सम्पादकीय

सुशासन और समावेशी विकास

Subhi
19 Oct 2022 5:24 AM GMT
सुशासन और समावेशी विकास
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स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू होने के साथ-साथ विकास का प्रशासन और प्रशासनिक विकास समेत सामुदायिक और सामाजिक विकास की अवधारणा को भी बल मिला था।

सुशील कुमार सिंह: स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू होने के साथ-साथ विकास का प्रशासन और प्रशासनिक विकास समेत सामुदायिक और सामाजिक विकास की अवधारणा को भी बल मिला था। मगर सशक्त समावेशी ढांचे का निर्माण करने में अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। आज भी गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, सड़क, सुरक्षा आदि से जुड़ी समस्याएं समाधान की मांग करती हैं।

शासन वही अच्छा माना जाता है, जिसका प्रशासन अच्छा होता है और दोनों तब अच्छे होते हैं जब लोक कल्याण होता है। कम लागत में अधिक लोक कल्याण की योजनाओं की जरूरत भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में अधिक है। इसका मूल कारण यहां आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया है। अगर इस तर्क को असंगत ठहराना है, तो यह बात पुख्ता तौर पर सिद्ध करनी होगी कि भारत की आधारभूत संरचना और समावेशी विकास सर्वोदय की स्थिति को प्राप्त कर चुके हैं।

हालांकि नव-लोकप्रबंधन कोई प्रशासनिक सिद्धांत नहीं है और न ही कोई आंदोलन, बल्कि यह दोनों का मिश्रण है, जहां हर हाल में बेहतरी की खोज बनी रहती है, जो निजी हित के साथ-साथ पूरे समाज के लिए बेहतर की गुंजाइश पैदा करती है। अध्ययन बताते हैं कि भारत में लोकप्रबंधन के नए आयामों में लोक कल्याणकारी व्यय को घटाया गया है। मसलन, रसोई गैस आदि से सबसिडी समाप्त करना, लोक उद्यमों का विनिवेश, निजीकरण और उनसे समझौता करना, विकेंद्रीकरण और निजी निकायों द्वारा ठेका प्रथा से कार्य करवाना आदि।

हालांकि ई-गवर्नेंस लागू करने वाली गतिविधियों को बढ़ावा नव-लोकप्रबंध और सुशासन के चलते ही मिला है। जैसे ई-बैंकिंग, ई-टिकटिंग, ई-सुविधा, ई-अदालत, ई-शिक्षा समेत विभिन्न आयामों में इलेक्ट्रानिक पद्धति के समावेशन आदि के चलते सुशासन में निहित पारदर्शिता और खुलेपन को मजबूती मिली है। इतना ही नहीं, सरकारी संगठनों का निगमीकरण, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप जैसे उपायों पर आगे बढ़ाना नव-लोकप्रबंधन के नवीन आयाम हैं।

वर्ष 1997 का नागरिक अधिकारपत्र, 2005 का सूचना का अधिकार कानून, 2006 में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस आंदोलन, प्रशासनिक सुधार के लिए आयोगों का गठन, समावेशी और टिकाऊ विकास पर अमल, स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज आदि का विकास भारत में लोकप्रबंध के नए आयाम को ही दर्शाते हैं। दरअसल, प्रशासनिक सुधार और सामाजिक परिवर्तन एक-दूसरे से तार्किक रूप से जुड़े होते हैं। प्रशासनिक सुधार राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिणाम होता है। सरकार परिवर्तन और सुधार की दृष्टि से जितना अधिक जनोन्मुख होगी, सुशासन उतना अधिक प्रभावी होगा।

हालांकि सरकारें कुशलता के साथ अर्थव्यवस्था पर तो जोर देती हैं, पर आम जनमानस में इसका प्रभाव समावेशी अनुपात में नहीं पड़ पाता, जिसके चलते पूंजीवाद का विकास होता है। हालांकि पूंजीवाद के विकास के अनेक दूसरे कारण भी हो सकते हैं। गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था की कई परतें होती हैं। पहली परत में बाजार मुख्य संस्था होती है, वहीं दूसरी परत प्रतियोगिता के लिए जानी जाती है। एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक 'द वेल्थ आफ नेशन', जो अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध की है, में भी पहली परत को महत्त्वपूर्ण माना है।

भारत गांवों का देश है, मगर अब बढ़ते शहरों के चलते इसकी पहचान सिर्फ गांवों तक नहीं सिमटी है। भारत खेत-खलिहानों के साथ-साथ कल-कारखानों से युक्त हो चला है। बीते पचहत्तर वर्षों में विकास परत-दर-परत अनवरत हुआ है। स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू होने के साथ-साथ विकास का प्रशासन और प्रशासनिक विकास समेत सामुदायिक और सामाजिक विकास की अवधारणा को भी बल मिला था। मगर सशक्त समावेशी ढांचे का निर्माण करने में अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। आज भी गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, सड़क, सुरक्षा आदि से जुड़ी समस्याएं समाधान की मांग करती हैं।

