सम्पादकीय

उद्यमों की बढ़ती चुनौतियां

Subhi
13 July 2022 5:39 AM GMT
उद्यमों की बढ़ती चुनौतियां
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विदेशी निवेश के बल पर रातों-रात यूनिकार्न बन गई ज्यादातर कंपनियों के पास कोई ठोस कारोबारी खाका नहीं है। उनके पास मंदी से निपटने के अनुभव की भी कमी है।

संजय वर्मा: विदेशी निवेश के बल पर रातों-रात यूनिकार्न बन गई ज्यादातर कंपनियों के पास कोई ठोस कारोबारी खाका नहीं है। उनके पास मंदी से निपटने के अनुभव की भी कमी है। आगे बढ़ने के लिए पैसा झोंकने के सिवा कोई तरीका नहीं है। प्रबंधन के स्तर पर भी सिवा बाहरी चमक-दमक दिखाने के कोई और नीति नहीं है। लिहाजा ऐसे स्टार्टअप जल्द ही अप्रासंगिक होने लगे हैं।

भारत जैसे आबादीबहुल मुल्क के लिए रोजगार बड़ा मुद्दा है। रोजगार सरकार दे, निजी क्षेत्र दे या नौजवान खुद के बलबूते कोई उद्यम खड़ा करें, निर्माण इकाई लगाएं या आनलाइन कारोबार खड़ा करें- हर साल करोड़ों की संख्या में सामने आते बेरोजगारों की फौज के मद्देनजर इनमें से हर उपाय कारगर हो सकता है। हालांकि नौकरी देने की सरकारों की अपनी सीमा है।

सरकार में बैठे राजनीतिक दल भी अपने चुनावी वादों के अनुरूप रोजगार नहीं दे पा रहे हैं। अग्निपथ जैसी योजनाएं भी सामने आ रही हैं, जिनमें रोजगार की अल्पकालिक व्यवस्था किसी भी तर्क से गले नहीं उतर रही है। निजी क्षेत्र में नौकरी की जो गुंजाइशें हैं, उसके बल पर बीते कुछ दशकों में निजी क्षेत्र इस मामले में सरकारों को राहत देने की भूमिका में रहा है।

लेकिन वहां भी अस्थायित्व आदि कई कारणों से नौकरी के विकल्प सीमित ही रहे हैं। इधर एक नई परिघटना पिछले कुछ वर्षों में नवाचारी (स्टार्टअप) कंपनियों के रूप में घटित हुई है। इसमें मुख्य जोर इस पर रहा है कि नौकरी पाने की बजाय युवा नौकरी देने की भूमिका में आएं। यानी वे कोई ऐसी कंपनी बनाएं, जिसमें वे न सिर्फ अपने लिए रोजगार और धन-संपदा पैदा करें, बल्कि देश के हजारों नौजवानों को खुद से जोड़ कर उनका भविष्य भी उजला बनाएं।

इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में नवाचारी उद्यमों की श्रेणी ने आने वाली कंपनियों में से बहुतों ने एक नई उम्मीद पैदा की है। लेकिन इधर स्टार्टअप नामक सनसनी का झाग उतरता दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि जिस हंगामे और जोश के साथ इन उद्यमों को शुरू किया गया, हकीकत की जमीन पर उतरते ही उनका मुल्लमा उतरने लगा। इनकी कारोबारी वास्तविकताएं कितनी कठोर हैं, इसकी मिसाल यह आंकड़ा दे रहा है कि मौजूदा वर्ष के शुरुआती छह महीनों में ही देसी नवाचारी कंपनियों से बारह हजार लोगों की छंटनी कर दी गई। यह छंटनी भी यूनिकार्न कहलाने वाली उन उद्यमों में हुई है, जिनका कारोबार आने वाले वक्त में बढ़ने की उम्मीद है।

जैसे आनलाइन कोचिंग कारोबार करने वाली बायजूज, वेदांतु, अनएकैडमी, लिडो लर्निंग आदि। कहने को तो मौजूदा वर्ष की पहली छमाही में ऐसी कंपनियों में नौकरी गंवाने वालों की वैश्विक संख्या बाईस हजार है, लेकिन चिंताजनक यह है कि इनमें से साठ फीसदी से ज्यादा युवा भारत के हैं। माना जा रहा है कि साल के अंत तक ये कंपनियां इतने ही और युवाओं को अपने यहां से जाने को कह सकती हैं। कारोबार में मंदी और लागत घटाना इनकी प्राथमिकता बन गई है। ऐसा न किया गया तो कई नवाचारी कंपनियों का वजूद खतरे में पड़ सकता है। एक बड़ी वजह यह भी मानी जा रही है कि नई कंपनियों में पैसा लगाने वाले निवेशकों कोई लाभ होते नहीं देख पूंजी वापसी का दबाव बना रहे हैं। नए निवेशक आ नहीं रहे। ऐसे में ये कंपनियां धन की कमी का सामना कर रही हैं।

