सम्पादकीय

सरकार, किसान और गांधी जन्तर

Gulabi
7 Dec 2020 4:46 AM GMT
सरकार, किसान और गांधी जन्तर
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कृषि क्षेत्र भारत का गौरव है और किसान इस देश की शान।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कृषि क्षेत्र भारत का गौरव है और किसान इस देश की शान। कोरोना काल में अगर कोई क्षेत्र संकटकाल में सहारा बना तो वह कृषि क्षेत्र ही है लेकिन नए कृषि कानूनों को लेकर किसान और सरकार आमने-सामने है। सरकार मानती है कि इन कानूनों के लागू होने से कृषि क्षेत्र का भाग्य बदल जाएगा लेकिन किसान या तो इन कानूनों को समझ ही नहीं रहे और यह भी हो सकता है कि नए कानूनों के कुछ प्रावधानों पर उन्हें आपत्ति हो। किसानों को कुछ समस्याएं हो सकती हैं। किसान आंदोलन पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं विदेशों से आ रही हैं उसे देखकर भी ऐसा लगता है कि भारत को बदनाम करने की साजिश रची जा रही है। किसान अपने ही देश में आंदोलन कर रहे हैं और यह भारत का आंतरिक मामला है तो इस पर विदेश की धरती से प्रतिक्रियाएं अवांछनीय हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश और सबको अपनी बात रखने का हक है परन्तु हमें इस बात का भी ध्यान रखना है कि कुछ विदेशी ताकतें या गलत तत्व इसका गलत फायदा न उठा लें।


अब 9 दिसम्बर को दोनों पक्षों में बातचीत होगी। इस बात के संकेत हैं कि सरकार नए कानूनों में किसानों के हित में कई प्रावधानों संशोधन के लिए तैयार है। बेहतर यही होगा कि दोनों पक्ष मिल-बैठकर एक सम्मान पूर्वक हल निकाल लें क्योंकि लम्बे आंदोलन देश के लिए हितकर नहीं हैं और कभी-कभी अपनी दिशा से भटक भी जाते हैं। 8 दिसम्बर को किसानों ने भारत बन्द का आह्वान भी किया है, इसे देखते हुए सम्पूर्ण माहौल में 'अहम्' भाव घर करता जा रहा है, भारत चूंकि गांधी बाबा का देश है तो स्वयं बापू ने ही ऐसी स्थिति से निपटने के लिए एक 'जन्तर' स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही दिया था। उन्होंने कहा था, ''तुम्हें एक जन्तर देता हूं, जब भी तुम्हें सन्देह हो या तुम्हारा अहम तुम पर प्रभावी होने लगे तो यह नुस्खा आजमाओः जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम तुम उठा रहे हो या तुमने जो फैसला किया है वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा?

क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा अर्थात क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है तब तुम देखोगे कि तुम्हारा सन्देह मिट रहा है और अहम् समाप्त हो रहा है, वस्तुतः गांधी का यह फार्मूला लोकतन्त्र में सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले सभी लोगों और संगठनों पर लागू होता है जिनमें लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान रखती है। गांधी ग्राम स्वराज्य के पक्षधर थे जिसमें किसानों या कृषि व ग्रामीण क्षेत्र की भूमिका प्रमुख थी। ग्राम स्वराज्य का मतलब गांवों का आत्म निर्भर होना था और आत्मनिर्भरता कृषि क्षेत्र के मजबूत होने से ही आनी थी। यह संयोग नहीं हो सकता कि दक्षिण अफ्रीका से बैरिस्टर महात्मा गांधी ने भारत लौटने पर अपनी राजनीति की शुरुआत बिहार के चम्पारण जिले से 'नील की खेती' के खिलाफ शुरू किये आन्दोलन से ही की मगर इससे पहले बापू ने रेल के तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठ कर भारत भ्रमण किया था और गांवों की दशा को देखा था। इसके बाद ही उन्होंने कहा था कि असली भारत गांवों में ही बसता है, उस समय भारत की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में बसती थी और ये लोग कृषि पर ही निर्भर थे।

