सम्पादकीय

Glacier Burst In Uttarakhand: सैलाब में छिपे 100 सवाल, क्यों हार रहा विज्ञान?

Gulabi
8 Feb 2021 11:43 AM GMT
Glacier Burst In Uttarakhand: सैलाब में छिपे 100 सवाल, क्यों हार रहा विज्ञान?
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रविवार को चमोली जिले के ऋषिगंगा में आए सैलाब ने पूरे हिमालय पर्वत पर उथल-पुथल मचा दी. लेकिन

रविवार को चमोली जिले के ऋषिगंगा (Rishiganga) में आए सैलाब ने पूरे हिमालय पर्वत पर उथल-पुथल मचा दी. लेकिन सैलाब के इतिहास पर गौर करें तो हर प्राकृतिक आपदा के बाद तीन तरह के सुर गूंजते हैं- पहला, संत समाज नैतिक मूल्यों में गिरावट को जिम्मेदार ठहराता है. दूसरा, पर्यावरणविद इस तरह के हादसे के लिए बांध बनाने जैसे प्रकृति से छेड़छाड़ के कृत्य को जिम्मेदार ठहराते हैं और तीसरा, इस तरह की आपदा के बाद विज्ञान जांच में जुट जाता है और शायद ही कभी ठोस वजह बता पाता है. हमें इस तीसरी वजह को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत है.


अब सवाल है कि चमोली की आपदा (Chamoli Glacier Burst) के पीछे वजह क्या है? चमोली जिले की नीति घाटी में आई भयावह आपदा को लेकर वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने हिमस्खलन को जिम्मेदार ठहराया है. वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि रैणी क्षेत्र में हिमस्खलन से ग्लेशियर टूटे होंगे और इससे ऋषिगंगा में सैलाब आया होगा. लेकिन इसकी असली वजह विस्तृत वैज्ञानिक जांच के ही बाद पता चलेगी. दरअसल, हिमालय की घटनाएं इस अंतिम लाइन तक ही पहुंच पाती हैं, जो कहती हैं कि असली वजह जांच के बाद ही पता चलेगा और इसी से एहसास होता है कि हिमालय के आगे हमारा विज्ञान हार रहा है, जो बेहद चिंताजनक है.

नीति घाटी में आए सैलाब के बाद वैज्ञानिकों की एक टीम आपदा केंद्र के लिए रवाना हो गई, लेकिन इस टीम से हमें क्या हासिल होगा. ये आपदा के बाद अंतरिक्ष उपयोग केंद्र की तरफ से आए एक बयान ने जाहिर कर दिया. यह केंद्र हिमाच्छादित क्षेत्रों, ग्लेशियर और नदियों पर सैटेलाइट से नियमित नजर रखता है. इसके अलावा यह लगातार उनकी मैपिंग भी करता है. इसी डाटा के आधार पर अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के निदेशक प्रो. एमपीएस बिष्ट ने बयान दिया कि 30 जनवरी को नीति घाटी के डाटा का रिव्यू किया गया था और उसमें सात दिन के अंदर तक किसी झील के बनने की पुष्टि नहीं हुई है.

यानी सैटेलाइट ने आपदा के उद्गम स्थल पर पानी देखा ही नहीं और मौसम विभाग ने किसी विकट मौसम की चेतावनी जारी ही नहीं की. तो ऐसे में सवाल उठता है कि ऋषिगंगा में टनों पानी का भंडार आया कहां से, जो सैलाब बनकर पूरी घाटी को बहा ले गया.

केदार घाटी में छिपे हैं सारे जवाब!

चमोली में रविवार को आए इस सैलाब से आठ साल पहले केदार घाटी में आए सैलाब की ओर चलते हैं. जिस सैलाब की भयावहता इससे सैकड़ों गुना ज्यादा थीं. केदारनाथ धाम में आए सैलाब के पीछे विज्ञान ने ये तत्काल बता दिया कि कैसे लेक के टूटने से सैलाब आया. लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं मिल सका कि ये आपदा क्यों आई और क्या हम समय रहते प्रकृति को पढ़ सकते थे? प्रकृति के रौद्र रूप से खुद को बचा सकते थे? 2013 में छूट गए इस सवाल को 8 साल की लंबी रिसर्च से समझना होगा.

केदार घाटी के डराने वाले वो तीन दिन

वो 2013 का जून का महीना था, लेकिन उस साल मानसून का व्यवहार जाना पहचाना नहीं था. अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में बने दो मानसून समय से पहले सक्रिय होते देखे गए. और मौसम विभाग ने खुशखबरी जारी कर दी कि इस बार बारिश तय वक्त से पहले होगी.

