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फिल्मकार अल्फ्रेड हिचकॉक की मृत्यु को लगभग 50 वर्ष हो रहे हैं परंतु उनकी फिल्में आज भी देखी जा रही हैं
जयप्रकाश चौकसे का कॉलम:
फिल्मकार अल्फ्रेड हिचकॉक की मृत्यु को लगभग 50 वर्ष हो रहे हैं परंतु उनकी फिल्में आज भी देखी जा रही हैं और उन पर शोध भी हो रहा है। ज्ञातव्य है कि हिचकॉक ने रहस्य और आश्चर्य के अंतर को अपनी फिल्मों में रेखांकित किया है। आश्चर्य के भाव में दर्शक को वह बात मालूम है जो पात्र नहीं जानता और रहस्य के भाव में यह समाहित है कि दर्शक कुछ नहीं जानता।
सामान्य जीवन में हम नहीं जान पाते कि आपसे बतिया रहा व्यक्ति चाहता क्या है! राजनीति में कुछ नेता अपने मंसूबे जाहिर कर देते हैं और कुछ गोपनीयता बनाए रखते हैं। नेता का मंसूबा केवल उसका एक निकटतम साथी ही जानता है। यह प्रकरण कुछ ऐसा ही है कि दर्शक नहीं जानता कि वफादार कटप्पा ने आखिर बाहुबली को क्यों मारा? दरअसल कुछ लोग सहूलियत को सिद्धांत कहकर प्रचारित करते हैं।
रेणु शर्मा लिखती हैं कि 'वो अंधेरे मेरी सहूलियत थे/ कैसे बरसी मैं उजालों में/ कौन आवाज दे रहा है मुझे/ दूर चाय के उन प्यालों से/ अब इस शहर की रोशनी मेरे किसी काम की नहीं/ आंखें छोड़ आई उसकी बंद गली में.।' अल्फ्रेड हिचकॉक की सबसे अधिक चर्चित फिल्म 'साइको' का पात्र अपनी अरसे पहले मर चुकी मां को जीवित बनाए रखने के प्रयास में दिवंगत मां के वस्त्र पहनता है और हत्याएं करता है।
गोया की हिचकॉक की फिल्म देखते समय दर्शक फिल्म द्वारा उत्पन्न डर के कारण चीख पड़ते थे। कहते हैं कि डर के समय चीखने से भय कम हो जाता है। खामोशी भय को विराट स्वरूप देती है। रामगोपाल वर्मा की दो फिल्मों के नाम ही थे 'डरना मना है' और 'डरना जरूरी है'।
हिचकॉक की फिल्म 'डायल एम फॉर मर्डर' से प्रेरित मुकुल आनंद की डिंपल कपाड़िया और राज बब्बर अभिनीत फिल्म 'ऐतबार' का गीत अत्यंत लोकप्रिय हुआ था। गोया की हमारी रहस्यमय, रोमांचक फिल्मों में गीत भी होते हैं। 'ऐतबार' का वह गीत है 'किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है, कहां हो तुम कि ये दिल बेक़रार आज भी है।'
बहरहाल, हिचकॉक ने अपनी फिल्मों की सेट डिजाइनर मारिया से शादी की थी। अल्फ्रेड की कुछ लोकप्रिय फिल्में 'रिबेका' 'साइको', 'रियर विंडो', '39 स्टेट्स' इत्यादि हैं। ज्ञातव्य है कि विदेशी फिल्में 70 या 80 मिनट तक ही चलती हैं और मध्यांतर केवल भारत में ही होता है। मध्यांतर में किए गए नाश्ते की कमाई प्रदर्शन विभाग को बनाए रखे हुए है।
हिचकॉक के रहस्य-रोमांच की फिल्मों में कत्ल को भी ऐसे दिखाया गया है कि वह वीभत्स न लगे। यहां तक की मृतक की देह तक नहीं दिखाई जाती, क्योंकि उन्हें वीभत्सता पसंद नहीं थी। यह विचारणीय है कि दर्शक डरने के लिए पैसा खर्च करके रहस्य-रोमांच की फिल्म क्यों देखता है? क्या सर्वत्र व्याप्त डर के वातावरण में इन फिल्मों भावों का विरेचन होता है? क्या हम अपने आपको उस पल के लिए तैयार कर रहे हैं, जब मनुष्य सभी सतहों के परे चला जाता है? बुझती हुई चिता भी कुछ प्रकाश देती है। याद आती है दुष्यंत कुमार की पंक्तियां, 'देखिए उस तरफ़ उजाला है, जिस तरफ़ रोशनी नहीं जाती।'
हिचकॉक की फिल्म 'बर्ड्स' में अन्याय भुगतने वाला व्यक्ति परिंदों को आक्रामक बनाता है। वह किसी बहाने अत्याचारी को पक्षियों के कक्ष में बंद कर देता है। आक्रामक प्रशिक्षित परिंदे ही उसका काम तमाम कर देते हैं। अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्में बदला लेने की फिल्में नहीं हैं, परंतु जिस पात्र का कत्ल होता है, उसने कहीं कुछ अन्याय किया होता है और ऊपर वाला हिसाब बराबर कर देता है।
डिवाइन जस्टिस का आदर्श उस अवधारणा के अभिव्यक्त होते ही भंग कर दिया गया। इसी विचार को साहिर लुधियानवी ने रमेश सहगल की फिल्म 'फिर सुबह होगी' में प्रस्तुत किया था, 'आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम, आजकल वो इस तरफ देखता है कम।'
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