1991 के उदारीकरण और बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य के साथ भारत में बदलाव की एक नई बयार चली। 1992 में समावेशी विकास और सुशासन की धारणा भी मूर्त रूप में उभरी, फिर भी बुनियादी विकास, मानव विकास सूचकांक और सुविधाजनक जीवन के मामले में आम जनमानस की जद्दोजहद कम नहीं हो रही है। प्रशासन और जनता के बीच संकुचित दायरे के संबंधों ने अब व्यापक आधार ले लिया है।

अध्ययन बताते हैं कि वैश्वीकरण, उदारीकरण के दौर में नौकरशाही को नई दिशा और नई संरचना देने का भी प्रयास किया गया। नव-लोकप्रबंधन एक ऐसा परिदृश्य है, जिस पर कई उत्प्रेरक तत्त्वों का प्रभाव पड़ा है। उसने बाजार तंत्र को उभारा, प्रतियोगिता और प्रभावशीलता को बढ़ावा दिया है। भारत जैसे देश में प्रतियोगिता नागरिकों को ग्राहक बनाती है और सफल ग्राहक वही है जो कमाई के साथ बाजार तंत्र को अंगीकृत कर सके।

हालांकि भारत में अनेक ऐसे वर्ग हैं, जो बाजार के साथ कदम से कदम मिला पाने में अक्षम हैं। विकासशील देशों का बाजार हो या उसकी प्रतियोगिता, वे बड़े तो हो जाते हैं, मगर मानव संसाधन में समुचित दक्षता और रोजगार की कमी के चलते यह माडल या तो विफल हो जाता है या फिर जनता विफल हो जाती है। जिस देश में अस्सी करोड़ नागरिकों का सरकार की ओर से मिलने वाले पांच किलो मुफ्त अनाज पर गुजर-बसर होता हो, वहां बाजार और प्रतियोगिता का अर्थ धुंधला ही बना रहता है।

सुशासन की भी तीन परतें हैं, जिसमें मानव विकास सूचकांक, गरीबी सूचकांक इसके हिस्से हैं। अगर यह किसी भी स्तर पर देश में व्याप्त है तो सुशासन को आहत करता और उद्यमशीलता का दम भरने वाली सरकारों पर प्रश्नचिह्न लगाता है। मानव विकास सूचकांक 2021-22 के आंकड़े बताते हैं कि भारत 191 देशों की सूची में 132वें स्थान पर है, जबकि वैश्विक भूख सूचकांक-2021 में 101वें स्थान पर। किसी भी देश में बेरोजगारी कंगाली, बीमारी और गरीबी की जड़ है। इन दिनों भारत में बेरोजगारी दर रिकार्ड स्तर को पार कर चुकी है। गरीबी उन्मूलन की कोशिश पांचवीं पंचवर्षीय योजना से जारी है, मगर भारत में सत्ताईस करोड़ गरीब अब भी हैं। हालांकि इस पर आंकड़े अलग तरीके से भी पेश किए जाते रहे हैं।

भारत विश्व का सबसे बड़ा खाद्यान्न भंडार वाला देश है, मगर यहां विश्व की खाद्य असुरक्षित आबादी का एक-चैथाई हिस्सा मौजूद है। देखा जाए तो खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के बावजूद, भर पेट भोजन बहुतों को नहीं मिल पाता है। इतना ही नहीं, खाद्य पदार्थों की कीमत भी इन दिनों काफी बढ़ी हुई है। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अनुसार गेहूं, आटा, चावल, दाल के साथ-साथ तेल और आलू, प्याज के भाव तेजी से बढ़े हैं।

ताजा उदाहरण यह है कि चावल का भाव 9 अक्तूबर, 2022 को 37 रुपए 65 पैसा प्रति किलो था, जबकि 11 अक्तूबर को यही 38 रुपए 6 पैसे हो गया था। गेहूं और आटे में भी क्रमश: 30 रुपए 9 पैसे से 30 रुपए 97 पैसे और 35 रुपए से 36 रुपए 26 पैसे की वृद्धि देखी जा सकती है, जबकि आलू, प्याज तथा टमाटर की कीमतें भी उछाल लिए हुई हैं। यह नव-लोकप्रबंधन और सुशासन दोनों दृष्टियों से उचित नहीं है।

नव-लोकप्रबंधन के नतीजे प्रतियोगिता, पारदर्शिता तथा आनुबंधिक संबंधों पर आश्रित हैं और इस प्रकार पुरानी व्यवस्था से भिन्न हैं, जबकि सुशासन लोक कल्याण, लोक सशक्तिकरण और लोक प्रवर्धित अवधारणा है, जो सर्वोदय और अंत्योदय को समाहित किए हुए है। सवाल है कि देश किससे बनता है और किसके साथ चलता है।

लोकतंत्र में जनता का शासन होता है और साफ है कि कोई भी जनता समावेशी और बुनियादी विकास से अछूती रहने वाली व्यवस्था देर तक बर्दाश्त नहीं करती। अगर महंगाई, बेरोजगारी और जीवन से जुड़ी व्यवस्थाएं पटरी पर न हों, तो भारी मन से यह कहना पड़ता है कि जनता का शासन कहीं जनता पर शासन तो नहीं हो गया। हालांकि जहां सुशासन की बयार की बात हो और उद्यमशील सरकार में संतुलन का भाव व्याप्त हो, वहां लोकतंत्र और जनता का शासन ही कायम रहता है।

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