मौसम विभाग मानसून पर नजरें जमाए रहा.. लेकिन बादलों ने विज्ञान को गच्चा दे दिया.. बंगाल की खाड़ी से उठे जिन बादलों ने 14 जून को पूर्वी भारत में दस्तक दी थी.. वो अचानक ही सुस्त पड़ गए और फिर जाने ऐसा क्या हुआ कि अगले ही दिन 15 जून को हजारों किलोमीटर दूर उत्तर भारत तक आ पहुंचे.. कुछ ऐसा ही हुआ अरब सागर से उठे मानसून के साथ. जिन बादलों ने हिमालय का रुख किया. और दो विपरीत मानसून एक दूसरे से जा टकराए.

महीना जून का था जब चारधाम की यात्रा आधी बीत चुकी होती है और केदारनाथ, बद्रीनाथ से लेकर यमुनोत्री, गंगोत्री में पैर रखने तक की जगह नहीं थी. हालात ये थे कि जितने लोग चारधाम में जमा थे, उससे ज्यादा रास्ते में फंसे थे. प्रशासन ने लोगों को धाम पहुंचने से रोक रखा था. श्रद्धालुओं के बाहर निकलने का इंतजार हो रहा था. इसी बीच बादलों ने हिमालय को ढंकना शुरू किया. पहले लोगों को ये बादल राहत के बादल लगे थे, मौसम खुशगवार होता लगा था, लेकिन कुछ ही देर में बादलों ने डराना शुरू कर दिया.

उस साल 16 से 18 जून के बीच उत्तराखंड में मानसून अलग ही रंग में था. तीन दिन तक मूसलाधार बारिश होती रही. कुछ जगहों पर बादल फटने की घटनाएं भी सामने आईं, लेकिन उनकी पुष्टि नहीं हुई. मौसम विभाग के मुताबिक, 16 जून को देहरादून में 220 मिलीमीटर बारिश हुई थी और 17 जून को 370 मिलीमीटर, हरिद्वार में 16 को 107 और 17 को 218 मिलीमीटर बारिश हुई थी, उत्तरकाशी में 107 और 207 मिलीमीटर बारिश हुई थी, जबकि 2,000 मीटर ऊपर मुक्तेश्वर में 237 और 183 मिलीमीटर बारिश हुई थी.

तीन दिन के अंदर की इस बारिश का इशारा साफ था लेकिन हिमालय की चोटियों पर क्या हुआ होगा, ये कोई नहीं जानता. 3000 मीटर से ऊपर केदारनाथ, बद्रीनाथ और गंगोत्री में कितनी बारिश हुई होगी, ये कोई नहीं जानता था. क्योंकि आईएमडी के मौसम मापने वाले मीटर, दो हजार मीटर से नीचे ही लगे हैं.

क्या हुआ था केदारनाथ में?

सैटेलाइट तस्वीरों में देखा गया कि केदारनाथ से ऊपर पंद्रह मीटर गहरा चोराबारी लेक है. जिस लेक के ठीक नाक के नीचे केदारनाथ का मंदिर है और उस साल चोराबारी लेक बहुत ही खतरनाक हो चुका था. भारी बर्फबारी से लेक के आसपास की चोटियां ढंकी हुई थीं. और माना जाता है कि उस बर्फ पर जब बारिश की गर्म बूंदें पड़ने लगीं तो हिमालय का बर्फ पिघलने लगा.

वैसे, चोराबारी ताल में पहले से पानी भरा हुआ था और उसमें ऊपर से बारिश का पानी भरने लगा तो साथ में बारिश से बर्फ पिघलकर लेक में पहुंचा. इन्हीं हालात में चोराबारी लेक से सैलाब निकला और चश्मदीदों के मुताबिक पानी की वो दीवार पूरी केदारघाटी को बहा ले गई. रास्ते में पड़ने वाले रामबाड़ा को पूरी तरह से तहस नहस कर दिया.

इस सैलाब के बाद विज्ञान दो वजहों से हैरान हुआ. हैरानी की बात ये थी- पहली वजह ये कि उस दिन केदारनाथ के ऊपर आसमान से दो विपरीत दिशाओं से दो बादल क्यों टकराए थे. विपरीत दिशाओं से बादलों का टकराना नामुमकिन तो नहीं है, लेकिन आमतौर पर ऐसा होते देखा नहीं गया था. हैरानी की दूसरी वजह ये कि उस दिन महाप्रलय में भी केदारनाथ का इकलौता मंदिर बचा कैसे रह गया? हालांकि माना जाता है कि चोराबारी लेक से गिरे पानी के प्रवाह को मंदिर के ठीक पीछे की चट्टान ने दो भागों में चीर दिया था. जिसने धाम को बचा लिया लेकिन दो बादलों के टकराने की कोई ठोस वजह नहीं बता सका.

हिमालय क्षेत्र में इस तरह की आपदा को रोकने के लिए पहली कमजोरी से ही पार पाना होगा. अन्यथा आपदा का पता तब चलेगा, जब हम उसकी चपेट में आ चुके होंगे. सैटेलाइट देखती रह जाएंगी, मौसम विभाग सिर्फ घटना का पता लगा पाएगा.


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