सम्पादकीय

गुदड़ी के लाल

Gulabi
8 Aug 2021 10:21 AM GMT
गुदड़ी के लाल
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सम्पादकीय

सुधीश पचौरी। संसद क्या है? पापड़ी चाट है!

दो अंगे्रजी एंकर नाराज कि एक ने संसद को 'पापड़ी चाट' कह दिया! हाय हाय! कुछ चर्चक परेशान कि यह क्या कह दिया? संसद को चाट पकौड़ी की दुकान बता दिया! हाय हाय! लेकिन दो एंकर खुश कि पापड़ी चाट मजेदार!
और मार, और मार, और मार! ससंद जा जा जा! संसद जा जा जा! फासीवाद आ! फासीवाद आ! फासीवाद का खैला हौबे! फासीवाद का ठेला हौबे! फासीवाद का रेला हौबे! ओम फासीवादाय नम:!

जो कल तक 'फासीवाद फासीवाद' चिल्लाते थे, संसद चलने नहीं दे रहे। वे हर दिन एक नई लीला रचते और हर दिन एक बड़ी खबर बनाते हैं और उधर एक बहुमत की सरकार अपना माथा पकड़े बैठी है!
विपक्ष एकजुट है। कुछ विपक्षी सांसद एक दिन कागज फाड़ते हैं, एक दिन पर्चे फेंंकते हैं, फिर एक दिन सात-सात पोस्टर दिखाते हैं, जिन पर लिखा है- पेगासस खरीदा या नहीं? हां या ना? और संसद कार्यवाही के सीधा प्रसारण का पूरा फायदा उठाते हैं!
खबर चैनलों की बहसें भी घिस चली हैं। वे पुराने रिकार्ड की तरह बजती हैं!
एंकर : संसद तो चलने दीजिए! विपक्ष : 'जब तक सरकार पेगासस खरीदा कि नहीं' बताती नहीं, तब तक संसद नहीं चलेगी! नहीं चलेगी! सुप्रीम कोर्ट से जांच कराओ! जांच कराओ! तुम बैठो संसद में, हम तो चले गांधी बाबा के पास! 'रत्ती भर प्रमाण नहीं और जांच कराओ, जांच कराओ! किस-किस की जांच कराएं! अपना फोन दो! जांच लो- प्रवक्ता चीखते हैं।

'फासीवाद फासीवाद'! कल तक जो उससे लड़ने चले थे, वही नहीं चलने दे रहे संसद! तब कौन हुआ फासीवादी?
सब कहते हैं बहस करो, लेकिन कोई नहीं करना चाहता है बहस! अपनी-अपनी जिदें हैं अपनी-अपनी अड़ंत है।
एक एंकर कहता है : पहले संसद किसान पर अटकी, फिर वैक्सीन पर अटकी और अब पेगासस पर अटकी है!
संसद एक 'स्थगित यथार्थ' है!
दो चैनल विपक्ष को धोने के लिए बहस कराते हैं कि 'काम नहीं तो वेतन नहीं' होना चाहिए! जब सांसद काम ही नहीं कर रहे, तो वेतन और भत्ते क्यों दिए जाएं? लेकिन कोई कान नहीं देता।
चैनल बताते हैं कि एक मिनट की संसदीय कार्रवाई पर ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं। अब तक इतने सौ लाख खर्च हो चुके हैं और धेले का काम नहीं हुआ!
अगर संसद का यही हाल रहा तो एक दिन अपने यहां हो जाएगी अमेरिका वाली 'राष्ट्रपति प्रणाली'!
अगर ऐसा ही रहा तो एक दिन रोएगा जनतंत्र! तब क्या करेगा विपक्ष!

अपनी राजनीति इन दिनों इस कदर दो-फाड़ हो चली है कि एक दलित बच्ची के बलात्कार और हत्या की खबर भी पक्ष-विपक्ष के बीच खून-खराबा कराने जैसा मंजर बना देती है! राहुल उसके माता-पिता का चित्र ट्वीट कर दिखा देते हैं, तो भाजपा प्रवक्ता इसे 'पॉक्सो कानून' का उल्लंघन कहती है और एंकर बीच बचाव में पसीने-पसीने होते रहते हैं कि बलात्कार बलात्कार है, उस पर तो राजनीति न करो!
इस तरह की दैनिक लड़ाई से चैनल भी तंग आ गए लगते हैं, इसीलिए वे या तो दिन भर बाढ़ को दिखाते हैं या तोकियो ओलंपिक में भारतीय विजेताओं को दिखाते हैं!

संसद में हाय हाय है, लेकिन गनीमत कि खेलों में वाह वाह है! चानू जीती। हॉकी टीम जीती। पहलवान जीते। चैनल खुश! एंकर खुश! चैनल मन को समझाते हैं कि कांस्य पदक भी अपने लिए 'गोल्ड मेडल' के बराबर है! आज कांस्य लाए, कल गोल्ड भी लांएगे! हॉकी ने तो चालीस साल बाद जीत का मुंह दिखाया है।
और सच कहें, नेताओं से कहीं बेहतर हैं ये खिलाड़ी! और कैसे खिलाड़ी? एक हॉकी खिलाड़ी टूटी हॉकी से और दूसरी एक लकड़ी से ही अभ्यास करती रही। इनके माता-पिता के दारिद्र्य को नमन कीजिए और इन 'गुदड़ी के लालों' की खुशी से चमकती आखें देखिए और अपने निकम्मेपन को देख शर्म से मर जाइए कि अपने सांसद संसद संसद खेलते और निराश करते हैं, जबकि अपने खिलाड़ी इस निराशा में भी खुशी की खबर देते हैं!

सचमुच महान हैं ये संकोची, विनम्र मामूली खिलाड़ी! एक अपनी गोली आस्ट्रेलिया को गोल नहीं करने देती, तो दूसरा गोली जर्मनी को रोके रखता है! क्या बात है! अपने एक पहलवान को स्पर्धी पहलवान दांतों से काट खाता है, तो भी वह उसे दबोचे रखता है और जीतता है, फिर भी कहता है कि सॉरी! मैं गोल्ड नहीं ला सका!
इस अहंकारी समय में कैसी तो विनम्रता और कैसी दुर्लभ खुशी!
इसे कहते हैं 'खेल भावना'! अगर इसका एक प्रतिशत भी अपने नेताओं में होती तो क्या बात होती!
जनसत्ता
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