यहां उल्लेखनीय तथ्य है कि भारत सरकार ने इस साल के शुरू में जोरशोर से दावा किया था कि देश में साठ हजार से ज्यादा नए छोटे उद्यम शुरू हो चुके हैं। यह भी कहा गया था कि भारत में हर दो-तीन हफ्ते में नए यूनिकार्न सामने आ रहे हैं। यूनिकार्न का आशय उन कंपनियों से है जिनका बाजार भाव एक अरब डालर (करीब अस्सी अरब रुपए) से ज्यादा हो। लेकिन इस दावे के फौरन बाद अप्रैल महीना ही ऐसा रहा, जब एक भी यूनिकार्न कंपनी सामने नहीं आई। यही नहीं, इस साल मार्च-अप्रैल में भारतीय स्टार्टअप कंपनियां वैश्विक बाजार से 5.8 अरब डालर (लगभग साढ़े चार-पांच खरब रुपए) का निवेश जुटा सकीं, जो पिछले साल की इसी अवधि से करीब पंद्रह फीसद कम रहा। यह सही है कि 10 जनवरी, 2022 तक भारत में इकसठ हजार चार सौ से अधिक नवाचारी कंपनियों को मान्यता दी जा चुकी थी (भारत के उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक)।

तुलनात्मक रूप से देखें तो वर्ष 2016-17 के दौरान सरकार ने सिर्फ सात सौ तैंतीस उद्यम मंजूर किए थे, जबकि वर्ष 2021 में चौदह हजार नवाचारी कंपनियों को मान्यता दी गई। इस अवधि में यूनिकार्न कहलाने वाले उद्यम भी बढ़े। वर्ष 2021 में चवालीस कंपनियां यूनिकार्न की श्रेणी में आई थीं, जिनकी संख्या इस साल के आरंभ में तिरासी हो गई थी। संस्था पीडब्ल्यूसी इंडिया की एक रिपोर्ट नें इस तब्दीलियों के मद्देनजर यह दावा तक कर दिया गया था कि भारत में करीब पचास कंपनियां तो 2022 में ही यूनिकार्न बन सकती हैं।

इसके पीछे तर्क दिया गया था कि भारत सरकार समेत कई बड़े उद्योगपतियों ने इनमें बड़ी पूंजी का निवेश शुरू कर दिया है। जैसे, वर्ष 2021 में रिलायंस ने स्टाट्र्अप कंपनियों में सात हजार करोड़ रुपए का निवेश किया। टाटा और वेदांता समूह ने भी कई नए उद्यमों में पैसा लगाया। दावा है कि सरकार और देसी-विदेशी निवेशकों के बल पर भारतीय नवाचारी कंपनियों ने वर्ष 2021 में छत्तीस अरब डालर जुटाए। लेकिन सवाल है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि इन उद्यमों की चमक बुझने लगी और ये सारे आंकड़े पलटने लगे?

दरअसल नए उद्यमों को बड़ा झटका कोरोना महामारी से बने हालात से लगा। उस दौरान सत्तर फीसदी उद्यम गर्त में जा पहुंचे और बारह फीसदी तो एकदम शुरू में ही बंद हो गए थे। साल 2020 में आर्थिक संगठन इंडस्ट्री चैंबर फिक्की और इंडियन एंजेल नेटवर्क (आईएएन) ने अपने राष्ट्रव्यापी सर्वे 'भारतीय स्टार्टअप पर कोविड-19 का असर' में मिले आंकड़ों का आकलन किया तो पता चला कि देश के करीब सत्तर फीसदी उद्यमों की हालत खराब थी। सर्वेक्षण से यह भी साफ हुआ था कि सिर्फ बाईस फीसद उद्यम ऐसे थे, जिनके पास अगले छह महीने का खर्च चलाने के लिए नकदी बची थी। हालांकि वजूद बनाए रखने के मकसद से तैंतालीस फीसद ने वेतन कटौती और तीस फीसद ने कर्मचारियों की छंटनी की बात कही थी। जाहिर है कि इनके लिए ये चुनौतियां ऐसी रहीं, जिनसे पार पाना उनके वश में नहीं था।

दरअसल नवाचारी कंपनियों को लेकर निवेशकों का रवैया है कि अब वे इन पर कोई बड़ा दांव नहीं खेलना चाहते। इसकी वजह यह है कि शुरुआती होड़ में दुनिया के बड़े निवेशकों ने विज्ञापन के बल पर मशहूर होने वाली नई कंपनियों में अरबों रुपए झोंक दिए थे। जैसे पिछले साल भारतीय स्टार्टअप कंपनी मीशो में साफ्टबैंक और फिडेलिटी जैसे बड़े निवेशकों ने करोड़ों का निवेश कर दिया। इससे कंपनी की बाजार कीमत दोगुनी से ज्यादा बढ़ कर पांच अरब डालर पहुंच गई थी। दावा है कि इसी लहर में कई कंपनियों ने पिछले साल पैंतीस अरब डालर निवेश के रूप में हासिल कर लिए थे। लेकिन सफलता की यह लहर जिस तेजी से आई थी, उसी तेजी से लौट गई।

विशेषज्ञों का दावा है कि विदेशी निवेश के बल पर रातों-रात यूनिकार्न बन गई ज्यादातर कंपनियों के पास कोई ठोस कारोबारी खाका नहीं है। उनके पास मंदी से निपटने के अनुभव की भी कमी है। आगे बढ़ने के लिए पैसा झोंकने के सिवा कोई तरीका नहीं है। प्रबंधन के स्तर पर भी सिवा बाहरी चमक-दमक दिखाने के कोई और नीति नहीं है। लिहाजा ऐसे स्टार्टअप जल्द ही अप्रासंगिक होने लगे हैं। अगर स्टार्टअप कंपनियां ज्यादा विज्ञापनबाजी करने और बड़े निवेशकों को झांसे में रखते हुए कंपनी बेच देने की रणनीति अपनाने की बजाय अनुभव, कारोबारी माडल और प्रबंधन की खामियों पर ध्यान देंगी, तो वे अपने समेत देश और बेरोजगारी की समस्या का भी कोई समाधान दे सकेंगी।


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