सम्पादकीय

अफगानी अवाम की बड़ी शिकस्त

Rani Sahu
16 Aug 2021 6:31 PM GMT
अफगानी अवाम की बड़ी शिकस्त
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अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बलपूर्वक सत्ता परिवर्तन विश्व समुदाय के लिए शुभ नहीं है। तालिबान ने अब तक न अपनी विचारधारा बदलने का संकेत दिया है

अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बलपूर्वक सत्ता परिवर्तन विश्व समुदाय के लिए शुभ नहीं है। तालिबान ने अब तक न अपनी विचारधारा बदलने का संकेत दिया है, और न अफगानिस्तान के संविधान को स्वीकार किया है। अल-कायदा जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ भी उसने कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है। उसमें अगर अंदरूनी तौर पर थोड़ा-बहुत परिवर्तन हुआ भी हो, तो वह अब तक जाहिर नहीं हुआ है। इसका अर्थ है कि न तो उसकी कार्यशैली बदली है और न ही वैचारिक रूप से वह बदला है। कट्टरता अब भी उसकी सोच का मूल है।

ताजा घटनाक्रम को हमें पाकिस्तान से जोड़कर भी देखना होगा। तालिबान का इतनी तेजी से बढ़ना संभव नहीं होता, यदि उसको इस्लामाबाद से सामरिक मदद नहीं मिलती। अमेरिका के ज्वॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के पूर्व प्रमुख एडमिरल माइक मुलेन ने काफी पहले कहा था कि हक्कानी नेटवर्क एक तरह से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का ही अंग है। यही वह संगठन है, जो अफगानिस्तान में भारतीय हितों पर चोट करता रहता है और तालिबान इसी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
जाहिर है, तालिबान के पांव जमा लेने से हिन्दुस्तान पर खतरा बढ़ गया है। पिछली सदी के 90 के दशक में अफगानिस्तान में जब युद्ध का अंत हुआ था, उसके बाद से ही कश्मीर में दहशतगर्दी शुरू हुई थी। पाकिस्तान अपने मुजाहिदीन को अफगानिस्तान से कश्मीर ले आया था। यह आशंका फिर से सिर उठाने लगी है। वैसे, तालिबान से सबसे अधिक खतरा खुद पाकिस्तान को है। इस घटनाक्रम से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को बल मिलेगा, जिससे पाकिस्तान के तालिबानीकरण का अंदेशा है। अफगानिस्तान छोटा सा मुल्क है, मगर पाकिस्तान परमाणु हथियारों से लैस। ऐसे में, यदि पाकिस्तान में तालिबान का प्रभाव बढ़ा, तो दुनिया के तमाम अमनपसंद राष्ट्र मुश्किल में आ सकते हैं। पिछले दशक में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की संलिप्तता देखी गई है। उसके निशाने पर न सिर्फ आम नागरिक रहे हैं, बल्कि उसने पाकिस्तानी फौज के अति-सुरक्षित ठिकानों पर भी हमले किए हैं। मई, 2011 में मेहरान नेवल बेस और अगस्त, 2012 में कामरा एयर बेस पर हमला इसका बड़ा उदाहरण है। पाकिस्तान भले दुनिया को यह कहकर भ्रम में रखना चाहता हो कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और अफगान तालिबान में कोई संबंध नहीं है और अफगान तालिबान 'अच्छे' हैं, लेकिन असलियत में इन दोनों गुटों में कोई मतभेद नहीं है।
अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण के दुष्परिणाम पूरे मध्य एशिया में दिख सकते हैं। तुर्किस्तान के ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम), उज्बेकिस्तान के इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान (आईएमयू), ताजिकिस्तान में ताजिक तालिबान कहे जाने वाले जमात अंसारुल्लाह जैसे तमाम आतंकी गुटों के साथ तालिबान के रिश्ते जगजाहिर हैं। पड़ोसी देशों में काम कर रहे ये संगठन अब और मुखर हो सकते हैं।
