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आदित्य चोपड़ा। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने स्पष्ट कर दिया है किलोकतन्त्र संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर टिका हुआ वह तन्त्र है जिसमें आम नागरिकों की निष्ठा निवास करती है। यह निष्ठा निःसन्देह इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली से सम्बद्ध होती है जिससे जन विश्वास और मजबूत होता है। अतः न्यायालयों में जो भी कार्यवाही होती है और इस क्रम में न्यायाधीश जो भी टिप्पणियां या आंकलन करते हैं उनका जनहित में महत्व इस प्रकार होता है कि लोगों को यह पता चलता रहे कि न्याय की प्रक्रिया में वस्तुगत परिस्थितियां किस मोड़ पर हैं या किस तरफ जा रही हैं। अतः उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा किसी भी मामले में की जा रही सुनवाई के दौरान की गई मौखिक टिप्पणियों को मीडिया द्वारा प्रकाशित करना सर्वथा उचित है और इसे केवल आलोचना के नजरिये से देखना अनुचित है।
देश की सबसे बड़ी अदालत में चुनाव आयोग द्वारा उस याचिका पर सुनवाई चल रही थी जो उसने मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा चुनाव आयोग पर हत्या का मुकदमा चलाये जाने की टिप्पणियों के खिलाफ दायर की थी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों सर्वश्री डी.वाई. चन्द्रचूड व एम.आर. शाह की पीठ ने साफ किया कि देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों की लोकतान्त्रिक पद्धति में अपनी विशिष्ट भूमिका है और उनके स्वतन्त्र निर्णयों को किसी विशेष नजरिये से बांध कर देखना उचित नहीं है। उनके खिलाफ कोई निर्देश देकर सर्वोच्च न्यायालय उनका मनोबल तोड़ना नहीं चाहता है।
इसके साथ ही विद्वान न्यायाधीशों ने यह भी स्पष्ट किया कि टिप्पणियों या आंकलन को निर्णय समझना भी भूल है क्योंकि न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा मौखिक रूप से व्यक्त किये गये विचारों का अर्थ केवल वह मनःस्थिति ही निकाला जा सकता है जिससे न्यायाधीश गुजर रहे होते हैं। न्यायालय में यह एेसा संवाद होता है जिससे लोगों का विश्वास किसी भी संस्था में जमने में मदद मिलती है। इस मामले को अगर हम व्यापक संदर्भों में भारत की न्यायप्रणाली के परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में जरा भी देर नहीं लगेगी कि न्यायपालिका लोकतन्त्र की शुचिता और पवित्रता के साथ ही संविधान के शासन की सबसे बड़ी सिपहसालार रही है।