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समय ही बताएगा कि यह क्षेत्र इस अवसर का लाभ उठाता है या नहीं।
हम दक्षिण एशियाई देशों को एकजुट करने के लिए हमेशा क्रिकेट पर भरोसा करने के बारे में सोचते हैं, भले अन्य मुद्दों पर उनके विचार अलग ही क्यों न हों। ऐसे समय में जब वैश्विक खाद्य व्यवस्था तेजी से कमजोर होती जा रही है, क्या कृषि इन देशों को एकजुट कर सकती है? पिछले हफ्ते श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और भूटान जैसे पड़ोसी देशों के कृषि मंत्रालयों के शीर्ष अधिकारी अपने भारतीय समकक्ष से इस पर विचार-विमर्श करने के लिए दिल्ली पहुंचे थे कि कैसे एक-दूसरे से सहयोग करना और सीखना बेहतर है। इसमें आभासी रूप से पाकिस्तान ने भी हिस्सा लिया था।
दक्षिण एशिया में 'विकास के लिए कृषि अनुसंधान की मजबूती' विषय पर दिल्ली में यह उच्च स्तरीय बैठक द बोरलॉग इंस्टीट्यूट फॉर साउथ एशिया (बीसा) द्वारा आयोजित इस तरह की पहली बैठक थी। कोविड, यूक्रेन में चल रहे युद्ध और जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि में होने के कारण यह बैठक अपने आप में बेहद प्रासंगिक थी। इन तीन कारणों से दुनिया में खाद्य संकट तेजी से गहरा रहा है। ग्लोबल रिपोर्ट ऑन फूड क्राइसिस, 2022 के मुताबिक, 53 देशों या क्षेत्रों के 19.3 करोड़ लोगों ने 2021 में भीषण खाद्य असुरक्षा का अनुभव किया। खाद्य संकट के लिहाज से दक्षिण एशिया बेहद संवेदनशील है। श्रीलंका में अभूतपूर्व आर्थिक संकट के बाद वहां के लाखों लोग को खाद्य संकट का सामना करना पड़ा। अब पाकिस्तान विनाशकारी बाढ़ से जूझ रहा है और उसका एक तिहाई हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत कहीं बेहतर स्थिति में है, लेकिन वैश्विक झटकों से सुरक्षित नहीं है। गेहूं निर्यात प्रतिबंधित करने के बाद भारत ने घरेलू खाद्य महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए टूटे चावल के निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया है।
यह साफ है कि सहयोग ही रास्ता है। पिछले हफ्ते दक्षिण एशिया के शीर्ष कृषि अधिकारियों की बैठक आयोजित करने वाला बीसा मैक्सिको स्थित द इंटरनेशनल मेइज ऐंड ह्वीट इंप्रूवमेंट सेंटर (सीआईएमएमवाईटी), जो दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण दो अनाज-मक्का और गेहूं पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान है, और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) का इसी तरह का सहयोगी संगठन है। सीआईएमएमवाईटी और बीसा के महानिदेशक ब्रैम गोवर्ट्स का दिल्ली में दो दिवसीय उच्च स्तरीय सम्मेलन को संबोधित करना कृषि में सहयोग के लिहाज से एक बड़ी बात है।
हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले दिवंगत नोबेल शांति पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलॉग की विरासत को मान्यता देने के लिए पांच अक्तूबर, 2011 को बीसा का गठन किया गया था। अमेरिकी वैज्ञानिक बोरलॉग ने 1944 से 1963 तक बढ़ते तापमान के अनुकूल अत्यधिक उपज क्षमता वाले गेहूं की कई क्रमिक किस्में विकसित कीं। बोरलॉग और प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर एम. एस. स्वामीनाथन के बीच साझेदारी ने 1960 के दशक में भारत में उच्च उपज देने वाले गेहूं और चावल की किस्मों का विकास किया और देश में गंभीर खाद्य संकट दूर करने में मदद की।
