सम्पादकीय

शहरी शिकायतों को मंच दो

Rani Sahu
2 May 2022 7:22 PM GMT
शहरी शिकायतों को मंच दो
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सुशासन में जन भागीदारी का परचम लिए जनमंच का काफिला फिर निकला और शिकायतों के टीले पर सुस्त सरकारी कार्यसंस्कृति सामने आई

सुशासन में जन भागीदारी का परचम लिए जनमंच का काफिला फिर निकला और शिकायतों के टीले पर सुस्त सरकारी कार्यसंस्कृति सामने आई। रविवार के जनमंच पर 684 शिकायतें चढ़ीं और निपटारे के आलम में आदेश, निर्देश, सहानुभूति, सहमति तथा कड़क भाषा में मंत्रियों ने अपना गुब्बार भी निकाला। जलशक्ति मंत्री महेंद्र सिंह की लताड़, पंचायत राजमंत्री वीरेंद्र कंवर की तल्ख टिप्पणी और आदेश वाक्यों में तमाम मंत्रियों ने सुनने-सुनाने की प्रक्रिया में तामझाम पूरा कर दिया। देखना यह होगा कि जन मंच आयोजनों की पवित्र धरती पर सुशासन की कितनी कोंपलें फूटीं और लताड़ते मंत्रियों से अधिकारी कितने डर गए। सुशासन के संबोधन और प्रोत्साहन अपनी रूपरेखा बनाते हैं और जनमंच एक मानिटरिंग सिस्टम की तरह पड़ताल करता रहा है, लेकिन क्या यह विश्लेषण हुआ कि किस विभाग की प्रक्रिया में शीर्षासन की जरूरत है। मोटे तौर पर राजस्व विभाग से कहीं अधिक फाइलें सामने आईं और शिकायतों का मानवीय पक्ष ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी ही हार से मुकाबिल रहा। बेशक कई जनमंचों में यह भी साबित हुआ कि राजनीतिक इच्छाशक्ति अगर सामने खड़ी हो, तो प्रशासनिक दृष्टि बदल जाती है। यह दीगर है कि जनमंच मूलरूप से ग्रामीण परिवेश की दिक्कतों का समाधान ढूंढते हुए कार्रवाई करते रहे, लेकिन शहरी जनता का सिरदर्द बनी समस्याओं के लिए भी तो ऐसा कोई मंच चाहिए।

जनमंच कोई सिद्धि भी नहीं कि हर बार दर्जन भर आयोजनों से पता चल जाए कि जनता के नसीब किसकी वजह से रूठ गए या हर गली-मोहल्ले तक प्रशासन के सुर बदल गए। मोटे तौर पर आम भारतीय अब शिकायतों के झाड़ के नीचे अपने व्यावहारिक जीवन के संतुलन की सर्कस में शरीक है, लेकिन गाहे बगाहे जब उसे मौका मिलता है वह अपनी जुबान खोलता है। जनमंच भी जुबान खोलने का एक अधिकृत मंच प्रदान करता है और कम से कम कुछ कहने की पारदर्शिता में अपनी गारंटी देता है, लेकिन हर बार स्थायी प्रक्रिया के गोलमोल जवाब या दफ्तर के सवालों का उत्तर मंच पर मिले, तो ऐसे साधुवाद की तफतीश जायज है। जनता की बेडिय़ां कुछ हद तक सामने आ सकती हैं, लेकिन सतत प्रक्रियाओं की परंपराएं क्यों हार रहीं, इस पर भी गौर होना चाहिए। यह सरकारी कार्यसंस्कृति की परिभाषा को मुखर कर सकता है, लेकिन मुखौटा पहनकर कोई भी हल स्थायी नहीं माना जाएगा। हमें सुशासन के वे खत जारी करने पड़ेंगे, जो दूरदराज तक 'डिलीवरी सिस्टम को पुष्ट करते हुए कारगर हों। सरकार अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर लक्ष्य निर्धारित करती है और इनके साथ हर विधानसभा क्षेत्र के तहत स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि भी निगरानी रखते हैं या विधायक अपनी कसौटियों में विकास के हाथी दौड़ाते हैं, लेकिन दफ्तरी माहौल की सीढिय़ों पर बढ़ता शिकायतों का रोजनामचा कौन लिखेगा।
एक पल के लिए मान लें कि जनमंच की पलकें खोलकर निगरानी व्यवस्था सुदृढ़ हुई है, लेकिन प्रदेश की पैंतीस सौ के करीब पंचायतों तक अगर यह कामयाब करना है, तो जनमंच अपने आप में एक लक्ष्य आधारित कार्यक्रम है जिसे इसकी खूबियों और ईमानदारी के तहत चलाने की अनवरत कोशिश होनी चाहिए। गांव-गांव तक सुशासन के संदेश देने में यदि जनमंच कारगर है, तो ठीक ऐसी ही व्यवस्था शहरी आबादी के लिए भी जरूरी है क्योंकि हिमाचल में शहरीकरण की पड़ताल अनिर्वाय रूप से नियोजन व नागरिक सुविधाएं बढ़ाने में प्रेरक सिद्ध होगी। इसी तरह हर मंत्री अगर समय-समय पर अपने विभागीय दायित्व के सुशासन, लक्ष्यों और नागरिक अपेक्षाओं के अनुरूप विकास को पारदर्शिता के साथ मंच प्रदान करे, तो पता चलेगा कि शिकायतों के पिटारे हर विभाग के किसी कोने में छिप कर बैठे हैं। जयराम सरकार ने अपने जनमंच कार्यक्रम के जरिए एक फीडबैक सिस्टम बनाया है, जिसके तहत सुशासन के नजरिए में जनता खुद के अधिकार पा सकती है।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचली

Rani Sahu

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