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- सरकारी खजाने की सैर
सैर सपाटा जीवन की अनिवार्यता में सबसे नीचेे इसलिए आता है, क्योंकि देश की आधी आबादी का संघर्ष रोटी के इर्द-गिर्द घूमता है, जबकि रोजगार की बढ़ती कतार में भावी पीढ़ी की बुनियाद का गतिरोध जारी है। आम आदमी के जीवन में ख्वाहिशों और सुविधाओं के मेले नहीं लगते और न ही उनके विशेषाधिकार सरकार के खजाने से तय होते हैं, इसलिए देश के संसाधनों का आबंटन अब अति विशिष्ट लोगों के समूहों तक केंद्रित हो रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिमाचल का बजट सत्र जब वित्तीय व्यवस्था की लोरियांे और डोरियांे से बंधा हुआ, सत्ता और विपक्ष के बीच अपने लिए या प्रदेश के भविष्य के लिए उच्च वचन सुन रहा था, तो कहीं धीमे से कुछ कदम सैर-सपाटे के लिए आगे बढ़ जाते हैं। यानी अब विधायकगण अपने वार्षिक सैर-सपाटे में पर चार लाख खर्च कर पाएंगे। विधायक इस राशि को दो दिन के सैर सपाटे में अर्पित करें या वार्षिक कैलेंडर बनाएं, इसको लेकर सरकारी खजाने को कोई एतराज नहीं। वे चाहें तो घूमते-घूमते ऐसे होटल में विश्राम कर सकते हैं, जिसका दैनिक किराया एक लाख हो या इससे ऊपर भी हो तो हिमाचल के वित्तीय संसाधनों को कोई आपत्ति नहीं होगी। जनप्रतिनिधियों की परिपाटी में आम और खास के फर्क की निशानियांे में, अब राज्य को केवल यह गौर करना होगा कि आगे चल कर हम माननीयों के वेतन-भत्तों को किस तरह आगे बढ़ा सकते हैं। यह लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा के बीच एक ऐसा गजब का रिश्ता है जो हमेशा सत्ता और विपक्ष की सहमति को परवान चढ़ाता है।