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बीजेपी (BJP) हर सामाजिक मुद्दे को चुनाव से जोड़ कर देखने की गलती कर रही है
कार्तिकेय शर्मा बीजेपी (BJP) हर सामाजिक मुद्दे को चुनाव से जोड़ कर देखने की गलती कर रही है. चाहे वो किसान आंदोलन (Farmers Protest) हो या छात्रों का धरना प्रदर्शन उसको या तो राष्ट्रवाद के चश्मे से देखा जाता है, नहीं तो उसे चुनावी टाईमटेबल से जोड़ दिया जाता है. लखीमपुर (Lakhimpur) में जो हुआ वो गलत था. एक गाड़ी किसानों को रौंद कर चली गयी, लेकिन चर्चा इस बात पर हुई कि इसका विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की सरकार पर कोई असर तो नहीं होगा. खामोश तो सत्ताधारी दल के नेता हैं पर आरोप विपक्ष के नेताओं पर लग रहे हैं कि वो उत्तर प्रदेश राजनीति करने पहुंचे हैं. वैसे ये अलग बहस है कि लोकतंत्र में नेता घटनास्थल पर पहले नहीं जाएंगे तो कौन जायेगा. लेकिन आज बात लखीमपुर तक सीमित रखेंगे.
किसान आन्दोलन साल भर से भी ज़्यादा पुराना है लेकिन नेताओं के एक तबके को वहां खालिस्तानी आतंकवाद दिखता है. किसान आंदोलन बिना किसी राजनैतिक मदद से चल रहा है, लेकिन उसे राजनैतिक कह कर छोटा करने की कोशिश की जाती है. अगर कोई हिंसा या कानून से जुड़ी समस्या सामने आती है तो ये कह दिया जाता है कि चुनाव के वक़्त मामला हिन्दू मुसलमान हो जाएगा और विपक्ष के नेता चीखते चिल्लाते घर चले जाएंगे.
बीजेपी की सरकार और संगठन मजबूत है
केंद्र सरकार आज बहुत मज़बूत है. केंद्र में विपक्ष एक दूसरे के खिलाफ है और बिखरा हुआ है. ना संयुक्त सोच है ना ही विचारधारा का मेल. अधिकतर धर्मनिरपेक्षता के राजनैतिक खोल से जुड़े हुए हैं. वहीं योगी आदित्यनाथ की सरकार मज़बूत विकेट पर है क्योंकि उत्तर प्रदेश में विपक्ष ना केवल बिखरा है बल्कि कमज़ोर भी है. उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां बीजेपी के वोट में खूब इज़ाफ़ा हुआ है और विपक्ष का वोट सिमटा है.
विधानसभा चुनाव करीब आने पर प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव और मायावती जनता में दिखने तो लगे हैं लेकिन इनका पिछले साल का ट्रैक रिकॉर्ड बेहद खराब है. प्रियंका ने कहा था कि वो उत्तर प्रदेश में रहेंगी लेकिन 2019 के चुनावी नतीजों के बाद वो कभी कभार उत्तर प्रदेश पहुंची. जब पहुंची तो वो खुद एक स्टोरी हो गयीं. मायावती लम्बे रेस तक चुप रहीं और उनकी पार्टी से केवल सतीश मिश्रा बोलते दिखे. उधर अखिलेश यादव इतने आश्वस्त दिख रहे हैं कि वो लखनऊ में टी वी चैनलों के मेगा कॉन्क्लेव्स में ज़्यादा और क्षेत्र में कम नज़र आते हैं. जबकि योगी आदित्यनाथ सबसे सक्रिय हैं. कोविड में खराब काम के बाद भी आदित्यनाथ जनता के बीच से गायब नहीं थे.
किसान आंदोलन के मामले में बीजेपी नेता अहंकारी दिख रहे हैं
पर अब बीजेपी नेता किसान आंदोलन के मामले में अहंकारी दिख रहे हैं. उनकी बातचीत में किसानों के प्रति हमदर्दी की कमी महसूस हो रही है. टिकैत से बातचीत, इंटरनेट बंद कर देना, नेताओं की आवाजाही पर रोक लगा देना या फौरी मुआवज़ा सामजिक आंदोलन से जुड़ी हिंसा का राजनैतिक हल नहीं होता है. वैसे भी अगर हर आंदोलन को राजनीति के चश्मे से देखा जाए तो चुनाव जीतने की बाद कोई भी राजनैतिक दल धरना प्रदर्शन वाले चेहरों से बात ही नहीं करेगा. बीजेपी की राजनीति इस सोच की अंतिम छोर तक पहुंच चुकी है. इस सोच के तहत राजनैतिक प्रतिद्वन्दी दुश्मन हैं और उनसे जुड़े समाज के चेहरे बिकाऊ.
ऐसी भावना लोकतंत्र की नीव को कमज़ोर करती है. चाहे वो हाथरस कांड हो या लखीमपुर, सरकार की सफलता का आइना केवल चुनाव का नतीजा नहीं है. बीजेपी के नेताओं की लखीमपुर हिंसा पर ख़ामोशी गलत है. निंदा इसलिए नहीं की जा रही क्योंकि उसके बाद राजनैतिक सुई गृह राज्य मंत्री अमित मिश्र की तरफ घूम जाएगी. हिंसा में राजनैतिक कार्यकर्ता और आम किसान दोनों मारे गए हैं. हिंसा की दो वीडियो क्लिप्स भी हैं. दो तरह के सच के बीच राजनैतिक दंगल भी जम कर हो रहै है लेकिन सरकार के बड़े चेहरों की ख़ामोशी परेशान करने वाली है, क्योंकि इस तरह की राजनीति समाज में तनाव ज़्यादा और सौहार्द काम पैदा करती है. आखिर में मज़बूत सरकार का मतलब अहंकारी सरकार नहीं होता है.
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