सम्पादकीय

वैश्विक रैंकिंग और हम: क्या भारत का कद छोटा करने की होती है साजिश?

Neha Dani
14 Jun 2022 1:42 AM GMT
वैश्विक रैंकिंग और हम: क्या भारत का कद छोटा करने की होती है साजिश?
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अच्छे कामकाज से सीखना चाहिए। एक राष्ट्र के रूप में अपनी ताकत, कमजोरियों, अवसरों और खतरों का निष्पक्ष मूल्यांकन करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

भारत का वैश्विक रैंकिंग के साथ प्रेम-घृणा का रिश्ता है। जब ऐसी रैंकिंग भारत के अनुकूल होती है, तब हममें से कई लोग वाजिब ही उत्साहित होते हैं, लेकिन जब ऐसी कोई रैंकिंग हमारी खराब छवि दिखाती है या हमारे अनुकूल नहीं होती, तब हम गुस्से में उस पर हमलावर हो जाते हैं। कुछ लोग तो ऐसी रैंकिंग को भारत की छवि धूमिल करने की साजिश भी मानने लगते हैं। वैश्विक सूचकांकों पर हमारी चरम प्रतिक्रियाएं अक्सर आत्मनिरीक्षण और अन्य देशों के संदर्भ में विभिन्न क्षेत्रों में हमारे प्रदर्शन के आकलन में बाधक बनती हैं।

