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कई बार मैं सोचता हूं महंगाई, तंगहाली अथवा गऱीबी क्या हमारे देश से कभी भी समाप्त नहीं होगी
कई बार मैं सोचता हूं महंगाई, तंगहाली अथवा गऱीबी क्या हमारे देश से कभी भी समाप्त नहीं होगी। आखिऱ ऐसी कौन सी वज़ह है जिसके कारण सरकार के इस दिशा में किए गए सभी ईमानदार प्रयास असफल हो जाते हैं। देश के राजनीतिक दल जिस तरह से लोगों को मुफ़्त की रेवडिय़ां बांट कर अपनी राजनीतिक इच्छाओं की पूर्ति करते हैं, उससे भी देश विकास की दृष्टि से बहुत पीछे चला जाता है। देश की सर्वोच्च अदालत में इस मामले पर विचार चल रहा है और उम्मीद है कि एक ठोस निर्णय लेकर न्यायपालिका देश को समुचित दिशा निर्देश देगी। वास्तव में राज्यों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि वे इस तरह के प्रलोभन देकर लोगों को गुमराह कर पाएं। राज्यों के बढ़ते ऋण को देख कर तो स्थिति और भी चिंताजनक बन जाती है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने इन राज्यों को बढ़ते ऋणों के विषय में सचेत भी किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर माइकल देवव्रत पात्रा के नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों के एक दल द्वारा तैयार आरबीआई के लेख में कहा गया था कि पांच सबसे अधिक कर्जदार राज्यों पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल में गैर-जरूरी चीजों पर खर्च में कटौती करने की जरूरत है। लेख के मुताबिक राज्य के वित्त कई तरह के अप्रत्याशित झटकों की चपेट में हैं, जो उनके वित्तीय परिणामों को बदल सकते हैं, जिससे उनके बजट के मुकाबले चूक हो सकती है।
लेख में कहा गया कि पड़ोसी श्रीलंका में हालिया आर्थिक संकट सार्वजनिक ऋण स्थिरता के महत्व को रेखांकित करता है। भारत में राज्यों के बीच राजकोषीय स्थिति में तनाव के संकेत हैं। इस तरह की रिपोर्टों के दृष्टिगत मैंने लोकसभा में राज्यों के बढ़ते हुए ऋणों पर अंकुश लगाने के बारे में वित्त मंत्रालय से पूछा था। इस प्रश्न के उत्तर में वित्त मंत्रालय ने बताया था कि वित्त प्रबंधन की सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। सभी राज्यों ने अपने-अपने राजकोषीय उत्तरदायित्व तथा बज़ट प्रबंधन बना लिए हैं। राज्य एफआरबीएम अधिनियम के अनुपालन की निगरानी संबंधित राज्यों के विधानमंडलों द्वारा की जाती है। वास्तव में व्यय विभाग, वित्त मंत्रालय सामान्य तौर पर भारत के संविधान के अनुच्छेद 293 (3) के अंतर्गत राज्यों द्वारा ली जाने वाली उधार धनराशि के अनुमोदन हेतु शक्तियों का प्रयोग करते समय वित्त आयोग की स्वीकृत सिफारिशों द्वारा अधिदेशित राजकोषीय सीमाओं का अनुसरण करता है। प्रत्येक राज्य की सामान्य निबल उधार सीमा (एनबीसी) केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक वित्तीय वर्ष के शुरुआत में निर्धारित कर दी जाती है। पूर्व के वर्षों के दौरान राज्यों द्वारा की गई सीमा से अधिक उधारी यदि कोई हो, तो समायोजन उत्तरवर्ती वर्ष की उधारी सीमा में किए जाते हैं। कहने का अर्थ यह कि वित्त प्रबंधन संविधान के निर्देशानुसार राज्य और केंद्र दोनों करते हैं। जिन राज्यों पर कर्ज का बोझ सबसे ज्यादा है उनमें पंजाब, दिल्ली, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। इन राज्यों की लोकलुभावन घोषणाओं की वजह से इनकी वित्तीय सेहत खराब हो चुकी है।
