सम्पादकीय

गूंजता नारा: बांस बरेली के सरदार की गुम होती निशानियां

Neha Dani
31 Dec 2021 1:51 AM GMT
गूंजता नारा: बांस बरेली के सरदार की गुम होती निशानियां
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विश्वविद्यालय के ‘मल्टीपरपज हॉल’ का नामकरण सेठ जी की स्मृति में हो, पर इस पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया।

वर्ष 1930 के दिनों में बरेली की सड़कों पर एक नारा गूंजता था, बांस बरेली का सरदार, सेठ दामोदर जिंदाबाद। यह क्रांतिकारी दामोदर स्वरूप सेठ की लोकप्रियता का अद्भुत नमूना था। बरेली में जन्मे सेठ जी पर बनारस में रहते उत्तर भारत का प्रसिद्ध 'बनारस षड्यंत्र केस'(1912) चला, जिसमें वह सजावार हुए। तब काशी विद्यापीठ में अवैतनिक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने वहां गुप्त ढंग से पार्टी का संगठन और संचालन किया। असहयोग आंदोलन के बाद उन्होंने बनारस और बरेली में दल को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया।

इसके बाद नौ अगस्त, 1925 के 'काकोरी कांड' के घटित होते ही उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन गंभीर रूप से बीमार होने पर उन्हें रिहा कर दिया गया। काकोरी कांड में उनकी भूमिका को इस रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए कि जेल से अदालत ले जाए जाते समय भारतीय प्रजातंत्र की जय के नारे लगाने वालों में वह अग्रणी थे।
वर्ष 1912 से लेकर भगत सिंह-युग तक सेठ जी का क्रांतिकारी कर्म कभी मद्धिम नहीं पड़ा। काकोरी कांड के सजायाफ्ता क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्र नाथ बख्शी, मुकुंदीलाल और राजकुमार सिन्हा के 1929 में बरेली केंद्रीय कारागार में 53 दिन के दीर्घ अनशन को बाहर प्रचारित करने और कामयाब बनाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। उन दिनों क्रांतिकारी राजकुमार सिन्हा की बहन सुशीला घोष इस कार्य में उनकी धन से मदद करती थीं।
दल के सेनापति चंद्रशेखर आजाद सेठ जी का बहुत सम्मान करते थे। काकोरी के अनशनकारियों को जेल से छुड़ाने के लिए आजाद ने बरेली आकर जो ताना-बाना बुना, उसमें सेठ जी का बड़ा योगदान था। आजाद ने कानपुर में एक जरूरी बैठक कर केंद्रीय समिति गठित की और उसका अध्यक्ष सेठ जी को बनाया। दरअसल, आजाद चाहते थे कि दल का कार्यभार सेठ जी संभालें और उनके जिम्मे सिर्फ सैन्य विभाग रहे। क्रांतिकारी संग्राम के साथ सेठ जी ने कांग्रेस आंदोलन में भी सक्रिय होकर जेल-यात्राएं कीं। जवाहरलाल नेहरू से उनकी बहुत अंतरंगता थी।
वह उन्हें 'जवाहर' कहकर बुलाया करते थे। उनके निमंत्रण पर नेहरू एक बार बरेली की कॉन्फ्रेंस में भी आए थे। सेठ जी संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य रहे, पर कांग्रेस के बड़े नेताओं से उनका मतभेद हो गया, जिसे उन्होंने छिपाया नहीं। सेठ जी का मानना था कि यह संविधान समाजवादी समाज का न होकर, पूंजीपतियों का है, जिसे लागू करने से देश में समाजवाद की स्थापना नहीं हो सकती।
उन्होंने संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्यों को दिया गया सम्मान लेने से भी इन्कार कर दिया। खांटी सोशलिस्ट विचारों के सेठ जी की एक किताब थी-साम्यवाद का बिगुल, जिसके सह-लेखक संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, गोविंद सहाय बी.कॉम. और बाबू श्रीप्रकाश जैसे लोग थे।
1936 में साम्यवादी साहित्य की उत्कृष्ट पुस्तक के रूप में काशी पुस्तक भंडार, बनारस से छपी 128 पृष्ठ की इस पुस्तक की कीमत एक रुपया थी। आजादी के बाद सेठ जी सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े, तब चंद्रशेखर (पूर्व प्रधानमंत्री) उनके कार्यालय सचिव हुआ करते थे, जिनसे बाद में सेठ जी के प्रसंग में मेरा पत्र-व्यवहार भी हुआ। रामप्रसाद बिस्मिल, मन्मथनाथ गुप्त, कमलापति त्रिपाठी और यशपाल ने भी अपनी पुस्तकों में सेठ जी की चर्चा की है। समाजवादी चिंतक और लेखक मस्तराम कपूर ने भी उन पर लिखा है।
वर्ष 1989 में बरेली में उनकी प्रतिमा की स्थापना की गई। मैंने उन्हीं दिनों लखनऊ के मोती महल जाकर उनकी हस्तलिखित आत्मकथा की पांडुलिपि की तलाश की, जो गोमती में आई भीषण बाढ़ की भेंट चढ़ चुकी थी। बरेली वासी बिहारीपुर मुहल्ले में सेठ जी का मकान संरक्षित नहीं कर पाए, जहां उनका जन्म हुआ था।
इस शहर में उनके नाम पर बने एकमात्र पार्क की इबारत को बार-बार मिटाने की कोशिशों का सिलसिला थम नहीं रहा। उसमें लगी उनकी प्रतिमा को दो बार क्षतिग्रस्त किया गया। कई वर्ष पूर्व शहर के जंक्शन मार्ग को सेठ जी के नाम से जोड़ने के निशान अब लापता हैं। 'मैनपुरी षड्यंत्र केस' (1919) के क्रांतिकारी राजाराम भारतीय मुझसे अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपने जीवन में दामोदर स्वरूप सेठ से अधिक कष्ट सहन करने वाला क्रांतिकारी नहीं देखा।
यह वही राजाराम थे, जिनकी गिरफ्तारी ने अशफाक उल्ला खां को क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया था। सेठ जी एक बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे, पर वहां वह गांधीवादी दर्शन से कभी तालमेल नहीं बना पाए। अपनी क्रांतिकारी चेतना को उन्होंने सदैव अक्षुण्ण रखा। बाद में वह समाजवादी दल से जुड़े। उन्होंने एक बार सेंट्रल असेंबली का चुनाव लड़ा, जिसमें शाहजहांपुर के विशनचंद्र सेठ को हराकर जीत हासिल की, पर बरेली के लोगों ने उन्हें संसद में न भेजकर यहां से कांग्रेस के सतीश चंद्र को जिताया।
1965 में अपने निधन से पूर्व सेठ जी लखनऊ के मोती महल में रहने लगे थे। तब बरेली आने पर वह पं. द्वारिका प्रसाद के घर पर ठहरते या फिर कांग्रेस कार्यालय में। डॉ. संपूर्णानंद चाहते थे कि सेठ जी के बरेली के मकान को स्मारक बना दिया जाए, लेकिन यहां के नागरिक और नौकरशाही इस मामले में उदासीन बने रहे। मैंने एक बार सुझाव दिया कि रुहेलखंड विश्वविद्यालय के 'मल्टीपरपज हॉल' का नामकरण सेठ जी की स्मृति में हो, पर इस पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया।

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