सम्पादकीय

बेटी को जीने का अधिकार दीजिए

Gulabi Jagat
11 April 2022 5:32 AM GMT
बेटी को जीने का अधिकार दीजिए
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नवरात्र हर वर्ष आते हैं और चले जाते हैं. हर घर में माता के सभी रुपों की पूर्ण श्रद्धा से पूजा अर्चना करना ही जीवन का ध्येय रह जाता है
नवरात्र हर वर्ष आते हैं और चले जाते हैं. हर घर में माता के सभी रुपों की पूर्ण श्रद्धा से पूजा अर्चना करना ही जीवन का ध्येय रह जाता है. मां हमारे घर आयी उसकी पूजा ही हमारा धर्म है, मेरी मैया के आने से बहार आ गयी, मैया खो गया मेरा मन तेरे सुहाने रुप में, अनगिनत प्रकारों से मां के स्वरुपों की वन्दना करते हम मन के पवित्र भावों से मां के दिव्य सौन्दर्य को निहारते हैं. प्रसन्न होकर मां का स्वागत करते हैं. तन्मयता से देवी के रुपों का चिन्तन करते हैं. कन्याओं के चरण स्पर्श करते हैं. उन्हें मान-सम्मान देते हैं, पर उसी मां का प्राकट्य जब किसी परिवार में कन्या रुप में होता है तो कहीं-कहीं दर्द का पर्याय बन जाता है. कन्या का जन्म लेना अशुभ और असहनीय हो जाता है. मां की आराधना तो स्वीकार्य है पर उसका धरती पर आना और घर में जन्म लेना नागवार हो जाता है.
आज भी कुछ परिवारों में नन्ही सी बिटिया के जन्म लेते ही परिवार की खुशियां धम्म से जमीन पर गिर जाती हैं. होठों की मुस्कान गायब हो जाती है. आंखों में उदासी और मस्तक पर चिन्ता की लकीरें खिचं जाती हैं. लक्ष्मी, दुर्गा का प्रतिरुप समझी जाने वाली सबकी बेरुखी और कटाक्ष को झेलती है. निरीह सी हो जाती है. मनहूस और कलंकिनी बन जाती है. बेटे की तुलना में उसका अपमान होने लगता है. अविकसित पिछड़े वर्ग में बेटियों की इच्छाओं का, उसके भावों का कोई मोल नहीं होता उसकी शिक्षा-दीक्षा की अनिवार्यता नहीं, उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता, पराये घर की अमानत है इस गठरी के बोझ को वो आज भी झेलती है, उसकी चाहतों को दरकिनार कर दिया जाता है.
कोख में मारें या जीवन देकर इच्छाओं को खत्म करें, उसके साथ न्याय नहीं हो रहा है. कुछ घर-परिवारों में पुरुष की दमन नीति के तहत नारी का शोषण हो रहा है. वर्ष भर के कष्टों को सहकर अपनी कन्या सन्तान को स्वीकार करके भी नारी खुश रहना चाहती है, पर नहीं रह पाती. दवाब के कारण वह अपनी ही सन्तानों में भेद करने लगती है. बेटे को श्रेष्ठ और बेटी को कम आंकने लगती है. कहीं-कहीं नारी स्वयं भी अपनी ही बेटी की दुश्मन बन जाती है. इस संसार में कभी-कभी लगता है स्वार्थ के ही रिश्ते हैं. कितने ही ऐसे किस्से हैं जिन्हें सुनकर ही रुह कांप जाती है जो इन कुकृत्यों को जन्म देते हैं वो कैसे कट्टर होते होगें. खराब मानसिकता के कारण कहीं अपनी ही कन्या सन्तान को श्मशान में फेंक देते हैं, कभी कूड़े के ढेर में, कभी किसी की गाड़ी में, कभी किसी थैले में बैग में डालकर उसके पैर मोड़ कर मरने के लिए छोड़ देते हैं, जिस कारण आजीवन पैरों से लाचार होकर जिन्दगी काटनी पड़ जाती है.
कैसे निरंकुश लोग होते हैं जो अपनी सन्तान को मार डालने की ही साजिश रच लेते हैं. बेटियों को मारकर नवरात्रों में कन्याओं का पूजन करना चाहते हैं. ईश्वर की मार का भी जिन्हें डर नहीं होता, शिक्षा या समानता की बात तो बहुत दूर है पिछड़े व अशिक्षित समाज में आज भी बेटियों के प्रति उपेक्षा का भाव है उन्हें खाना देने तक में परिवार में अन्तर किया जाता है. बेटे को दूध, बादाम व बेटी को सादे खाने पर ही पाला जाता है. इन्हें कौन सी गृहस्थी की गाड़ी चलानी है, इन व्यंग्य बाणों से छलनी किया जाता है.