राज्यों द्वारा ऋण लेने का सिलसिला कांग्रेस सरकारों की देन है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है। भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट 'राज्य वित्त प्रबंधन 2021-22 के बजटों का एक अध्ययन' के अनुसार उपरोक्त वर्णित राज्यों में सबसे अधिक कजऱ् पश्चिम बंगाल का है जो 5626972 करोड़ है। उसके पश्चात राजस्थान (477177.2 करोड़), आंध्र प्रदेश (398903.6 करोड़), केरल (335989.1 करोड़), पंजाब (398903.6 करोड़) आदि राज्य हैं। लगभग सभी राज्य कजऱ् के बोझ तले दबे हुए हैं। हिमाचल प्रदेश का यह ऋण 74686.4 करोड़ है। लगभग ऋण के मामले में सभी राज्यों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। ऋण की इस बढ़ती हुई राशि के कारण राज्यों की विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है जिसका आकलन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से किया जा सकता है जो वास्तव में राज्य की वार्षिक प्रगति का द्योतक है। विभिन्न राज्यों के बजट अनुमानों के मुताबिक वित्त वर्ष 2020-21 में सभी राज्यों का कर्ज का कुल बोझ 15 वर्षों के उच्च स्तर पर पहुंच चुका है। राज्यों का औसत कर्ज उनके जीडीपी के 31.3 फीसदी पर पहुंच गया है। इसी तरह सभी राज्यों का कुल राजस्व घाटा के 17 वर्ष के उच्च स्तर 4.2 फीसदी पर पहुंच गया है। वित्त वर्ष 2021-22 में कर्ज और जीएसडीपी (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) का अनुपात सबसे ज्यादा पंजाब का 53.3 फीसदी रहा है। इसका मतलब यह है कि पंजाब का जितना जीडीपी है उसका करीब 53.3 फीसदी हिस्सा कर्ज है। इसी तरह राजस्थान का अनुपात 39.8 फीसदी, पश्चिम बंगाल का 38.8 फीसदी, केरल का 38.3 फीसदी और आंध्र प्रदेश का कर्ज-जीएसडीपी अनुपात 37.6 फीसदी है।
इन सभी राज्यों को राजस्व घाटे का अनुदान केंद्र सरकार से मिलता है। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे आर्थिक रूप से मजबूत राज्यों पर भी कर्ज का बोझ कम नहीं है। गुजरात का कर्ज-जीएसडीपी अनुपात 23 फीसदी तो महाराष्ट्र का 20 फीसदी है। राज्यों द्वारा ऋण में वृद्धि कई कारणों से होती है। वास्तव में हमारा देश कल्याणकारी राज्य है, जिसके कारण सरकार के कार्य क्षेत्र में वृद्धि होती है जिसकी पूर्ति के लिए सरकार को कजऱ् लेना पड़ता है। सरकारों द्वारा मुफ़्त रेवडिय़ां बांटने और गैर जरूरी खर्चे करने से भी ऋण बढ़ता है। कल्याणकारी राज्य होने से सरकार के कार्यक्षेत्र में वृद्धि होने से उसके व्यय में भारी वृद्धि हुई है। साथ ही सरकारों को युद्ध तथा युद्ध की तैयारी पर भारी व्यय करना पड़ता है, जो अनुत्पादक व्यय होता है। इस व्यय की पूर्ति हेतु सरकार को ऋण लेना पड़ता है। पिछले दो-तीन वर्षों से मंदी की रफ़्तार और कोविड के कारण आर्थिक अस्थिरता ने हालत और विकट बना दी है। जिस तरह से यह ऋण बढ़ रहा है, राज्यों को अपनी आय बढ़ाने के साधन तलाश करने होंगे, वरना हम महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी जैसे दानवों का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। सभी राज्यों को अनावश्यक खर्चों पर लगाम लगानी होगी। चुनावी रेवडिय़ां बांटने पर भी रोक लगाना जरूरी है। रक्षा बजट में कटौती करना हमेशा एक चुनौतीपूर्ण विषय रहा है।
किशन कपूर
लोकसभा सांसद
By: divyahimachal
Rani Sahu
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