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60 साल बाद पूरी हुई स्वतंत्रता की वह जंग
मोहन सिंह। गोवा मुक्ति आंदोलन के 75 साल और गोवा की आजादी के साठ साल पूरा होने के अवसर पर मडगांव में दो दिवसीय राष्ट्रीय विचार मंथन का आयोजन डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन दिल्ली की ओर से किया गया। इस आयोजन में स्थानीय स्तर पर कोंकण भाषा मंडल और रवींद्र भवन, मडगांव का भी सहयोग रहा।
इस अवसर पर गोवा मुक्ति आंदोलन से जुड़े स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिजनों को लोहिया रत्न और लोहिया स्मृति सम्मान से डॉ. राम मनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन की ओर से सम्मानित किया गया। कोंकणी साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार श्री दत्ता डी नाईक के बीज वक्तव्य के अलावा कुल पांच सत्रों में गोवा मुक्ति आंदोलन में डॉ. राम मनोहर के योगदान विषय पर पूरे देश से आए प्रतिनिधियों ने दो- दिनी राष्ट्रीय विचार मंथन में खुले मन से गहन विचार-विमर्श किया।
उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि गोवा के महामहिम राज्यपाल पी.एस श्रीधरन पिल्लई ने बताया कि इस समारोह में आकर उन्हें इस लिए विशेष खुशी हो रही है कि उनके पिता राममनोहर लोहिया की समाजवादी पार्टी से जुड़े रहे हैं। शायद इस जुड़ाव की वजह से ही महामहिम राज्यपाल ने इस सम्मेलन को सद्भाव स्वरूप दस हजार रुपये की सहयोग राशि प्रदान किया। विशिष्ट अतिथि मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और नेता प्रतिपक्ष दिगम्बर कामथ की एक मंच पर मौजूदगी कई मायने में खास रही।
एक तो इस अर्थ में कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने गोवा की आजादी में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार किया। दूसरा यह कि लोहिया की गैर कांग्रेसवाद की राजनीति चलाने के बावजूद दिगम्बर कामथ ने गोवा की आजादी में लोहिया के योगदान पर आयोजित राष्ट्रीय विचार मंथन में शामिल होने में परहेज नहीं किया।
गोवा में इस आयोजन से न सिर्फ डॉ.राममनोहर लोहिया की स्वीकार्यता बढ़ी है, बल्कि दिगम्बर कामथ का कद भी बड़ा हो गया। दिगम्बर कामथ और विधायक विजय सर देसाई के संयुक्त प्रयास और गोवा के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल विशेष सहयोग से लोहिया मैदान का पुनरुद्धार और 'ओपन स्टेडियम' का निर्माण सम्भव हुआ।
18 जून 1946 को इस मैदान से ही डॉ राममनोहर लोहिया ने गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्ति की जो अलख जगाई, वह 19 दिसम्बर 1961 को भारतीय सैन्य करवाई के बाद सफलता के मंजिल तक पहुंची।
डॉ.राममनोहर लोहिया के आह्वान पर सन् 1955 में गोवा की आजादी के लिए पूरे भारत से आए लोगों ने महाराष्ट्र के पत्रादेवी इलाके से गोवा की सीमा में प्रवेश किया। आंदोलनकारियों को रोकने के लिए पुलिस ने जबरदस्त गोलाबारी किया, जिसमें 22 लोगों की शाहदत हुई। नतीजतन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री कृष्णमेनन को सैन्य करवाई के लिए विवश होना पड़ा। गोवा की आजादी के लिए किए जा रहे संघर्ष को जवाहरलाल नेहरू एक मामूली मसला मानते थे।
उन्होंने दावा भी किया कि देश की आजादी हासिल होने के बाद इस मामले को 'गाल पर उग आये फुंसी की तरह मसल दिया जाएगा। पर गोवा की आजादी इस अर्थ में भी खास है कि इसे भारतीय सैनिक बल से हासिल किया गया। उस वक्त, जब पुर्तगाल 'नाटो'(नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) का सदस्य बन चुका था। अमेरिका के नेतृत्व में 4 अप्रैल 1949 को बने, इस संगठन का घोषित उद्देश्य सामूहिक सुरक्षा तो थी ही- सदस्य देशों पर अगर कोई बाहरी देश (गोवा में सैन्य हस्तक्षेप के मामले में भारत) हमला करे तो एक-दूसरे को आपसी सहयोग के लिए सहमत होना भी था।
