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अमृत महोत्सव के बाद के अगले पच्चीस वर्ष के ‘अमृत काल’ की अवधि में एक नए भारत (न्यू इंडिया!) के स्वप्न को साकार करने के लिए देश का आवाहन एक ऐतिहासिक परिवर्तन की सोच है जो समाज की आगे की चुनौतियों का सामना करते हुए विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
Education in India: अमृत महोत्सव के बाद के अगले पच्चीस वर्ष के 'अमृत काल' की अवधि में एक नए भारत (न्यू इंडिया!) के स्वप्न को साकार करने के लिए देश का आवाहन एक ऐतिहासिक परिवर्तन की सोच है जो समाज की आगे की चुनौतियों का सामना करते हुए विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है. इसके लिए सबसे अधिक और मूलभूत जरूरत है (सु)शिक्षित समाज के निर्माण की. यह इसलिए और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि अनुमान है कि इस बीच भारत की आधी जनसंख्या तीस वर्ष की आयु के नीचे वाली होने जा रही है.
भारत में शिक्षा की हालत कैसे बदलेगी
सक्रियता, उत्साह और उत्पादकता की दृष्टि से यह आयु वर्ग निश्चय ही अत्यधिक महत्व का होता है. इस तरह अमृत-काल एक निर्णायक दौर होने जा रहा है जिसे अवसर में बदलने के लिए शिक्षा को ठीक रास्ते पर लाना होगा. सिर्फ गुणात्मक सुधार ही इसका एकमात्र उपाय है.
वर्तमान व्यवस्था को लेकर लंबे समय से व्याप्त जन-असंतोष तभी दूर हो सकेगा यदि हम ज्ञान और कौशल दोनों ही दृष्टियों से अच्छी शिक्षा व्यवस्था को स्थापित कर पाएंगे. शायद इसी मनोभाव से केंद्रीय सरकार पिछले कार्यकाल से लगातार शिक्षा के एजेंडे पर कार्य कर रही है.
शिक्षा को लेकर क्या कर रही है सरकार
भारत के लिए शिक्षा कैसी हो और वह किस तरह के संस्थागत विधान के तहत दी जाए, इन सवालों को लेकर पूरे देश में पिछले कई सालों से गहन मंथन का दौर चलता रहा है. इससे उपजी शिक्षा नीति-2020 शिक्षा की पूरी पारिस्थितिकी को संबोधित करती है.
विशाल भारत में शिक्षा की उपलब्धता अर्थात उस तक पहुंच को समता, समानता और गुणवत्ता के साथ तय करना निश्चय ही एक बड़ा लक्ष्य है. अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो चला है कि सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है. एक स्तर पर रूप-रेखा का मोटा–मोटा ढांचा उपलब्ध कराया गया है.
शिक्षा में कौन-कौन से बदलाव हो रहे है
विश्वविद्यालय और इसी तरह की अन्य नियामक संस्थाएं उसके हिसाब से तैयारी करने में भी जुट गई हैं. उदाहरण के लिए चार वर्ष की स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए पाठ्यक्रम में तब्दीली लाने के लिए काम शुरू हो गया है, कई विश्वविद्यालय अपने प्रावधानों के अंतर्गत नए पाठ्यक्रम अंगीकृत भी कर रहे हैं.
बहु-विषयी (मल्टी-डिसिप्लिनरी) और अंतर-विषयी (इंटर-डिसिप्लिनरी) दृष्टिकोण की ओर रुझान इन नए पाठ्यक्रमों की योजनाओं में स्पष्ट रूप से झलक रहा है. संस्कृति और भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रति उत्साहपूर्ण संवेदनशीलता भी नए पाठ्यक्रमों में भिन्न-भिन्न मात्राओं में दिखाई दे रही है.
विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिए केन्द्रीय स्तर पर एकीकृत प्रवेश परीक्षा नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जा रही है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुसंधान के लिए आवश्यक तैयारी की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य कोर्स वर्क को एक वर्ष की अवधि का किया गया है. उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण के सवाल पर भी ध्यान दिया जा रहा है.
टीचरों की भी कमी की है समस्या
विभिन्न भारतीय भाषाओं में पुस्तकें तैयार कर उपलब्ध कराने की योजना भी बनी है. अध्यापकों की गरिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए उनके प्रशिक्षण और व्यावसायिक उन्नति के अवसर भी बढ़ाए जा रहे हैं. इन सबके बीच अधिकांश उच्च शिक्षा के संस्थान अध्यापकों की अतिशय कमी की भयानक समस्या से जूझ रहे हैं और तदर्थ (एडहॉक) या अतिथि अध्यापकों से काम चला रहे हैं.
स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यक्रम की रूपरेखा नेशनल करिकुलर फ्रेमवर्क (एनसीएफ) तैयार किए जाने की दिशा में भी कुछ प्रगति हुई है. राज्यों से इस तरह की पाठ्य-चर्या का ब्यौरा प्राप्त कर राष्ट्रीय स्तर पर इसके निर्माण की बात सुनाई पड़ी थी.
क्यों रखी गई थी शिक्षा नीति- 2020 की नींव
पर पाठ्य-चर्या तय कर और उसके अनुसार पाठ्यपुस्तकों का निर्माण एक अति विशाल परियोजना है जिसमें बड़ा समय और श्रम लगता है. संतुलित ढंग से ज्ञान को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करना कठिन कार्य है. यह तब और मुश्किल हो जाता है जब निहित रुचियों के चलते तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर और चुन कर प्रस्तुत किया जाता है.
अनेक वर्षों से विभिन्न पुस्तकों में तथ्यात्मक गलतियों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया जाता रहा है परंतु उन आपत्तियों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था. सकारात्मक भविष्य की परिकल्पना को केंद्र में रखकर शिक्षा नीति- 2020 राज्य की जन कल्याणकारी योजना के रूप में प्रस्तुत की गई है जो भारत की युवा जनसंख्या के सुखद भविष्य को चित्रित करती है.
Rani Sahu
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