सम्पादकीय

बढ़ता संकट

Subhi
19 May 2022 5:01 AM GMT
बढ़ता संकट
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प्रदूषण से होने वाली मौतों को लेकर एक बार फिर चौंकाने वाले आंकड़े आए हैं। लैंसेट की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि साल 2019 में दुनिया भर में प्रदूषण से नब्बे लाख मौतें हुई थीं।

Written by जनसत्ता; प्रदूषण से होने वाली मौतों को लेकर एक बार फिर चौंकाने वाले आंकड़े आए हैं। लैंसेट की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि साल 2019 में दुनिया भर में प्रदूषण से नब्बे लाख मौतें हुई थीं। इनमें से पचहत्तर फीसद यानी छियासठ लाख साठ हजार मौतें तो सिर्फ वायु प्रदूषण की वजह से हुर्इं, जबकि तेरह लाख से ज्यादा लोग जल प्रदूषण का शिकार हो गए। यानी दुनिया में हर छठी मौत किसी न किसी प्रदूषण की वजह से हुई।

नब्बे लाख का आंकड़ा यह भी बताता है कि दुनिया भर में हुई कुल मौतों में प्रदूषण से होने वाली मौतों का फीसद सोलह रहा। अगर भारत के संदर्भ में प्रदूषण से होने वाली मौतों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो और देशों के मुकाबले स्थिति कहीं बेहद गंभीर है। साल 2019 में सिर्फ वायु प्रदूषण से भारत में सोलह लाख से ज्यादा लोग मारे गए। गौर करने वाली बात यह भी है कि घरेलू वायु प्रदूषण की तुलना में औद्योगिक वायु प्रदूषण और रासायनिक प्रदूषण ज्यादा कहर बरपा रहा है और ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में हो रहा है।

दरअसल, प्रदूषण पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर समस्या बन चुका है। और यह कोई एक-दो दशक की देन नहीं है, बल्कि इसका असर बीसवीं सदी में ही दिखना शुरू हो गया था। दुनिया में औद्योगिक विकास का पहिया जिस तेजी से चला, उसने विकास के साथ प्रदूषण भी फैलाया। दुनिया भर में कारखाने, फैक्ट्रियों से लेकर छोटे उद्योग तक प्रदूषण का बड़ा कारण बनते गए। इसीलिए आज जमीन से लेकर वायुमंडल तक में जहरीले रसायन और जहरीली गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है।

लैंसेट की रिपोर्ट बता रही है कि 2019 में करीब नौ लाख तो सिर्फ सीसे व दूसरे जहरीले रसायनों के संपर्क में आने से मारे गए। अगर कुछेक विकसित देशों को छोड़ दिया जाए तो आज भी दुनिया के आधे से ज्यादा देशों में उद्योग भारी प्रदूषण फैला रहे हैं और ऐसे उद्योगों में कामगार बेहद खतरनाक हालात में काम कर रहे हैं। वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण कोयले से चलने वाले बिजलीघर बने हुए हैं। गिने-चुने ही देश हैं जो कोयले से चलने वाले बिजलीघरों से मुक्त हो पाए हैं, वरना आज भी ज्यादातर देशों में बिजलीघर कोयले पर ही निर्भर हैं। वाहनों से निकलने वाले धुएं और घरेलू इस्तेमाल के लिए र्इंधन के पारंपरिक साधन भी वायु प्रदूषण का बड़ा कारण हैं। विकासशील और गरीब देशों में यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है।

ऐसा भी नहीं कि प्रदूषण को लेकर दुनिया गंभीर नहीं है। पिछले तीन दशक से भी ज्यादा समय से धरती बचाने के लिए विकसित देशों की अगुआई में मुहिम चल रही है। पर्यावरण को लेकर हर साल शिखर सम्मेलन और बैठकें हो रही हैं। तोक्यो समझौता, पेरिस समझौता, ग्लासगो करार जैसे संकल्प भी सामने आते रहे हैं। लेकिन विडंबना यह है कि प्रदूषण कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है और प्रदूषण कम करने की दिशा में जिन्हें सबसे ज्यादा योगदान करना है, वे पीछे हट जा रहे हैं।

गरीब और विकासशील देशों की अपनी सीमाएं हैं। प्रदूषण रोकने के उपायों के साथ इन्हें अपने आर्थिक संसाधनों को भी देखना है। हालांकि भारत ने वायु और जल प्रदूषण से निपटने की दिशा में पिछले कुछ सालों में सक्रियता दिखाई है। पर दशकों से हम जिस व्यवस्था में ढल चुके हैं, उसमें प्रदूषण से मुकाबला अब आसान नहीं है। इसलिए यह बड़ी चुनौती बनता जा रहा है।


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