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भारत के माध्यम से विश्व के कल्याण हेतु सर्वथा सार्थक होगी, और इसी के माध्यम से देश के बहुसंख्यक किसानों के भी भाग्य जागेंगे।
जब रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था, तब उस खाद्य संपन्न क्षेत्र से संसार में आने वाली सबसे घनघोर त्रासदी का किसी को पूर्वानुमान नहीं था। गेहूं, मक्का, सोया, सूरजमुखी और जौ के वैश्विक निर्यात का एक बड़ा प्रतिशत उस क्षेत्र से आता है। आयात पर निर्भर बहुत सारे विकासशील देश दोनों युद्धरत देशों के मुख्य निर्यात बाजार हैं। युद्ध के कारण आज दुनिया के कई आयात-निर्भर विकासशील देशों में खाद्य की कीमत इतनी बढ़ गई है कि लोग और सरकारों के पैर उखड़ने लगे हैं। उनके खाद्य भंडार भी खत्म होने लगे हैं और अकाल अपना डेरा जमाने लगा है।
यह युद्ध इस दृष्टि से अलग है कि खाद्य की कमी, गरीबी और भूख का प्रभाव युद्ध क्षेत्र की तुलना में शेष दुनिया में अधिक होने वाला है। इन दोनों देशों में खाद्य उत्पादन में वृद्धि प्रभावशाली रही है, इसलिए खाद्य आयात-निर्भर देशों को अभी तक खाद्य संकट का सामना नहीं करना पड़ा। सूखा और जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की पैदावार में कमी ने विकासशील देशों में भूख और अकाल की आशंकाएं तेज कर दी हैं। रूसी आक्रमण से कितनी ही जानें चली गई हैं, कितनी ही जानें और जाएंगी; इसके अलावा भी असंख्य लोग चुपचाप अकाल की भेंट चढ़ जाएंगे।
इतिहास ने दिखाया है कि जनता को खिलाने की क्षमता से समझौता करना असहनीय आक्रोश को जन्म देता है। विकासशील देशों का क्या होगा, जहां खाद्य कीमत कई गुना बढ़ गई है और बढ़ती ही जा रही है तथा जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं बहुत बड़ी आबादी की पहुंच से बाहर हो रही हैं? क्या यह आबादी रूसी आक्रमण को दोष देगी? श्रीलंका में लोग सड़कों पर पुतिन का नाम लेकर नहीं निकल रहे। भुखमरी युद्ध का सबसे क्रूर हथियार है। हमारी जीवित स्मृति में पश्चिमी अफ्रीका का बियाफ्रा संभवतः इसका सबसे गंभीर उदाहरण है। नाइजीरिया से अलग हुआ बियाफ्रा 1967 से 1970 के बीच एक स्वतंत्र राष्ट्र था। नाइजीरिया के गृहयुद्ध में, जिसे नाइजीरिया-बियाफ्रा युद्ध भी कहा जाता है, बियाफ्रा के 20 लाख से अधिक लोग, जिनमें तीन-चौथाई बच्चे थे, भूख से मर गए थे, क्योंकि नाइजीरिया ने नाकेबंदी कर बियाफ्रा के लोगों के बीच खाद्यान्न का वितरण रोक दिया था। संयुक्त राष्ट्र के नए आंकड़े से पता चलता है कि कुपोषण से पीड़ित दुनिया के 81.5 करोड़ लोगों में 60 फीसदी युद्ध क्षेत्रों में रहते हैं। यमन, इथियोपिया, श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे युद्ध और आतंकवाद से जूझते देश आज 'भूख के हॉटस्पॉट' के रूप में उभर रहे हैं।
