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नवभारत टाइम्स; समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के साथ राजनीति के एक सामाजिक उथलपुथल से भरे दौर का समापन हुआ है। 'नेताजी' की अहमियत सिर्फ इस मायने में नहीं है कि वह देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे या देश के रक्षा मंत्री के पद तक पहुंचे। उनका होना मायने इसलिए रखता है कि वह उत्तर प्रदेश और वहां के अपने जनाधार के जरिए देश की राजनीति को एक पूरे दौर में खास दिशा देते रहे। सत्तर के दशक के बाद कांग्रेस की सवर्ण राजनीति से अलग चौधरी चरण सिंह के मार्गदर्शन में मुलायम सिंह ने पिछड़ों की राजनीति शुरू की और न केवल अपना राजनीतिक कद बढ़ाया बल्कि राजनीति में पिछड़े तबकों के स्वर को भी मजबूती दी। अस्सी और नब्बे के दशक में जब बीजेपी की ताकत बढ़ती जा रही थी, मुलायम सिंह उन चंद नेताओं में शामिल रहे जो पिछड़े तबकों में ठोस समर्थन और राजनीतिक कौशल की बदौलत धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक सिरा मजबूती से थामे रहे। हालांकि मंदिर आंदोलन के शुरुआती दौर में अयोध्या में कारसेवकों की मौत की तोहमत भी उनके सिर लगी और इस वजह से उन्हें राज्य में सत्ता भी गंवानी पड़ी, लेकिन इसे संविधान और कानून के शासन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से जोड़ते हुए उन्होंने पिछड़ों और मुस्लिमों के तालमेल से फिर सत्ता में वापसी की।
इस बीच कांशीराम और मायावती के साथ तालमेल जैसे प्रयोग भी उन्होंने किए और बीजेपी से अंदरूनी तौर पर मिलीभगत के आरोप भी झेले, लेकिन राजनीतिक दांव-पेच के खेल में जीत-हार के बावजूद कभी खेल से बाहर नहीं किए जा सके। वह अपनी चाल से दुश्मनों को ही नहीं, दोस्तों और सहयोगियों को भी हैरत में डालने की क्षमता रखते थे। 1999 में वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद उन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल पर कांग्रेस की सरकार नहीं बनने दी, लेकिन 2008 में जब वाम दलों के समर्थन वापस लेने पर कांग्रेस की सरकार संकट में आई तो समर्थन देकर उसे बचा लिया। इसके साथ राजनीतिक विरोधियों के बीच भी वह लोकप्रिय बने रहे। उनके निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इमरजेंसी के दौर में उन्हें लोकतंत्र के प्रमुख सैनिक के रूप में याद किया। बहरहाल, इस लंबी राजनीतिक पारी के दौरान उन पर कुछ सवाल भी उठे। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान महिलाओं पर अत्याचार और गेस्ट हाउस कांड में मायावती की हत्या की कोशिश जैसे आरोप तो उनके साथ लगे ही रह गए। बदलती सामाजिक चेतना के मुताबिक वह अपना रुख भी नहीं बदल सके। जहां महिला आरक्षण को रोकने वाली उनकी भूमिका आखिर तक बनी रही, वहीं रेप आरोपों को हलके में लेकर लड़कों का बचाव करने का आरोप भी झुठलाया नहीं जा सका। साफ है कि जिस दौर की सामाजिक चेतना की उपज वह थे, वही उनकी ताकत भी रही और वही कमजोरी भी।