मगर पूरे घटनाक्रम का सबसे ज्यादा असर अमेरिका की बाइडन सरकार की विदेशी नीति की विश्वसनीयता पर पड़ा है। अपना मुंह छिपाने के लिए वह लाख बहाने बनाए, लेकिन सच यही है कि अफगानिस्तान में अमेरिका को करारी हार मिली है। 11 सितंबर, 2001 को 'ट्विन टावर' पर हमले के बाद से अफगानिस्तान में अमेरिका ने सैन्य दखल शुरू किया था। यहीं से अफगानिस्तान में एक सांविधानिक और लोकतांत्रिक परंपरा की शुरुआत हुई। इस प्रक्रिया को दोहा समझौता से झटका मिला, जब अमेरिका ने तालिबान से समझौता सिर्फ इसलिए किया कि अमेरिकी फौजें सुरक्षित बाहर निकल जाएं और तालिबान आतंकवादियों को पनाह नहीं दे। इस कवायद में अफगानिस्तान के भविष्य को अधर में छोड़ दिया गया।
साफ है, अफगानिस्तान, उसकी जनता और उसके सभ्य समाज को सबसे बड़ी हार मिली है। उन्होंने बड़े ही मुश्किल व चुनौतीपूर्ण समय में लोकतंत्र का समर्थन किया था और मानवाधिकारों को बहाल करने की तरफ बढ़े थे। सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अब क्या करना चाहिए? चूंकि खून-खराबा इस मसले का समाधान नहीं है, इसलिए बातचीत की मेज से ही रास्ता निकालने का प्रयास किया जाना चाहिए। विश्व समुदाय को देखना होगा कि अंतरराष्ट्रीय कायदे-कानूनों के प्रति जो प्रतिबद्धता तालिबान ने जताई है, क्या वह उस पर खरा उतर रहा है? तालिबान को यह भी साफ करना होगा कि वह किसी बाहरी ताकत के प्रभाव में आकर काम नहीं कर रहा। यह संयुक्त राष्ट्र अथवा अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सदस्यता हासिल करने की एक अनिवार्य शर्त है। यह मुद्दा जल्द उठेगा, क्योंकि सितंबर में संयुक्त राष्ट्र आमसभा की बैठक होने वाली है। इसमें तालिबान यह उम्मीद नहीं पाल सकता कि उसे स्वत: अफगानिस्तान की सीट हासिल हो जाएगी।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा है कि तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिलनी चाहिए। वहां जो भी 'अंतरिम सरकार' बनेगी, उस पर तालिबान हावी रहेगा। अब्दुल्ला अब्दुल्ला सत्ता हस्तांतरण की शर्तों पर समझौते को अंतिम रूप देने के लिए दोहा जा रहे हैं। यह और कुछ नहीं, उस बदलाव को वैधता देना होगा, जो पहले ही बलपूर्वक किया जा चुका है।
तालिबान के कब्जे वाले क्षेत्र से भाग रहे आम अफगान नागरिकों की तस्वीरें तालिबान के 'असल चरित्र' का प्रतीक हैं। यदि तालिबान लोगों की मुश्किलों को दूर करने वाली ताकत होती, तो जनता उसका स्वागत करती। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा इस घटना की निंदा ही काफी नहीं है। उसे यह मांग भी करनी चाहिए कि अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की देख-रेख में चुनाव कराए जाएं। तालिबान को आखिरकार यह साबित करना ही होगा कि उसे आम लोगों का समर्थन हासिल है। रही बात भारत की, तो तालिबान के रवैये को देखकर नई दिल्ली रुख तय करे। देखना होगा कि तालिबान अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक किस जिम्मेदारी से शासन कर रहा है। हमें फिलहाल किसी ऐसे शासन से रिश्ता बनाने के लिए कोई आपाधापी नहीं करनी चाहिए, जिसके भविष्य के व्यवहार पर सवाल हो।


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