बियाफ्रा से भी पहले 1932-33 में पूर्व सोवियत संघ के राज्य यूक्रेन के लोगों के खिलाफ भुखमरी का प्रयोग किया गया था, जिसमें 70 लाख से एक करोड़ के बीच लोग मारे गए थे। यूक्रेन में उसे 'होलोडोमोर' कहा गया, जिसका अर्थ है, भूख से मारना। स्टालिन ने यूक्रेनियों के स्वतंत्रता-प्रेम की भावना को कुचलने के लिए वह कदम उठाया था। 90 वर्ष बाद यूक्रेन में होलोडोमोर एक बार फिर सिर उठा रहा है, और इस बार इसके लिए पुतिन जिम्मेदार हैं। वर्ष 2022-23 की विश्वव्यापी घटनाओं से यह सिद्ध हो जाएगा कि अब खाद्य समृद्धि के युग का अंत हो गया है। विश्व खाद्य सुरक्षा पर लगे युद्ध, संघर्ष और मजहबी आतंकवाद के ग्रहण से नई चुनौतियां भी उभर रही हैं, जो कृषि और खाद्य उत्पादन की सार्वजनिक धारणाओं को प्रभावित कर रही हैं। कोई भी त्रासदी इतिहास को एक नया मोड़ दे जाती है। जब कोई राष्ट्र अकाल या खाद्य संकट से उबरता है, तो वह सर्वप्रथम अपनी खाद्य उत्पादन व्यवस्था को सुदृढ़ करता है, नीतियों में परिवर्तन करता है और अपने लोगों में नवीन आशाओं का संचार करता है। जिन राष्ट्रों का पेट भरा होता है, वे यथास्थितिवाद से जकड़े रहते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उन्नत प्रौद्योगिकियों के माध्यम से अमेरिका और यूरोप में कृषि उपज में विस्फोट हुआ। युद्ध और भूख की त्रासदी वर्षों तक झेल चुके राष्ट्रों का मूल मंत्र था, 'शांति के लिए भोजन।'
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद खाद्य-संपन्नता के शिखर पर पहुंचे देशों को अब खाद्य विपन्नता का डर सता रहा है और अकाल की भावी त्रासदी को सूंघते हुए वे अब यथास्थितिवाद का दामन छोड़ने लगे हैं। जिन विकसित देशों से अन्न आयात कर विकासशील राष्ट्र अपने लोगों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर पाते थे, वे अब भारत की ओर हाथ फैलाते दिख रहे हैं। पूरा यूरोप आस लगाए बैठा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते वह भारत से गेहूं आयात करेगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) स्वयं भारत से भुखमरी के कगार पर खड़े देशों को अनाज भेजने की प्रार्थना कर रहा है। अमेरिका और जर्मनी भी भारत से ऐसा कह चुके हैं। विश्व समुदाय का मानना है कि भारत ही दुनिया को अकाल और भुखमरी के चंगुल से बाहर निकाल सकता है।
ऐतिहासिक रूप से, कृषि उपज में वृद्धि मुख्य रूप से पादप प्रजनन नवाचारों से हुई है, जिसे हमने हरित क्रांति का नाम दिया है। लेकिन यह भी सच है कि हरित क्रांति ने पारिस्थितिकी विनाश और पर्यावरण प्रदूषण के रास्ते खोले हैं, और अब यह भी साबित हो गया है कि कृषि की चलताऊ प्रौद्योगिकी दुनिया को खाद्य सुरक्षा नहीं दे सकती। सरकारों, योजनाकारों, नीति निर्धारकों, कृषि वैज्ञानिकों और कृषि शिक्षकों को अक्षय कृषि विकास की नई रणनीति तैयार करनी होगी, जो जैव विविधता पर आधारित हो, पारिस्थितिकी संवर्धन में सहायक हो, पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए हितकारी हो तथा जो जलवायु परिवर्तन से पैदा हुए घाव भर सके। और एक सनातन सत्य यह है कि कृषि संस्कृति का सहस्राब्दियों पुराना गुरु भारत ऐसी कृषि रणनीतियों को मूर्त रूप देने में सक्षम है।
वर्तमान अन्न संकट से उभरे वैश्विक परिदृश्य में भारत एक विश्व-रक्षक जैसी भूमिका में उभरा है। भारत के लिए यह एक स्वर्ण अवसर है कि अपनी कृषि संस्कृति के स्वर्णिम युग से प्रेरणा लेते हुए वह मर रही कृषि प्रधानता को पुनर्जीवित करे। औद्योगिक कल्चर नहीं, बल्कि कृषि संस्कृति ही भारत के, औरभारत के माध्यम से विश्व के कल्याण हेतु सर्वथा सार्थक होगी, और इसी के माध्यम से देश के बहुसंख्यक किसानों के भी भाग्य जागेंगे।
सोर्स: अमर उजाला
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