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Bhagwan Swaroop Katiyar
'अगर सच बोल करके हम गलत हैं।/नहीं जो बोलते क्या कम गलत हैं।
तुम्हारे सही को क्यूँ सही माने / बताएं तो हम कहाँ पर गलत।
भरेंगे जख्म कैसे सरहदों के / दवाएं गलत हैं मरहम गलत हैं।'
ये चंद शेर हैं जाने माने शायर, गजलकार धर्मेन्द्र कटियार के। अभी 4 दिसंबर को चुपचाप वे इस दुनिया को छोड़कर चले गए। वे लखनऊ के गोमती नगर में रहते थे।उनका जन्म 5 जुलाई 1950 को उन्नाव जिले के गांव नसीरपुर के किसान परिवार में हुआ था। पंतनगर विश्वविद्यालय से कृषि में ऑनर्स के साथ उन्होंने स्नातक और परास्नातक किया। उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि विभाग के एक उपक्रम में महाप्रबंधक के पद पर नौकरी की। उनकी रचनाएं देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई, आकाशवाणी से प्रसारित हुई।
धर्मेंद्र कटियार गजलों के लिए जाने जाते थे। गजलों की उनकी तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- 'मुल्का का मौसम', 'चेहरा रोशनी का' तथा 'शहर के वास्ते'। 'चेहरा रोशनी' की भूमिका मशहूर कवि रामकुमार कृषक ने लिखी। वे धर्मेंद्र कटियार की गजलों के संदर्भ में कहते हैं 'इनकी गजलें जिस तरह संवाद करती हैं, उस पर भरोसा किया जा सकता है। वह हमारी पाठकीय संवेदना को मात्र कल्पनाशीलता से नहीं, यथार्थ से गुजरते हुए स्पर्श करते हैं। यहां समकालीन स्थितियां और परिस्थितियां दोनों हमारे सामने उजागर होती हैं और हम उनमें फंसे मनुष्य को उसके तमाम अंतरविरोधों के साथ देख पाते हैं। इस पृष्ठभूमि में उनकी अनेक गजलों में बेहतरीन शेरों की आमद हुई है।'
'शहर के वास्ते' इनका नया गजल संग्रह था जो हाल में छप कर आया तथा इसका लोकार्पण समारोह उन्नाव के बांगरमऊ में संपन्न हुआ था। इसमें हिंदी के जाने माने आलोचक वाचस्पति (बनारस) शामिल हुए थे। उनकी गजलों को लेकर उनके निवास पर जन संस्कृति मंच की ओर से भी एक गोष्ठी हुई थी । उन्होंने अपनी गजलें सुनाई। इसमें कौशल किशोर, कलीम खान, फरजाना मेहंदी आदि शामिल थे। उनके जाने से हिंदी ग़ज़ल की एक समकालीन आवाज गुम हो गई है।
धर्मेंद्र कटियार जी की ग़ज़लों की धारदार पक्तियां इस बात का सबूत है कि वह कितने सजग, सचेत और अपने समय की समझ के तमीजदार शायर रहे हैं। उनका संग्रह 'शहर के वास्ते ' आकृति प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की ग़ज़लें मौजू हैं और दिलो दिमाग को मथने वाली हैं। धर्मेन्द्र जी अदम गोंडवी साहब के खास दोस्तों रहे हैं और उनके साथ मंच साझा किया है। इस संग्रह की उनकी यह पक्तियां मौजूदा निजाम की करतूतों की तस्वीर पेश करती हैं - 'हाथ में बंदूक पैसा जेब में /कायदा कानून जेबी हो गया है/ चढ़ रहा सर है वही धार्मिक जुनून /वक्त फिर औरंगजेबी हो गया है।'
