सम्पादकीय

कमाई के मामले में बढ़ती खाई

Rani Sahu
12 Dec 2021 6:31 PM GMT
कमाई के मामले में बढ़ती खाई
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कोई चालीस साल पहले जनकवि अदम गोंडवी ने ये पंक्तियां लिखी थीं

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कोई चालीस साल पहले जनकवि अदम गोंडवी ने ये पंक्तियां लिखी थीं। लेकिन आज भी यह सवाल न सिर्फ जस का तस खड़ा है, बल्कि मामला और भी विकट हो गया है। 'वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट' यानी विश्व असमानता रिपोर्ट के मुताबिक, भारत उन देशों में एक है, जहां आर्थिक विषमता या गैर-बराबरी सबसे ज्यादा हो चुकी है। यहां के 10 प्रतिशत अमीरों की सालाना कमाई देश की कुल कमाई का 57 फीसदी हिस्सा है। इनमें भी सिर्फ ऊपर के एक फीसदी लोग देश की 22 प्रतिशत कमाई पर काबिज हैं, जबकि नीचे की आधी आबादी महज 13 प्रतिशत कमाई पर गुजारा कर रही है। इन आंकड़ों को और बेहतर समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि अगर आप महीने में 42,000 रुपये कमाते हैं, तो इस देश की 80 फीसदी आबादी आपसे नीचे है। और, 72,000 रुपये मासिक कमाने वाले तो 10 फीसदी से भी कम हैं।
अब आप चाहें, तो इन आंकड़ों में अपनी जगह देखकर खुश हो सकते हैं, या फिर इस चिंता के हिस्सेदार बन सकते हैं कि आखिर गैर-बराबरी के बढ़ने की वजह क्या है? जब अंग्रेज भारत से गए, उस वक्त देश के सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों के पास दौलत और कमाई में करीब आधा हिस्सा था। आजादी के बाद की नीतियों और दसियों साल की मेहनत से यह हिस्सा घटकर 80 के दशक में 35 से 40 फीसदी के बीच आया। लेकिन इस साल की रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा फिर बढ़कर 57 फीसदी से ऊपर जा चुका है। संपत्ति के मामले में तो आंकड़े और भी डरावने हैं। देश की कुल संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा सिर्फ एक फीसदी अमीरों के पास जमा हो चुका है, जबकि 10 प्रतिशत लोगों के पास करीब 64 फीसदी संपत्ति है। नीचे की आधी आबादी के पास कुल छह फीसदी संपत्ति है। औसत लगाएंगे, तो हर एक के खाते में 66,000 रुपये के आसपास की रकम आती है। यहां यह मत समझ लीजिए कि पांच लोगों का परिवार हुआ, तो यह पांच गुना हो जाएगा, क्योंकि यह रिपोर्ट कामकाजी बालिग को ही गिनती है।
यह एक विकट समय है। कोरोना का असर कमाई पर भी पड़ा है और संपत्ति पर भी। पूरी दुनिया में लोगों की कमाई घटी है। लेकिन इस गिरावट का आधा हिस्सा अमीर देशों और आधा गरीब देशों के हिस्से गया है। यानी, गिरावट कमाई के हिसाब से नहीं हुई है। अमीर देशों पर इसका असर कम और गरीब देशों पर ज्यादा दिखाई पड़ा है। असमानता रिपोर्ट के मुताबिक, इसकी जिम्मेदारी मुख्य रूप से दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया पर आती है, और उसमें भी सबसे ज्यादा भारत पर। इसका अर्थ है कि भारत में लोगों की कमाई में सबसे तेज गिरावट आई है। हालत यह है कि सन 2020 के आंकड़ों में से अगर भारत का हिस्सा निकालकर देखा जाए, तो दिखता है कि बाकी दुनिया में नीचे की आधी आबादी की कमाई में हल्की सी बढ़ोतरी हुई है। भारत में जो गिरावट आई है, उसी का असर है कि पूरी दुनिया में नीचे की आधी आबादी की कमाई भी और गिरती हुई दिखती है।
जाहिर है, अमीर और अमीर हो रहे हैं, और गरीब और गरीब। आर्थिक असमानता रिपोर्ट के लेखक इसके लिए अस्सी के दशक के बाद के उदारीकरण और आर्थिक सुधार की नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि जहां देश के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों को इन नीतियों से काफी फायदा पहुंचा, वहीं मध्यवर्ग और गरीबों की तरक्की उनके मुकाबले बहुत कम रही। इसी वजह से गरीबी खत्म होना तो दूर, उल्टे और बढ़ रही है।
इसका मुकाबला कैसे हो सकता है? जब गरीबों को सस्ते में अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें, तभी वे अपनी गरीबी के बंधनों को काटने लायक बन पाते हैं। लेकिन इसके लिए सरकारों के पास इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए और पैसा भी। इस रिपोर्ट में एक गंभीर चिंता सामने आई है कि पिछले कुछ वर्षों में कई देश तो अमीर होते गए, लेकिन उनकी सरकारें गरीब होती गईं। अमीर देशों में तो सरकारों के हाथ करीब-करीब खाली ही हैं, यानी सारी संपत्ति निजी हाथों में है। कोरोना संकट ने यह तराजू और झुका दिया, जब सरकारों ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 से 20 प्रतिशत तक कर्ज और उठा लिया। यह कर्ज भी उन्होंने निजी क्षेत्र से लिया। विकासशील देशों में अभी तक सरकार के पास पैसे भी हैं और वे खर्च भी कर रही हैं, लेकिन मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन के दिखाए जिस रास्ते पर अब पूरी दुनिया चल रही है, वहां ज्यादा दिनों तक इन सरकारों के हाथ में कितना पैसा रह जाएगा, कहना मुश्किल है?
कमाई की खाई अमीर और गरीब के बीच ही नहीं है। महिलाओं की हिस्सेदारी का आंकड़ा भी उतना ही डरावना है। हालांकि, हाल ही में भारत की आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी सुधरने का आंकड़ा आया है। मगर कमाई के मामले में महिलाओं के हाथ सिर्फ 18 प्रतिशत हिस्सा ही लगता है। हालांकि, 1990 के 10 फीसदी के मुकाबले इस मोर्चे पर भारत में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन दुनिया के मोर्चे पर हम सिर्फ अरब देशों से ही बेहतर हो पाए हैं, जहां यह आंकड़ा आज भी 15 प्रतिशत है। चीन को छोड़कर बाकी एशिया का औसत भी 21 प्रतिशत है, जबकि दुनिया का आंकड़ा 35 प्रतिशत।
असमानता रिपोर्ट दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री मिलकर तैयार करते हैं। इस बार रिपोर्ट की प्रस्तावना लिखी है, नोबल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और एस्थर दूफ्लो ने। उनका कहना है कि सरकारों की नीतियों ने कभी गैर-बराबरी पर लगाम कसी थी, और उनकी नीतियों ने ही इसे बेलगाम छोड़ दिया है। यह रिपोर्ट एक बार फिर साफ करती है कि इसे सुधारने के लिए बड़े नीतिगत बदलाव की जरूरत होगी। जरूरत इस बात की है कि इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा जाए, इसमें दिए गए सुझावों पर अमल करने का दबाव बनाया जाए। यह सब जल्दी करना जरूरी है। इससे पहले कि दुनिया की आर्थिक और दूसरी ताकत भी एक छोटे समूह के हाथों में इतनी केंद्रित हो जाए कि उससे मुकाबला करना ही असंभव हो जाए।
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