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अमेरिका के सामने यह मुद्दा उठाएगा, क्योंकि दोनों रणनीतिक साझेदार हैं और क्वाड के सदस्य हैं।
बांग्लादेश अपनी आजादी की स्वर्ण जयंती मना रहा है। विगत 16 दिसंबर को बांग्लादेश की आजादी के अवसर पर ढाका को बधाई देने वाले अकेले विदेशी मेहमान हमारे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद थे, जबकि विगत मार्च में स्वर्ण जयंती के सरकारी आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य अतिथि थे। इस तरह देखें, तो दक्षिण एशिया में बांग्लादेश का सबसे विश्वसनीय सहयोगी भारत ही है। पर इसी महीने की शुरुआत में वाशिंगटन ने बांग्लादेश के सात शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों पर मानवाधिकार हनन मामले में प्रतिबंध लगाया है।
प्रतिबंधित अधिकारियों की सूची में पहला नाम बांग्लादेश के मौजूदा पुलिस प्रमुख और रैपिड ऐक्शन बटालियन (रैब) के पूर्व महानिदेशक बेनजीर अहमद का है। इस सूची में रैब के मौजूदा महानिदेशक चौधुरी अब्दुल्ला अल मामुन, एडीजी (ऑपरेशन्स) खान मोहम्मद आजाद, पूर्व एडीजी (ऑपरेशन्स) तोफाएल मुस्तफा सरवर, मोहम्मद जहांगीर आलम और मोहम्मद अहमद लतीफ खान हैं। बेनजीर अहमद और रैब के एक पूर्व अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल मिफ्ताह उद्दीन अहमद के अमेरिका जाने पर भी रोक लगाई गई है।
पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल अजीज अहमद का अमेरिका का वीजा भी रद्द कर दिया गया है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का इस संबंध में कहना है, 'हम मानवाधिकार को अपनी विदेश नीति के केंद्र में रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अपनी इस प्रतिबद्धता का सबूत जहां हम जरूरी कदम उठाकर देते हैं, वहीं अपने अधिकारियों को मानवाधिकार से जुड़े मामलों पर नजर रखने और पारदर्शिता बरतने के लिए भी कहते हैं।'
बांग्लादेश ने इस अमेरिकी कदम पर नाराजगी जताई है। जिन सेनाधिकारियों पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाया है, उनमें से एक केएम आजाद ने, जो रैब के उप-प्रमुख हैं, कहा कि 'अगर एक अपराधी के खिलाफ कार्रवाई करना मानवाधिकार का उल्लंघन है, तो अपने देश के हित में मानवाधिकार उल्लंघन करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।' गृहमंत्री असदुज्जमान खान और सत्तारूढ़ अवामी लीग के महासचिव ओबैदुल कादर ने अमेरिकी प्रतिबंध को 'अनुचित' बताया।
पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने लोकतंत्र पर वर्चुअल बैठक बुलाई थी, जिसमें बांग्लादेश आमंत्रित नहीं था। शेख हसीना सरकार तभी से अमेरिका से नाराज है। हालांकि उस बैठक में रूस, तुर्की और चीन भी आमंत्रित नहीं थे, पर पाकिस्तान और फिलीपींस आमंत्रित थे। अमेरिका ने 110 देशों में से जिन 30 देशों को आमंत्रित किया था, उन्हें भी एक गैरलाभकारी अमेरिकी खुफिया संस्था ने 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' बताया। उसने अंगोला, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और इराक के बारे में कहा कि ये स्वतंत्र नहीं हैं।
स्वीडन स्थित वी-डेम नाम की संस्था के मुताबिक, अमेरिका ने जिन देशों को उस बैठक में बुलाया था, उनमें से एक दर्जन से अधिक देशों में 'चुनी हुई तानाशाही' है। इन देशों में फिलीपींस भी है, जिसके राष्ट्रपति बगैर न्यायिक अनुमोदन के की गई हत्याओं को जायज ठहरा चुके हैं। ढाका ने उसे बैठक में न बुलाए जाने, जबकि इस्लामाबाद को आमंत्रित करने को अपमानजनक बताया, हालांकि चीन के दबाव पर पाकिस्तान ने भी उस बैठक में हिस्सेदारी नहीं की।
आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर बांग्लादेश की उपलब्धियों को पूरी दुनिया सराह चुकी है। जबकि पाकिस्तान को एक विफल राष्ट्र की संज्ञा दी गई है, जिसने आतंकवाद के प्रसार को अपनी राष्ट्रीय नीति बना ली है और जो नस्लीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर जुल्म ढाता है और एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में है। हकीकत यह है कि अमेरिका ने शीतयुद्ध के दौर में और उसके बाद भी अपने रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनेक तानाशाहियों को आगे बढ़ाया है।
दक्षिण कोरिया, दक्षिण वियतनाम, फिलीपींस, इंडोनेशिया, पाकिस्तान-ऐसे देशों की सूची लंबी है। कम्युनिज्म के खिलाफ लड़ाई में अमेरिकी खुफिया विभाग ने निकारागुआ से चिली तक क्रूर और खून के प्यासे तानाशाहों का समर्थन किया है। इसलिए बांग्लादेश के शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों पर लगाए गए मौजूदा अमेरिकी प्रतिबंध का बांग्लादेश में लोकतंत्र के संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है।
शेख हसीना के नजदीकी लोगों को, जो 1975 के खूनी तख्तापलट के पीछे सीआईए का हाथ मानते हैं और जिसमें हसीना के परिजनों में से ज्यादा की हत्या कर दी गई थी, आशंका है कि अमेरिकी प्रतिबंध से ढाका की सड़कों पर खून-खराबे का नया दौर शुरू हो सकता है। वहां के कट्टरवादी संगठन पिछले दो साल से हिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं, जिनमें से आखिरी प्रदर्शन नरेंद्र मोदी के बांग्लादेश दौरे पर हुआ था।
कुछ अमेरिकी संगठन वहां 'मीडिया की आजादी' को आगे बढ़ाने के लिए फंडिंग कर रहे हैं, जबकि ढाका का मानना है कि यह अभियान बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन की मंशा से चलाया जा रहा है। बांग्लादेश में चुनाव होने में अभी दो साल हैं, लिहाजा ये घटनाक्रम सत्तारूढ़ अवामी लीग के लिए चिंताजनक है। अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की जल्द वापसी और काबुल में भारत-समर्थक अशरफ गनी सरकार के हटने से भारत को पहले ही करारा झटका लग चुका है। अपने पूर्वी पड़ोस में भारत ऐसा झटका बर्दाश्त नहीं कर सकता।
म्यांमार पहले से ही चीन के पाले में है। नेपाल में चीनी दखल लगातार बढ़ रहा है। अमेरिका स्थित दक्षिण एशियाई विशेषज्ञ माइकल कग्लमैन ने हाल ही में लिखा है कि 'हसीना सरकार पर अगर अमेरिका का दबाव बढ़ा, तो वह चीन के पाले में जा सकती है।' ऐसा हुआ, तो यह भारत के लिए खतरनाक होगा, क्योंकि भारत पूर्वोत्तर में अपनी सुरक्षा के लिए बांग्लादेश पर निर्भर है। सवाल यह है कि क्या भारत अपने सबसे विश्वसनीय पड़ोसी की रक्षा के लिए अमेरिका के सामने यह मुद्दा उठाएगा, क्योंकि दोनों रणनीतिक साझेदार हैं और क्वाड के सदस्य हैं।
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