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Written by जनसत्ता: भारत में तपेदिक यानी टीबी की ताजा स्थिति पर स्वास्थ्य मंत्रालय की पिछले हफ्ते जो रिपोर्ट आई, वह चौंकाने वाली है। रिपोर्ट बता रही है कि वर्ष 2021 में 2020 के मुकाबले टीबी के मरीजों संख्या उन्नीस फीसद बढ़ गई। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह रही कि 2019 से 2020 के बीच टीबी से मरने वालों की संख्या में ग्यारह फीसद का इजाफा देखा गया। ऐसा नहीं कि टीबी के मामलों में उछाल पिछले साल ही आया, वर्ष 2019 में भी टीबी मरीजों की संख्या ग्यारह फीसद बढ़ गई थी।
इन आंकड़ों से एक बात तो साफ है कि देश में राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम कहीं न कहीं अपने लक्ष्य में पिछड़ता जा रहा है। गौरतलब यह भी है कि पिछले एक दशक में राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम के तहत इलाज करवाने वालों की संख्या छह-सात फीसद से ज्यादा नहीं बढ़ पाई है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार ने वर्ष 2025 तक देश से टीबी को पूरी तरह खत्म करने का जो लक्ष्य रखा है, वह कैसे हासिल हो पाएगा? सवाल यह भी कि व्यापक स्तर पर चल रहे तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम में आखिर ऐसी क्या खामियां हैं जिनकी वजह से इसका दायरा नहीं बढ़ पा रहा है?
टीबी जानवेला संक्रामक बीमारी है। हर साल इसके लाखों नए मरीज सामने आ रहे हैं। मरने वालों की संख्या भी पांच लाख सालाना से कम नहीं दिख रही। इसका मतलब साफ है कि टीबी को लेकर न तो लोगों में जागरूकता है, न ही सरकारों के प्रयासों में गंभीरता। हैरानी की बात तो यह है कि आज भी चौंसठ फीसद टीबी मरीज इलाज नहीं करवाते। टीबी को लेकर करवाए गए सर्वे बताते हैं कि अठारह फीसद लोगों को तो यह भी नहीं पता कि इस बीमारी के लक्षण क्या हैं? अगर जागरूकता का अभाव न हो तो ऐसे लोग समय पर इलाज करवा कर अपने को बचा सकते हैं।
पिछले हफ्ते आए राष्ट्रीय टीबी व्यापकता सर्वे के नतीजों से साफ पता चलता है कि टीबी के लक्षण वाले चौंसठ फीसद लोगों ने स्वास्थ्य सेवाएं नहीं लीं। इतना ही नहीं, बारह फीसद लोगों ने तो खुद ही अपना इलाज कर लिया। जबकि दो फीसद टीबी मरीज ऐसे थे जिनके पास इलाज कराने के लिए पैसे भी नहीं थे। इन आंकड़ों से यह साफ हो जाता है कि देश में टीबी से निपटने को लेकर हम कितने लापरवाह हैं!
संकट इसलिए भी गहराया है कि दो साल से देश कोरोना महामारी झेल रहा था। इस दौरान कोरोना संक्रमितों का इलाज ही प्राथमिकता थी। ऐसे में दूसरी बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की सुध कौन लेता? जाहिर है, इन दो सालों में टीबी के नए मरीजों का पंजीकरण भी नहीं हो पाया। इसलिए भी टीबी उन्मूलन कार्यक्रम को धक्का लगना ही था।
समस्या यह भी है कि जो लोग लक्षण पता चल जाने पर भी इलाज नहीं करवाते, वे दूसरों के लिए बड़ा खतरा बन जाते हैं। जाहिर है, टीबी उन्मूलन कार्यक्रम में सरकारों को रणनीति ऐसी बनानी होगी जिससे कि हर मरीज तक पहुंच बने और उसे इलाज दिया जा सके। अगर लोग पैसे के अभाव में इलाज नहीं करवाते तो यह और गंभीर बात है। देश से टीबी का खात्मा तभी हो पाएगा जब इससे निपटने के लिए हर स्तर पर काम हो, चिकित्साकर्मी उन बस्तियों और तबकों तक पहुंचे जो किसी डर या आर्थिक अभाव या जानकारी के कमी के कारण इलाज करवाने से कतराते हैं। वरना यह आंकड़ा तो बढ़ता ही जाएगा।