सम्पादकीय

कृषि कानूनों पर सरकार पीछे नहीं हटेगी

Gulabi
23 Oct 2020 4:09 PM GMT
कृषि कानूनों पर सरकार पीछे नहीं हटेगी
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कांग्रेस ने जरूर अपने घोषणापत्र में कहा है कि उसकी सरकार बनी तो वह केंद्रीय कृषि कानूनों को बदल देगी।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बिहार में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं और माना जा रहा था कि तीन कृषि कानूनों का मुद्दा बिहार चुनाव उठेगा और चुनाव एक तरह से उन कानूनों पर जनमत संग्रह की तरह होगा। लेकिन अफसोस की बात है कि बिहार में कृषि कानूनों को मुद्दा नहीं बनाया गया है। कांग्रेस ने जरूर अपने घोषणापत्र में कहा है कि उसकी सरकार बनी तो वह केंद्रीय कृषि कानूनों को बदल देगी। परंतु उसके या किसी पार्टी के उम्मीदवार जमीनी स्तर पर किसानों को इसके बारे में नहीं बता रहे हैं। देश एक दर्जन राज्यों में 56 विधानसभा सीटों के उपचुनाव भी हो रहे हैं पर वहां भी कृषि कानूनों का मुद्दा नहीं बना है।

पंजाब और हरियाणा में जरूर कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन चल रहा है पर यह आंदोलन भी मुख्यधारा की मीडिया से बाहर हो गया है। शुरुआत के दो-चार दिन तक तो जोर-शोर से आंदोलन की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में चलीं पर अब मीडिया का नैरेटिव बदल गया है। कांग्रेस पार्टी के शासन वाले राज्य कृषि कानूनों का मुद्दा बना रहे हैं पर उन्हें कामयाबी नहीं मिल पा रही है। पंजाब को छोड़ दें तो अभी तक किसी भी राज्य में जन आंदोलन खड़ा होने की संभावना नहीं दिख रही है। हरियाणा में भी इसका असर कम हो गया है। तभी इस बात की संभावना कम दिख रही है कि केंद्र सरकार इस कानून में किसी तरह के बदलाव पर विचार करेगी या पीछे हटेगी। उसने कानून बना दिया और हर तरह वह इसका बचाव कर रही है।

कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों ने इसका विरोध करने के दो तरीके निकाले हैं। पहला तरीका सुप्रीम कोर्ट में कानून को चुनौती देने का है और दूसरा राज्यों की विधानसभा में इसके खिलाफ प्रस्ताव पास करने और नया कानून बनाने का है। चूंकि कृषि को संविधान में समवर्ती सूची में रखा गया है, जिसका मतलब है कि केंद्र और राज्य दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद 254 में यह प्रावधान किया गया है कि केंद्रीय कानूनों के खिलाफ राज्य की विधानसभा कानून बना सकती है। हालांकि उसमें साथ ही यह प्रावधान जोड़ दिया गया है कि ऐसे कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजना होगा।

संविधान के अनुच्छेद 254 के मुताबिक काम करते हुए पंजाब विधानसभा ने केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों को रद्द कर दिया है और उनकी जगह अपना नया कानून बनाया है। पंजाब सरकार ने अपने कानून में यह प्रावधान किया है कि पूरे राज्य में कहीं भी किसान की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी से कम दाम पर नहीं बेची जाएगी। अगर कोई एमएसपी से कम दाम पर अनाज खरीदता मिलेगा तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी और तीन साल की सजा हो सकती है। समूचा विपक्ष चाहता है कि केंद्र सरकार अपने कानून में भी यह प्रावधान करेगी। केंद्र की मंशा पर इसलिए भी सवाल उठ रहे हैं क्योंकि एक तरफ तो वह बार बार कह रही है कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी और हर साल इसमें बढ़ोतरी भी की जाएगी, लेकिन इसे कानूनी रूप से अनिवार्य करने की मांग पर पीछे हट जा रही है। अगर सचमुच सरकार एमएसपी की व्यवस्था को जारी रखना चाहती है तो उसे इसे अनिवार्य करते हुए यह कानून बनाना चाहिए कि पूरे देश में कहीं भी किसान की फसल की खरीद-फरोख्त एमएसपी से कम दाम पर नहीं होगी।

बहरहाल, पंजाब के बाद राजस्थान सरकार भी विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर केंद्रीय कानून में बदलाव करने वाली है। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी राज्यपाल को विशेष सत्र बुलाने का प्रस्ताव भेजा है। केरल और कुछ अन्य राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के कानून को चुनौती देने का विकल्प चुना है। दिल्ली के एक अधिवक्ता ने भी सुप्रीम कोर्ट में इस सिलसिले में याचिका दायर कर दी है। सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ कानूनों के गुण-दोष का मामला ही नहीं पहुंचेगा, बल्कि राज्यसभा में इन विधेयकों को जिस तरह से पास कराया गया, उसका भी मामला पहुंचेगा।

इसके बावजूद लगता नहीं है कि केंद्र सरकार इन कानूनों में बदलाव करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बनाया है। वे अपनी हर सभा और हर भाषण में इन कानूनों की तरफदारी कर रहे हैं। वे पंजाब और हरियाणा में प्रदर्शन कर रहे किसानों को कांग्रेस पार्टी का कार्यकर्ता बता रहे हैं। पूरी भाजपा किसान आंदोलन की साख खराब करने में लगी है। अगर सरकार की मंशा में इस मामले में जरा सा भी लचीलापन रहता तो वह अपनी सहयोगी अकाली दल को एनडीए से बाहर होने से रोकती। उसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया गया इससे भी जाहिर होता है कि सरकार की मंशा क्या है।

असल में सरकार इस भरोसे में है कि एमएसपी और सरकारी खरीद की सुविधा पांच-छह फीसदी किसानों को ही मिलता है। बाकी किसान पहले से इसके दायरे से बाहर हैं इसलिए वे इस कानून का विरोध नहीं करेंगे। दूसरे, किसानों का आंदोलन बहुत सीमित इलाके में चल रहा है, जिसका राष्ट्रीय स्तर पर कोई असर नहीं है। तीसरे, राज्यों के कानून को राष्ट्रपति के यहां से मंजूरी नहीं मिलेगी, इसलिए उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। चौथे, सुप्रीम कोर्ट में भी सरकार को उम्मीद है कि उसका पलड़ा भारी रहेगा। वैसे भी न्यायपालिका में पिछले कुछ समय से सरकार का पलड़ा लगातार भारी दिख रहा है।

यह भी लग रहा है कि सरकार ने और मीडिया ने तीन कृषि कानूनों में से सिर्फ एक एपीएमसी और एमएसपी वाले कानून पर फोकस किया है। कांट्रैक्ट फार्मिंग और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। यह सही है कि एपीएमसी की व्यवस्था चुनिंदा राज्यों में है, इसलिए ज्यादातर राज्य उसमें बदलाव पर ध्यान नहीं देंगे। लेकिन कांट्रैक्ट फार्मिंग के कानून का असर हर राज्य में होगा और आवश्यक वस्तु कानून में बदलाव का असर सिर्फ किसान नहीं, बल्कि हर नागरिक पर होगा। यह कानून बने एक महीना हुआ है और देश में खाने-पीने के चीजों की कीमत बेतहाशा बढ़ रही है। यह आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन का असर भी हो सकता है। आने वाले दिनों में तो इसका असर बहुत व्यापक होगा ही।

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