ऐसा नहीं है कि भारत सरकार तब 'नाटो' की सैन्य ताकत से अनजान हो, अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसी रणनीतिक चूक करने पर तुली हो कि 'नाटो' को हस्तक्षेप करने का कोई बहाना मिल जाय। क्या उस वक्त यह भी एक बड़ी वजह थी कि देश की आजादी के चौदह साल बाद गोवा को आजादी मिली? गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने अपने उद्घाटन भाषण में ही इस सवाल को उठाया कि इस तथ्य पर इस राष्ट्रीय विचार मंथन में जरूर विचार होना चाहिए।
आखिर गोवा को अपनी आजादी के लिए चौदह साल तक क्यों इंतजार करना पड़ा? कहना न होगा कि यह महत्वपूर्ण सवाल तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति और औपनिवेशिक राजनीति से जुड़ा मसला था, जिस पर इस राष्ट्रीय विचार मंथन में उतनी गंभीरता से चर्चा नहीं हुई, जितनी होना चाहिए थी। बाकि हर सत्र वक्ताओं की उत्कृष्ट तैयारी और गंभीर चर्चा के लिहाज से शानदार रहा- जिसे पूरे देश से आए, लोहिया के विचारों को मानने वालों ने भी महसूस किया।
बता दें कि सन् 1510 अल्बुकर्क के नेतृत्व में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपनी हुकूमत कायम की। 19 दिसम्बर सन् 1961 को चार सौ इक्यावन साल बाद, गोवा पुर्तगाली शासन से आजाद हुआ। एक मायने में गोवा भारत में सबसे पहले किसी यूरोपीय उपनिवेश के अधीन हुआ और सबसे बाद में आजाद हुआ। यही नहीं गोवा एशिया में यूरोप का पहला केंद्र भी बना। इस ऐतिहासिक आजादी को यादगार बनाने के लिए गोवा सरकार 19 दिसम्बर 2021 को नव निर्मित लोहिया स्टेडियम को प्रदेश को सौंपने का फैसला किया है। दो करोड़ की लागत से निर्मित इस स्टेडियम में दो हजार लोगों की बैठने की व्यवस्था होगी।
उद्घाटन सत्र के बाद अपने बीज वक्तव्य में श्री दत्ता डी नाईक ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाएं, जिस पर आगे के सत्र में चर्चा हुई। पहला यह कि दूसरे विश्व युद्ध में फासीवाद का खतरा अगर जर्मनी से ज्यादा था, तो अमेरिका ने जापान पर परमाणु बम से हमला क्यों किया? डॉ.राममनोहर लोहिया को एक सीमा से बाहर जाकर जवाहरलाल नेहरू का इतना विरोध नहीं करना चाहिए, जितना उन्होंने किया। नर-नारी समानता की बात करने वाले लोहिया ने किस वजह से इंदिरा गांधी को 'गूंगी गुड़िया' जैसे उपाधि से नवाजा?
ऐसी अपमानजनक टिप्पणी लोहिया के राजनीतिक कद को छोटा ही करती है। इन सवालों का जवाब देते हुए समाजवादी विचारक विजय नारायण बताते हैं कि " जर्मनी के बजाय जापान पर परमाणु गिराए जाने की वजह लोहिया की यह मान्यता है कि ऐसा अमरीका ने अपनी रंगभेदी नीति की वजह से किया।" जवाहरलाल नेहरू की नीतियों का एक सीमा के हद तक जाकर विरोध करने की भी कई वजहें थी- इनमें सन् 1962 में चीन से भारत की हार, तिब्बत का सवाल और जम्मू कश्मीर का मुद्दा भी प्रमुख था।
गांधी जी भी नहीं चाहते थे कि जम्मू कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाया जाए। गांधी जी की स्पष्ट मान्यता है कि वहां इस पेचीदा मामले पर फैसला न्याय के आधार पर नहीं, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से ही तय होगा। वैसे भी लोहिया की कुल राजनीति कम्युनिस्ट, सोवियत संघ, कांग्रेस और नेहरू के विरोध पर ही टिकी थी।
सन् 1967 तक आते-आते वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि कांग्रेस को हराने के लिए अगर 'काला चोर' से भी समझौता करना पड़े, तो उन्हें कोई गुरेज नहीं।
अपनी इस रणनीति के तहत ही वे कम्युनिस्ट-जनसंघ जैसे घोर विरोधी राजनीतिक दलों को भी एक साथ साध सके। इस वजह से पश्चिम बंगाल समेत कई हिंदी भाषी राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। उसके बाद भी लोहिया की नीतियों का हिंदी भाषी राज्यों की राजनीति पर खासा असर पड़ा।
