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By गिरीश्वर मिश्र
भारत की सभ्यतामूलक जीवन-दृष्टि कई तरह से सर्व-समावेशी थी परंतु दो सदियों के औपनिवेशिक शासन के दौर में इसे व्यवस्थित रूप से हाशिये पर भेजने की मुहिम छेड़ी गई और उसकी जगह लोक-मानस और ज्ञान-विज्ञान का यूरोप से लाया गया नया ढांचा और विषयवस्तु दोनों को भारत में रोपा गया। शिक्षा की इस नई व्यवस्था में भारत के शास्त्रीय ज्ञान और लोक-परंपरा का खास महत्व न था।
उसे किनारे रख कर उसके प्रति तटस्थ होकर प्राकृतिक विज्ञान और मानविकी के विषयों का अध्यापन और शिक्षण शुरू किया गया। मनोविज्ञान जैसे आधुनिक समाज विज्ञानों का जन्म जिस परिस्थिति में हुआ उसमें ज्ञान की प्राकृतिक विज्ञानों की प्रत्यक्षवादी (पॉजिटिविस्ट) परंपरा बड़ी प्रबल थी और भौतिक विज्ञान की प्रगति आश्चर्यकारी थी।
उसके तीव्र प्रभाव में सोचने और अध्ययन करने के एक वस्तुवादी (ऑब्जेक्टिव) नजरिये को अपनाना श्रेयस्कर माना गया। यद्यपि मनोविज्ञान में सदैव अनेक धाराएं प्रवाहित होती रही हैं जिनका रिश्ता दार्शनिक चिंतन की विविधता से है फिर भी मुख्य धारा के रूप में जिसका प्रचलन हुआ और जो मनोविज्ञान की शिक्षा-दीक्षा का मानक बना उसमें अध्ययन की बाह्य विश्व की ओर उन्मुख दृष्टि ने निर्णायक रूप से मनोविज्ञान के स्वभाव को बहुत हद तक बदल दिया।
आधुनिक अध्ययन विषयों की व्यवस्था का तकाजा है कि हर अध्ययन-विषय का अपना खास किस्म का अनुशासन बनाया जाए ताकि विषय की परिधि सुनिश्चित हो, जो देश-काल की सीमाओं के बीच निर्मित होता है और उसकी गतिविधियों को नियमित करता है। भारत में सामाजिक विज्ञान की विदेशप्रियता को लेकर चिंता सत्तर के दशक में शुरू हुई। इसके घातक प्रभाव से मुंह मोड़ कर कुछ न करना मानवीय मेधा की हेठी होगी।
मनोविज्ञान के आधुनिक अनुशासन को एकरूपी ढंग से देखने की आदत बन चुकी है जबकि शुरू से ही इसके निर्माण में अच्छी खासी बहुलता है और कई तरह के मनोवैज्ञानिक ज्ञान का सृजन होता आ रहा है। मनोविज्ञान के इतिहास के विश्लेषण में इसके द्वंद्व को लेकर काफी चर्चा अब चल रही है और एक सुगठित मनोविज्ञान और इसकी वैज्ञानिकता प्रश्नांकित हो रही है।
इस विषय की निर्मिति में यूरो-अमेरिकी अकादमिक परिवेश मुख्य रहा और शेष दुनिया परिधि पर आ गई। इस तरह 'अन्य' हाशिए पर पहुंच गया। इस परिस्थिति में इसके स्वदेशीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई है जिसमें बाह्य देशों के ज्ञान का अपने देश में अनुकूलन और अपने देश के मौलिक ज्ञान का अध्ययन और सृजन दोनों प्रक्रियाएं हो रही हैं। आत्म-निर्भर होने और विश्व-मानवता की समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है कि देशज ज्ञान का आदर किया जाए।

Rani Sahu
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