बीसा का गठन भारत में अनुसंधान की रणनीति बनाने के लिए किया गया था, जिससे कि कम पानी, भूमि और ऊर्जा का उपयोग करते हुए दक्षिण एशिया में खाद्य उत्पादन दोगुना करने में मदद मिले। अभी इसके लुधियाना (पंजाब), जबलपुर (मध्य प्रदेश) और समस्तीपुर (बिहार) में अनुसंधान और विकास केंद्र हैं। बीसा के प्रबंध निदेशक डॉ. अरुण कुमार जोशी कहते हैं, 'बीसा का उद्देश्य नवीनतम आनुवंशिक, डिजिटल और संसाधन प्रबंधन तकनीकों का उपयोग करना है और इसके संस्थापकों-आईसीएआर और सीआईएमएमवाईटी की इच्छा के अनुसार, क्षेत्र की कृषि और खाद्य प्रणालियों को मजबूत करने के विकासात्मक नजरिये के लिए अनुसंधान का उपयोग करना है, ताकि उत्पादकता, लचीलापन, आजीविका और पोषण सुरक्षा जैसी भविष्य की मांगें पूरी की जा सकें।'
दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देशों तक बीसा की पहुंच पहले ही अच्छे परिणाम दे चुकी है। इसके कुछ उदाहरण-लुधियाना स्थित बीसा फार्म से गेहूं की फसल को प्रभावित करने वाले पीले रतुआ के प्रतिरोध पर डाटा का उपयोग नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान द्वारा किया गया है। सीआईएमएमवाईटी के वैश्विक गेहूं कार्यक्रम की मदद से बीसा में किए गए अनाज की उपज और अन्य लक्षणों के लिए आनुवंशिक भविष्यवाणी मूल्यांकन को 2020 से पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल तक बढ़ा दिया गया है। भारत में छात्रों, वैज्ञानिकों और किसानों के लिए प्रजनन और जलवायु प्रतिरोधी प्रौद्योगिकियों पर नियमित प्रशिक्षण आयोजित किए जाते हैं। बीसा के वैज्ञानिक नेपाल में जलवायु-प्रतिरोधी प्रौद्योगिकियों पर पाठ्यक्रम आयोजित करते हैं।
गोवर्ट्स कहते हैं, 'भारत ने पिछले दशकों में गेहूं के उत्पादन में अच्छा प्रदर्शन किया है और यह क्षमता निर्माण में मदद करने की स्थिति में है। लेकिन आज खाद्यान्न सुरक्षा संकट में है। खाद्य प्रणाली को तीन सी-कोविड, कॉन्फ्लिक्ट और क्लाइमेट चेंज से खतरा है। बीसा का गठन एक दूरदर्शी कदम था। यह कृषि में नए शोध को बढ़ावा देता है और दक्षिण एशियाई देशों को कृषि मुद्दे पर जुड़ने के लिए एक मंच प्रदान करता है।' एक प्रमुख चुनौती उर्वरक की कमी है, जो यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध के चलते अगले फसल चक्र में सामने आ सकती है। यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले से ही उर्वरकों की कीमतें अधिक थीं। यूक्रेन में युद्ध ने स्थिति और बदतर बना दी, क्योंकि रूस दुनिया में नाइट्रोजन उर्वरक का सबसे बड़ा निर्यातक, पोटाशियम उर्वरक का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता और फॉस्फोरस उर्वरक का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
मौजूदा भू-राजनीतिक दौर दक्षिण एशिया और बीसा जैसी संस्थाओं को एक साथ आने और वैश्विक खाद्य संकट, जलवायु परिवर्तन की नई चुनौतियों और कृषि व्यापार में बदलती गतिशीलता से निपटने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। समय ही बताएगा कि यह क्षेत्र इस अवसर का लाभ उठाता है या नहीं।
सोर्स: अमर उजाला
Neha Dani
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