनशैली भी बदली है। बदलती जीवनशैली ने भले जटिल बीमारियां क्यों न दी हों, पर अब ज्यादातर का इलाज है और इसीलिए लोग लंबी उम्र पा रहे हैं। एनएसओ की रिपोर्ट बताती है कि आने वाले दशकों में बुजुर्ग आबादी और तेजी से बढ़ेगी। जाहिर है, ऐसे में सरकार और समाज की जिम्मेदारियां भी बढ़ेंगी।
सवाल है कि बुजुर्गों की बढ़ती आबादी को किस में रूप में देखा जाए। क्या बुजुर्ग आबादी समाज और देश के लिए समस्या है या फिर इसे सकारात्मक रूप से संसाधन के रूप में देखे जाने की जरूरत है। वैसे तो यह एक अंतहीन बहस का विषय है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि धरती के हर व्यक्ति को अच्छा, सम्मानित और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है। ऐसे में बुजुर्ग आबादी को समस्या मानना अमानवीयता से कम नहीं होगा। भारतीय संस्कृति में तो बुजुर्ग ही परिवार का मूल रहे हैं। लेकिन वक्त के साथ बदलते सामाजिक मूल्यों और जीवन संस्कृति ने बुजुर्गों के प्रति अवधारणा को बदल डाला है। इसलिए बुजुर्ग आबादी इस समय या आने वाले समय के लिए एक संकट के रूप में देखी जा रही है। आए दिन अदालतों में माता-पिता के साथ पारिवारिक और संपत्ति संबंधी विवाद देखने को मिलते रहते हैं, माता-पिता को घर से निकाल देने तक की घटनाएं देखने में आती हैं। यह सब वरिष्ठ नागरिकों के प्रति समाज के बदलते रवैए का परिचायक है। पश्चिमी देशों की तर्ज पर वृद्धाश्रमों का भी चलन चल पड़ा है। ऐसे में इस सवाल पर विचार जरूरी हो जाता है कि बढ़ती बुजुर्ग आबादी को कैसे सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिले।
बुजुर्गों की बढ़ती आबादी को लेकर अब ज्यादा चिंता तो इस बात की सताने लगी है कि कहीं आने वाले समय में इससे जनसांख्यिकीय संतुलन न बिगड़ जाए। चीन, जापान सहित कई देशों में तो ऐसे आकलन आते रहे हैं कि बुजुर्गों की आबादी बच्चों और नौजवानों से कहीं ज्यादा हो जाएगी। इसीलिए चीन ने हाल में एक बच्चा नीति को खत्म कर तीन-तीन बच्चे पैदा करने की छूट दे दी। मानवीयता का तकाजा तो यही है कि बुजुर्ग आबादी को समस्या के रूप में न देखा जाए, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा को मजबूत करने के प्रयासों को प्राथमिकता दी जाए। भारत में साठ साल से ऊपर की आबादी का बड़ा हिस्सा पेंशन जैसी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा से वंचित है। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभ भी हरेक तक नहीं पहुंच पाते। इसकी सीधी वजह हमारे यहां असंगठित क्षेत्र का उपेक्षित होना भी है। उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं में बढ़ती बुजुर्ग आबादी को आर्थिक विकास में एक बड़ी बाधा माना जाता है। इस धारणा को बदलना होगा। बुजुर्ग आबादी को देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में भागीदार कैसे बनाया जाए, इस पर गंभीरता से विचार की जरूरत है।