धर्मेन्द्र जी अपने समय और समाज की नब्ज और उसकी धड़कनों को किस तरह टटोलते और समझते हैं उसका खूबसूरत नमूना इसी संग्रह की यह पंक्तियां हैं - 'खंडहर हो गई है इमारत पुरानी/ कहाँ तक छुड़ायेंगे जाला बदलिए /यक़ीनन है उनपे कोई मास्टर की/ मुनासिब है गुजराती ताला बदलिए '। धर्मेन्द्र जी अपनी गजलों में जालिम निजाम पर किस तरह हमलावर होते हैं, उसका एक खूबसूरत नमूना यह पंक्तियां पेश करती हैं - 'बातें पहले कीजिए दो जून के आहार की/शौक से फिर कीजिए, बुलट के रफ़्तार की'। धर्मेंद्र जी किसान परिवार से हैं और कृषि परास्नातक भी। आप बीज निगम के जीएम भी रहे हैं। इसलिए वह किसानी जीवन के मर्मज्ञ और विशेषज्ञ भी हैं। किसान के दर्द का इजहार वह अपनी गजलों में कैसे करते हैं, इस पर गौर फरमाएं, 'मर गया कोने में पड़ा बूढ़ा /रो रहे हैं सब सगे मिट्टी रखें /ले रहा नींद शहर ए सी में/ गाँव की काट कर बिजली रखें।' उसी का एक और नमूना, 'पब्लिक कबूतर / कुर्सी गुलेल है। खुद के है पहरे में/ जीस्त खुली जेल है/दगी बोफोर्स नहीं / उड़ रहा राफेल है।' धारदार शायरी की जरूरत को रेखांकित करते हुए वह अपनी गजल में लिखते हैं, 'है निहायत ही जरूरी शायरी जिन्दा रहे/ गर्मी-ए-अल्फाज से ही आदमी जिन्दा रहे। हम वकालत सिर्फ गंगा की नहीं हैं कर रहे / दोस्त हिंदुस्तान की हर इक नदी जिन्दा रहे।' उनकी गजलों में किसान के दर्द का बार-बार इजहार होता है, 'खेल खेती के साथ खेले गए/ किसान रोटियों से बेले गए/ देख कर बिकाऊ नेता अफसर / फिर न मजलूम कभी मेले गये।' धर्मेन्द्र जी मौजूदा निजाम के आकाओं की तस्वीर पेश करते हुए अपनी गजलों में लिखते है, 'शख्स वो नब्ज देख लेता है / यूँ सही जुमले फेंक लेता है/झोक इंधन सा आपको हमको/ रोटियां अपनी सेंक लेता है।'
इस तरह हम देखते हैं धर्मेन्द्र कटियार हमारे समय के अजीम शायर हैं जो अपनी शायरी से अपने समय और समाज की असल तस्वीर पेश करते हैं, जिसमें सम्वेदना और इंसानियत झांकती दिखती है। वह इंसानी उसूलों के तलबगार और तरफदार हैं। उम्मीद है शहर के वास्ते धर्मेन्द्र जी नया गजल संग्रह पाठको का ध्यान आकर्षित करेगा।
धर्मेंद्र कटियार की ग़ज़लें
* एक
अगर सच बोल करके हम ग़लत हैं
नहीं जो बोलते क्या कम ग़लत हैं
तुम्हारे सही को क्यूँ सही माने
बताएँ तो कहाँ पर हम ग़लत हैं
इबादत गाह मयख़ाने न होते
नशे से अगर होते ग़म ग़लत हैं
शहर के वास्ते ग़र कह रहे हैं
ग़ज़ल में बहुत पेंचों-ख़म ग़लत हैं
भरेंगे ज़ख्म कैसे सरहदों के
दवाएँ ग़लत है, मरहम ग़लत हैं
सिमटता काफिला यूँ जा रहा है
उठाए हाथ में परचम ग़लत है
* दो
हवा कह रही है कि पाला बदलिए
बिना छत की है पाठशाला बदलिए
खण्डर हो गई है इमारत पुरानी
कहाँ तक छुड़ाएँगे जाला बदलिए
यकीनन है उनपे कोई मास्टर-की
मुनासिब है गुजराती ताला बदलिए
गए छोड़ गोरे जिसे कोट-सा है
कम से कम वो कानून काला बदलिए
रही झुक है सरकार ज्यादा ही दाएँ
मियाँ कुछ सियासी मसाला बदलिए
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Gulabi Jagat
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