आज 2020 में फर्क यह आया है कि तब की अपेक्षा अब कई गुणा बढ़ी हुई आबादी का 60 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर निर्भर करता है। गौर से देखें तो हमारा कृषि क्षेत्र 73 साल के अन्तराल में बहुत मजबूत हुआ है। एक ओर इसकी उत्पादकता में भारी इजाफा हुआ है और दूसरी तरफ इस पर निर्भर करने वाली आबादी की संख्या कम हुई है। यह उपलब्धि हमने कृषि को सरकारों का सुरक्षा कवच देकर प्राप्त की है। इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे संविधान निर्माता खेती को संविधान की राज्य सूची में डाल कर गये थे। भारत की भौगोलिक विविधता को देखते हुए यह उनका दूरदृष्टि पूर्ण फैसला था। इसकी वजह यह थी कि किसान अपनी फसल को बेचने वाला एक 'उत्पादक' बन कर बाजार में जाता था न कि 'व्यापारी' बन कर, उसके उत्पादन पर तिजारत करने का काम बाजार में बैठे व्यापारी किया करते थे। जाहिर है यह व्यापार पूंजी के बल पर ही होता था जिसमें उपज के बाजार में आने के बाद मांग व सप्लाई का व्यापारिक नियम लागू हो जाता था और अगली फसल के आने तक यही स्थिति बनी रहती थी। इसी वजह से हर राज्य का अपना आवश्यक वस्तु अधिनियम बना था। जिससे जमाखोरी व कालाबाजरी को रोका जा सके और साथ ही सरकार गरीब जनता को राशन की दुकानों से सस्ता अनाज सुलभ कराती थी। वह अनाज की खरीद गल्ला मंडियों से ही करती थी और किसानों को वाजिब दाम भी देती थी मगर यह समझना भी बहुत जरूरी है कि किसान की उपज का सम्बन्ध गरीब आदमी की जेब से सीधा रहता आया है क्योंकि भारत में महंगाई की दर गेहूं और चावल के बाजार भावों पर निर्भर करती थी, इसी वजह से उतर भारत के गांवों में यह कहावत प्रचलित थी कि 'गेहूं महंगा तो सब कुछ महंगा।' यही कारण था कि आजाद भारत की सरकारों ने कृषि व खाद्य सब्सिडी देने में कभी कंजूसी नहीं बरती और किसान की खेती को लाभप्रद बनाये रखने की कोशिश की परन्तु आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद इसमें परिवर्तन आना शुरू हुआ और 2001 में कृषि जन्य उत्पादों की मिकदार पर लगे आयात प्रतिबन्धों के हटने के बाद से भारत के कृषि क्षेत्र पर दबाव बढ़ने लगा जिसकी वजह से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य की महत्ता और ज्यादा बढ़ने लगी मगर इसके समानान्तर ही आर्थिक उदारीकरण ने कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की रफ्तार को धीमा करना शुरू कर दिया। इससे एेसा असन्तुलन पैदा हुआ कि खेती घाटे का सौदा मानी जाने लगी।

इसका एक कारण लगातार कृषि योग्य जमीनों की 'जोत' किसानों के बढ़ते परिवारों की वजह से कम होती भी रही। 80 प्रतिशत किसानों के पास पांच एकड़ व दो एकड़ के बीच की खेती की जमीन है। अतः वर्तमान में जो किसान आन्दोलन चल रहा है उसका एक आयाम यह भी है कि किस प्रकार छोटे किसानों की खेती को लाभप्रद बनाये रखने के इन्तजाम किए जाएं। ऐसे माहौल में किसानों को एकमात्र सहारा सरकारी संरक्षण ही नजर आता है जिसकी वजह से वे चालू प्रणाली के समानान्तर सीधी बाजार प्रणाली खड़ा करने का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। यही वह विषय है जिस पर भारी गतिरोध बना दिख रहा है। इस गतिरोध को तोड़ने का तरीका 'गांधीवादी जन्तर' है जिस पर दोनों ही पक्ष मनन कर सकते हैं।


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