सम्पादकीय

अलविदा डियर!

Rani Sahu
24 May 2023 5:42 PM GMT
अलविदा डियर!
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उन जैसे सदाचारी देश बेच अपनी जेबें भर रहे हैं तो मेरे जैसे देवता मुहल्ला। बेचकर। कोई माने या न, पर कहीं न कहीं हम सब अपना कुछ न कुछ बेचते ही रहते हैं। जहां मौका मिला, वहां अपना कुछ न कुछ बेच डाला। जेब भरी और मुस्कुराते हुए, दुम दबाते हुए आगे हो लिए। जैसा कि मैंने ऊपर अर्ज किया कि मैं मुहल्ला स्तर का ईमानदार विक्रेता हूं। सो मुहल्ला बेचने से उस वक्त मेरा पर्स भरा हुआ था। मुहल्ला बेचने के बाद मैं फूला न समा रहा था। मेरे पांव मुहल्ले में नहीं टिक रहे थे। बंदे का कोई लेबल हो या न, पर मत पूछो उस वक्त मेरी खुशी का लेबल क्या था। यों समझ लीजिए कि मेरे सिर से भी ऊपर से मेरी खुशी बही जा रही थी। तभी अचानक पर्स से सिसकने की आवाज आने लगी तो मैं चौंका। हद है यार! आदमी का पर्स जब खाली होता है तो वह सिसकता ही रहता है, पर पर्स भरा होने के बाद भी पर्स सिसक रहा है? लग रहा है इसे इस बात का पता नहीं कि पगले! तू इस वक्त खाली नहीं, इस वक्त ठूंस ठूंस कर भरा है।
पर कोई बात तो जरूर है। मैंने अपना पर्स अपनी पिछली जेब से बड़ी बेदर्दी से निकाला और अपने सामने उसका कान पकड़ रखा तो सच्ची को पर्स के भीतर के कडक़ड़ते दो हजार के नोट सिसक रहे थे। नोट भी सिसकते हैं मित्रो! मैंने तो आज तक इन नोटों के लिए साधु से लेकर स्वादु तक सबको सिसकते, चीखते चिल्लाते देखा है। इन नोटों के लिए वरिष्ठ से वरिष्ठ अहिंसावादी भी किसी का भी गला यों रेत देता है मानों वह तरबूज का गला रेत रहा हो। आखिर जब मैंने उनसे उनके सिसकने का कारण पूछा तो दो हजार के नोटों का प्रधान कुछ कहने के बदले सिर अकड़ाए और भी जोर से सिसकने लगा। मैं बड़ी देर तक उसे सांत्वना देता रहा। आखिर जब उसकी सिसकियां कुछ कम हुईं तो मैंने उससे कहा, ‘हद है यार! सबसे बड़ा नोट होकर सिसक रहे हो? तुम तो आज तब सबको सिसकाते रहे हो।’ ‘बंधु बात ही कुछ ऐसी है कि…।’ कंबख्त ने इतने इमोशनल होकर कहा कि उसकी तो उसकी, मेरी आंखों में भी असली के आंसू छलकने लगे। ‘क्या बात है डियर?’ ‘मैं चलन से बाहर हो रहा हूं।
अब तुम मेरे दर्शन केवल चूर्ण वाले नोटों में ही कर पाओगे।’ दो हजार के नोटों का प्रधान गिरता पड़ता मेरे पर्स से निकला और मेरे गले लग फूट फूट कर रोने लगा। समाज में हद से अधिक का दबदबा रखने वाले पता नहीं क्यों इतने असहाय हो जाते होंगे? ‘मतलब? मैं कुछ समझा नहीं।’ ‘अब मैं सपना हो रहा हूं। मुझे चलन से हटाया जा रहा है।’ ‘तुम जैसे कभी चलन से बाहर नहीं होते दोस्त! चलन से बाहर तो गलत तरीकों से कमाने वाले बदचलन होते हैं’, मैंने उसकी आंखों के आंसू पोंछते हुए कहा। उसके बाद अपनी आंखों के आंसू पोंछे। ‘‘काश! ऐसा होता। पर ऐसा होता ही कहां है दोस्त! लाख बदचलन होने के बाद भी वे तो समाज में हद से बेहतर चाल चलन वाले ही बने रहते हैं। काश! कभी कोई इन बदचलनों को भी चलन से बाहर कर पाता, तो उन्हें भी चलन से बाहर होने वालों की पीड़ा का भान होता’, जब सारा किस्सा समझ आया तो अपने दिल पर हाथ रख उसका मन रखने के लिए मैंने उसे ढांढस बंधाते कहा, ‘यहां चलन में सदा को कौन रहा है दोस्त! देखो तो, चलन में तो मैं भी नहीं। फिर भी चल रहा हूं फेक करंसी की तरह। पर इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि मैं चलन में न होने के चलते आत्महत्या कर लूं?’ आगे कुछ कहने के बदले वह रोते हुए धीरे धीरे मुझसे अपना हाथ यों छुड़ाने लगा मानों हम आखिरी बार बिछुड़ रहे हों। मत पूछो उस वक्त मेरे दिल का क्या हाल हुआ! जो हुआ वह गूंगे की पीड़ सा है। इसे केवल वही फील कर सकते हैं जिनके पास…।
अशोक गौतम

By: divyahimachal

Rani Sahu

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