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- 1927 की गोधरा हिंसा :...
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देश का वह पूर्व पीएम जिसने गलत रिपोर्ट देने की बजाय इस्तीफा देना बेहतर समझा
सुरेंद्र किशोर
गोधरा (Godhara) में 1927 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद ही मोरारजी देसाई ने सरकारी नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता की लड़ाई ( Freedom Struggle) में कूद पड़ने का निर्णय कर लिया था. उसे उन्होंने जल्द ही कार्य रूप भी दे दिया. याद रहे कि तब के अंग्रेज कलक्टर ने मोरारजी देसाई पर इस बात के लिए दबाव डाला था कि वे उस हिंसा की ऐसी रिपोर्ट तैयार करें जिससे दंगाई मुसलमानों को दोष मुक्त किया जा सके. सन 2002 में भी गोधरा में कारसेवक ट्रेन दहन कांड हुआ. सन 1927 के गोधरा कांड से बीस साल पहले हुए कांड में एक खास तरह की समानता है. 2002 के गोधरा कांड के बाद रेलवे मंत्री लालू प्रसाद (Lalu Yadav) ने जस्टिस यू.सी.बनर्जी के नेतृत्व में जांच कमेटी बनाई थी.उस कमेटी ने यह रपट दी थी कि गोधरा स्टेशन पर ट्रेन की बोगी में किसी ने बाहर से आग नहीं लगाई थी बल्कि आग भीतर से ही लगी थी. पर, याद रहे कि सी.बी.आई.जांच से पता चला कि मुसलमानों की भीड़ ने बाहर से पेट्रोल छिड़कर डिब्बे के भीतर बैठे-सोये 59 कार सेवकों को जिंदा जला दिया था. कोर्ट ने उन आरोपितों को सजा भी दे दी.
अंग्रेजों ने कांग्रेसियों को फंसाने के लिए मोरार जी पर दबाव बनाया
1927 के गोधरा कांड के बारे में मोरारजी देसाई ने अपनी जीवनी में लिखा है कि '' गणेश उत्सव के दौरान हिन्दुओं ने बाजा बजाते हुए मस्जिद के पास से जुलूस निकाला. डी.एस.पी.जियाउद्दीन अहमद की सुरक्षा में जुलूस निकला. डीएसपी के डर से मुसलमानों ने मंजीरे बजाने पर आपत्ति नहीं की. जब जुलूस खत्म हुआ और लोग अपने -अपने घर जाने लगे तो मुसलमानों ने बदले की भावना से लोगों पर हमला कर दिया. जुलूस के नेता वामनराव मुकादम थे. उनके ऊपर तो बुरी तरह प्रहार हुआ. चोट खाकर मुकादम जब गिर पड़े तो उनके मित्र पुरुषोत्तम शाह उन्हें बचाने के लिए बीच में पड़े. पर उन्हें हमलावरों ने इतना मारा कि वे मर गए. मुकादम का हाथ टूटा और अन्य कई को चोट आई. हमले के शिकार हिन्दू कांग्रेसी थे. अंग्रेजों को कांगे्रसियों से नफरत थी.''