यद्यपि आज परिस्थितियां बदली है सुधार हुआ है. नारी को सक्षम बनाने और आगे बढ़ाने के लिए उसके अधिकारों की बात की जा रही है. वह उपेक्षित है, इसीलिए योजनाओं को चलाया जा रहा है. कभी-कभी लगता है इतना भेदभाव क्यों? इन योजनाओं की आवश्यकता ही क्यों हुई, ये योजनाएं स्वयं परिलक्षित करती हैं कि वास्तव में बेटियों के साथ अन्याय होता है. आगे बढ़ने के अवसर घर से ही प्रारम्भ होने चाहिये. माता-पिता शिक्षित हों उनके ज्ञान की भी बातें हों वे अपनी सन्तानों में अन्तर ना करें, पुत्री को पुत्र मानकर ही पालें, अधिकांशतः परिवारों पर यदि दृष्टि डालें तो जिस घर में बेटा-बेटी दोनों हैं वहां जायजाद सम्बन्धी मनमुटाव हो ही जाते हैं. पढ़े लिखे मां बाप भी अन्तर कर देते हैं. घर का मालिक बेटा ही बनता है बेटी नहीं. फिर गरीब परिवारों में तो मजबूरियां हैं वहां बेटियों को बोझ मानकर ही पाला पोसा जाता है. गरीबी जीने के सारे अधिकार छीन लेती है, इस पर बेटी का जन्म हो जाना और भी अभिशप्त है. इसीलिए कन्या सन्तान को ना स्वीकार करना उनकी मजबूरी बन जाती है. सभी परिवारों का आकलन नहीं है लेकिन फिर भी दहेज के लिए कोई बेटा नहीं जलता, बेटियां ही जलाई जाती है. गर्भ में बेटियां ही मरती हैं, बेटे नहीं. विचारों से कितनी भी शक्तिशाली हों जब किसी के चक्रव्यूह में फंस जाती हैं तो बेटियां कमजोर पड़ ही जाती हैं.
सहनशीलता, दृढ़इच्छा शक्ति, कार्यनिष्ठा से असम्भव को भी सम्भव बनाने वाली, पुरुष को जन्म देने वाली विश्वास के कारण पुरुष के द्वारा ही छली जाती है. उसे समर्थ बनाने वाली उसी के भावों को नहीं समझ पाती, शिकार बन जाती है. सारी बंदिशे, सारी रुकावटें, सारी अपेक्षाएं बेटियो से ही की जाती हैं. समाज की मानसिकता क्यों नहीं बदलती, आज इन सब वास्तविकताओं से परिचित हो बेटियों के पक्ष में शासन ने जो पहल उसके अधिकारों के लिए की है वो हर उस घर में पहुंचनी सुनिश्चित हो जहां ज्ञान का उजाला नहीं है, जहां भेदभाव की दीवार खड़ी है, जहां बेटियां दीन-हीन हालत में दरवाजे से झांकती हैं, जहां उनकी आंखों में दबे आंसू बहने के लिए आकुल है, जहां आज भी मां-बाप और समाज बेटी है इस पहचान से उसका सामना कराते हों. अशिक्षा, पिछड़ापन अज्ञान, और दयनीयता बेटियों के पक्ष में ही क्यूं हो इस हेतु सरकार की हर योजनाओं के लिए बेटियों को जागरुक होना होगा और इस विचारधारा को त्यागना होगा कि हमें मुफ्त में मिल रहा है. बेटियां इस धरती का अमूल्य खजाना है और इस अमूल्य की महत्ता को सबको समझाना होगा. बेटियां ज्ञान की प्रदीप्ति हैं इनके उजाले से घर, समाज, देश को रोशन करने की भावना सबमें होनी चाहिए. इन्हें इनके हिस्से की खुशियां दीजिए आपका जीवन खुशहाल हो जाएगा. इन्हें उड़ान दीजिए. पंख तो ये लेकर ही आती हैं. ये वो खुशहाली हैं जो परिवार को महकाती हैं. इन्हें सम्मान दीजिए,जीने के अधिकार दीजिए.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

रेखा गर्ग लेखक
समसामयिक विषयों पर लेखन. शिक्षा, साहित्य और सामाजिक मामलों में खास दिलचस्पी. कविता-कहानियां भी लिखती हैं.
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