व्यक्तिगत रूप से मुझे नहीं लगता कि वैश्विक रैंकिंग के जरिये भारत के कद को छोटा करने की साजिश की जाती है, क्योंकि दुनिया भर के सभी देशों का हर क्षेत्र में मूल्यांकन करने वाली कोई एक एजेंसी नहीं है। न ही कोई एक पद्धति या मानक धारणा है। अलग-अलग एजेंसियां वैश्विक रैंकिंग का काम करती हैं। किसी भी वैश्विक सर्वेक्षण में किसी देश के बारे में विशिष्ट निष्कर्ष पर आने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कार्यप्रणाली की वैध चर्चा और आलोचना हो सकती है, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि किसी विशेष सर्वेक्षण में प्रत्येक देश का आकलन करने के लिए एक ही पद्धति का उपयोग किया जाता है।
हालिया वैश्विक रैंकिंग को ही लें, जो इन दिनों खबरों में है। बंगलूरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) 31 स्थानों की छलांग के साथ क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग, 2023 में सर्वोच्च रैंक वाले भारतीय संस्थान के रूप में उभरा है, जिसने आईआईटी-बॉम्बे एवं आईआईटी-दिल्ली को क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर धकेल दिया है। क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग दुनिया भर के उच्च शिक्षा संस्थानों के विश्लेषण में विशेषज्ञता वाले ब्रिटेन स्थित संगठन क्वाक्वेरेली साइमंड्स द्वारा किया जाने वाला वार्षिक प्रकाशन है। इसकी नवीनतम वैश्विक रैंकिंग में विश्व स्तर पर शीर्ष 1,000 में भारतीय संस्थानों की कुल संख्या 22 से बढ़कर 27 हो गई है।
लेकिन पर्यावरण के मोर्चे पर तस्वीर गुलाबी नहीं है। हाल ही में जारी पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई), 2022 में भारत सबसे निचले पायदान (180वें) पर है, जो पर्यावरणीय स्वास्थ्य जैसे कई संकेतकों के आधार पर देशों को सूचीबद्ध करता है। केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने देश की ईपीआई रैंकिंग को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है। सरकार का कहना है कि यह सूचकांक 'अनुमानों और अवैज्ञानिक तरीकों' पर आधारित है। मंत्रालय ने कार्यप्रणाली के संबंध में कई चिंताओं को सूचीबद्ध करते हुए एक सार्वजनिक बयान जारी किया, जैसे कि ईपीआई ने भारत के कम उत्सर्जन पर ऐतिहासिक आंकड़े को ध्यान में नहीं रखा और कैसे कुछ पर्यावरणीय संकेतकों की रैंकिंग और महत्व को बदल दिया गया। कुछ भारतीय पर्यावरणविदों ने भी ईपीआई इंडेक्स में विशिष्ट क्षेत्रों के बारे में विशिष्ट चिंताओं की ओर इशारा किया है।
ये मात्र दो उदाहरण हैं। नवीनतम ग्लोबल हंगर इंडेक्स जैसे अन्य सूचकांक भी हैं, जिसमें भारत को 116 देशों में 101वें स्थान पर रखा गया है। कई लोगों ने इसे भारत को नीचा दिखाने की कोशिश के रूप में देखा। सबसे दिलचस्प बात यह है कि भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने भी देश में पोषण की स्थिति के बारे में कई चिंताओं को चिह्नित किया। दरअसल भारत विविधताओं वाला एक विशाल देश है। इसलिए जरूरी नहीं कि वैश्विक रैंकिंग राज्यों, जिलों या शहरों/गांवों के बीच के बड़े अंतर को पकड़ ही ले। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पर्यावरण, स्वास्थ्य, पोषण, लैंगिक समानता आदि विभिन्न मोर्चों पर जमीनी स्तर पर गंभीर समस्याएं हैं। नवीनतम ग्लोबल हंगर इंडेक्स में ऐसा कुछ भी नहीं बताया गया है, जो वास्तव में नया हो।
यह कोई रहस्य नहीं है कि हाल के दशकों में भारत के विकास की कहानी भूख की पुरानी समस्या और कुपोषण के खतरनाक स्तरों के साथ सह-अस्तित्व में है। पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-20, एनएफएचएस-5) के ताजा आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि कई राज्यों में बाल कुपोषण की स्थिति बिगड़ सकती है। उपलब्ध आधिकारिक आंकड़े हमें बताते हैं कि देश के बड़े हिस्से में बाल मृत्यु दर कम हो रही है, लेकिन कई राज्यों में बच्चे अधिक कुपोषित और खून की कमी के शिकार (एनीमिक) हैं-एनएफएचएस के ताजा आंकड़ों के अनुसार, देश भर में 6-59 महीने के बीच के 67.1 फीसदी बच्चे रक्ताल्पता के शिकार हैं। वर्ष 2015-2016 में यह आंकड़ा 58.6 फीसदी था। राज्यों और जिलों में भारी असमानताएं हैं। भले ही वैश्विक सर्वेक्षण कुछ भी कहें, लेकिन यह खतरे की घंटी होनी चाहिए।
वैश्विक सर्वेक्षणों में दुनिया भर के देशों का मूल्यांकन किया जाता है। ये सिर्फ भारत पर केंद्रित नहीं होते। भारत का आकलन करने के लिए वही पद्धति अपनाई जाती है, जो अन्य देशों के लिए अपनाई जाती है। हमें यह भी समझना चाहिए कि हम दोनों तरह से नहीं सोच सकते। यदि हम अच्छे अंक वाले सूचकांक पर उत्साहित होते हैं, (जैसे, विश्व बैंक के व्यापार सुगमता सर्वेक्षण, जहां भारत 2015 के 142 वें स्थान से बढ़कर 2020 में 63वें पायदान पर पहुंच गया), तो खराब रैंक पाने पर हम यह नहीं कह सकते कि यह एक साजिश है। यदि आलोचना करनी है, तो हर तरह से किसी कार्यप्रणाली की आलोचना करनी चाहिए। लेकिन हमें आत्मनिरीक्षण भी करना चाहिए और अपनी तुलना उन लोगों से भी करनी चाहिए, जो पड़ोस में और विकासशील देशों में अन्य जगहों पर बेहतर कर रहे हैं। हमें देश के भीतर देखना चाहिए और अपनी ताकत पर ध्यान देना चाहिए, यानी कौन से राज्य विभिन्न क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। बयानबाजी से अपनी कमजोरियां छिपाने की कोशिश करने के बजाय हमें अच्छे कामकाज से सीखना चाहिए। एक राष्ट्र के रूप में अपनी ताकत, कमजोरियों, अवसरों और खतरों का निष्पक्ष मूल्यांकन करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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