इस तथ्य को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक गांधी, अम्बेडकर और लोहिया:भारतीय इतिहास की समस्याएं में कहते हैं कि- नब्बे के दशक की राजनीति पर जितना असर राम मनोहर लोहिया की नीतियों का पड़ा, उतना असर गांधी और अम्बेडकर दोनों का भी नहीं पड़ा।
गोवा मुक्ति आंदोलन में महिलाओं की भूमिका वाले सत्र में सुशीला ताई पड़ियार (जो आजाद गोमांतक दल से जुड़ी थी) शारदा सावलेकर और डॉ.रत्ना खवांटे नाईक ने गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान पुर्तगाली पुलिस द्वारा सड़क और जेल में महिलाओं पर किए जा रहे जोर-जुल्म की कथा-व्यथा को विस्तार से बताया। सुशीला ताई को जेल में जिस वक्त लाठियों से पिटाई हुई, उस वक्त उनकी उम्र 18 साल थी।
शारदा ताई 17 साल की थी। महज 9 साल की वात्सल्या कृतनी को इस लिए जेल में डाल दिया गया कि उसने क्यों कि उसने पुलिस के सामने 'जय हिंद' का नारा लगाने की हिम्मत किया।
इन महिलाओं ने स्वीकार किया कि वे पुर्तगाली सत्ता के प्रतिरोध के लिए डॉ.लोहिया के बताए सत्याग्रह की तरकीब को अपनाते हुए आगे बढ़ रही थीं। इस वजह से ही हम निर्भय हुए और पुर्तगाली सत्ता के जोर-जुल्म के विरोध में सड़क पर उतरे और जेल भी गये।
अगले सत्र में लोहिया की भाषा नीति पर गम्भीर चर्चा हुई। बिहार से आए समाजवादी नेता उमेश सिंह ने बताया कि राममनोहर लोहिया हमेशा अंग्रेजी के बजाय जन से जुड़ी भाषा बोलने और लिखने के हिमायती थे। जन से जुड़ी भाषा जनपदीय बोलियों से रस ग्रहण और समृद्ध भी होती है।
समाजवादी विचारक विजय नारायण ने एंडरसन की पुस्तक 'इंग्लिश इम्परलिज्म' के हवाले से कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व कायम है। इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए दत्ता बी नाईक ने कहा कि भाषा मामले में राजनेताओं में सबसे स्पष्ट नीति डॉ राम मनोहर लोहिया की थी।
अंग्रेजी के पंडित डॉ.लोहिया के अंग्रेजी विरोध का मतलब हिंदी के वर्चस्व को स्थापित करना नहीं था। वे निश्चय ही भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दिए जाने के पक्षधर थे। डॉक्टर भूषण भावे ने भी भाषा से जुड़े कई बिंदुओं पर विस्तार से अपनी बात रखी। इस सत्र के 'मॉडरेटर' सर्व श्री दामोदर भाई ने अपनी शिकायत दर्ज कराते हुए कहा कि- कहीं ऐसा न हो कि अंग्रेजी की तरह हिंदी भी वर्चस्व की भाषा बन जाए।
उनका सुझाव है कि उत्तर भारत से दक्षिण भारत में नौकरी के लिए जाने हर शख़्स के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे दक्षिण की कोई भाषा जरूर सीखे। सत्र के सभी सहभागियों की राय थी कि कोंकणी-मराठी विवाद का समाधान करते हुए डॉ.लोहिया पहले ही इस निष्कर्ष पर चुके थे कि आजाद गोवा की भाषा कोंकणी होगी।
वे मानते हैं कि पूरी दुनिया में शायद ही कोई भाषा कोंकणी से मधुर हो। आज कोंकणी भाषा भले संविधान के 8 आठवीं अनुसूची में शामिल है, पर गोवा में व्यापक स्तर पर कोंकणी प्रार्थमिक शिक्षा का माध्यम नहीं बन पाई है।
वक्ताओं ने इस बात को भी 'नोटिस' किया कि विभिन्न प्रान्तों में कन्नड़-पंजाबी-बांग्ला भाषा के अस्तित्व को बचाने के लिए जो आंदोलन चल रहे हैं- वे हिंदी भाषा के विरोध में नहीं आर्थिक गैर बराबरी और बेरोजगारी से पैदा हो रहे हैं, और खतरनाक रूप से स्थानीय बनाम बाहरी अस्मिता से भी जुड़ रहे हैं।
इस चर्चा के साथ ही पहले दिन का सत्र पूरा हुआ। इसके पहले गोवा की आजादी पर पंद्रह मिनट की एक लघु फिल्म और एक नाटक की शानदार प्रस्तुति हुई। इस अवसर पर गोवा सत्याग्रह से जुड़ी एक फोटो प्रदर्शनी का भी आयोजन हुआ।
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