मोरारजी नौकरी छोड़कर आजादी के आंदोलन में कूद पड़े
जिले के कलक्टर ने मोरारजी देसाई को निर्देश दिया कि वे पड़ताल के बाद अपनी ऐसी रपट तैयार करें ताकि उसमें हिन्दू दोषी पाए जाएं. मोरारजी ने ऐसा करने से इनकार करते हुए कहा कि मैं तो सिर्फ सत्य ही लिखूंगा. मजिस्ट्रेट के रूप में भी मैं वैसा ही आचरण करूंगा. मोरारजी लिखते हैं कि ''दंगे के इस अनुभव से मेरी इस पूर्व धारणा की पुष्टि हुई कि अंग्रेज सिविलियनों और पुलिस अधिकारियों का रुख कौमी दंगों में निष्पक्ष नहीं होता. चूंकि मैंने उनके अन्यायी और पक्षपातपूर्ण रुख में उनका साथ नहीं दिया और तटस्थ रहा, इसीलिए उन्होंने मुझसे दुश्मनी की और प्रतिशोध लेने के लिए डी.एम.ने सरकार से मेरे खिलाफ जांच की विनती की. देर -सबेर नौकरी छोड़ देने का विचार भी मेरे मन में वहीं से शुरू हुआ. बाद में मोरारजी देसाई आजादी की लड़ाई में कूद पड़े, कई बार जेल गए. आजादी के पहले 1937 में गठित खेर मंत्रिमंडल में बंबई प्रांत के राजस्व मंत्री बने. 1946 में गठित सरकार में भी मंत्री बने. बाद में देसाई बंबई के मुख्य मंत्री बने. तब गुजरात भी बंबई प्रांत में शामिल था. बाद में वे केंद्र में मंत्री, उप प्रधान मंत्री और बाद में 1977 में गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधान मंत्री बने. उनका जन्म 29 फरवरी 1896 को हुआ. उनका निधन 10 अप्रैल 1995 को हुआ. अंग्रेजी कलेंडर को ध्यान में रखें तो उनका जन्म दिन हर चार साल पर मनाया जाता है. यह भी ध्यान रहे कि 2002 का गोधरा कांड 27 फरवरी को हुआ था. प्रधान मंत्री बनने से पहले और बाद में भी मोरारजी देसाई एक सत्यनिष्ठ और कर्तव्यनिष्ठ नेता के रूप में जाने जाते रहे. आम धारणा रही कि उन्होंने गद्दी के लिए कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया.
मर्यादा बचा ली , भले सरकार चली गई
1979 की बात है. मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार गिर रही थी. उसे बचाने की कुछ नेता कोशिश भी कर रहे थे. इसके लिए कुछ कांग्रेसी सांसद मोरारजी से सौदेबाजी करना चाहते थे. मोरारजी देसाई ने सांसदों को खरीदने से तब किस तरह साफ मना कर दिया था,उसका आंखों देखा हाल पटना के एक बुजुर्ग नेता ने बाद में बताया था.
उत्तर प्रदेश से विजयी एक कांग्रेसी सांसद, जो एक राज घराने से आते थे,तीस -चालीस कांग्रेसी तथा कुछ अन्य दलों के सांसदों को सदन में शक्ति परीक्षा से पहले मोरारजी देसाई से मिलवाना चाहते थे. उस सांसद से बिहार के कुछ जनता सांसद मोरार जी के पक्ष में पहले ही बातचीत कर चुके थे. इस संबंध में बातचीत करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण जनता सांसद उनके प्रधान मंत्री पद से इस्तीफे के एक दिन पहले मोरारजी के सरकारी आवास पर गए.पर, तब तक रात के नौ बज चुके थे. मोरारजी देसाई सोने चले गए थे. वे रात में नौ बजे जरूर सो जाते थे. वे सुबह जल्दी जगते थे. इस रूटीन में कोई व्यवधान उन्हें कत्तई मंजूर ही नहीं था,चाहे कुछ भी हो जाए. सांसदों ने उन्हें विशेष परिस्थिति में जगा देने के लिए उनके पुत्र कांति देसाई से कहा. कांति ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया।फिर उनके सचिव को इस काम में लगाया गया. सचिव ने हिम्मत करके दरवाजे पर हल्की दस्तक दी, पर भीतर से कोई आवाज नहीं आई तो उन्होंने भी अपनी कोशिश छोड़ दी. इस बीच वरिष्ठ जनता सांसदों ने कांति देसाई से कहा कि जो सांसद सरकार बचाने के लिए सामने आना चाहते हैं,वे उसकी कुछ कीमत भी मांग रहे हैं.
कांति ने कहा कि कीमत दी जा सकती है ,पर इसके लिए पिता जी की अनुमति चाहिए. दूसरे दिन जब सुबह मोरारजी को बताया गया तो उन्होंने ऐसी सौदेबाजी करके सरकार बचाने से साफ मना कर दिया. इस तरह मोरारजी ने मर्यादा बचा ली भले उनकी सरकार चली गई.
Rani Sahu
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