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नागरिक-जीवन, व्यापार-वाणिज्य, प्रशासन, न्यायिक व्यवस्था और शिक्षा सार्वजनिक महत्व के ऐसे जीवन-क्षेत्र हैं
सोर्स- okmatnews
नागरिक-जीवन, व्यापार-वाणिज्य, प्रशासन, न्यायिक व्यवस्था और शिक्षा सार्वजनिक महत्व के ऐसे जीवन-क्षेत्र हैं जिनमें भाषा बड़ी अहम भूमिका निभाती है। साथ ही अब सभी मानते हैं कि समाज में शिक्षा को सब तक पहुंचाना देश की मानव-क्षमता के पूर्ण और प्रभावी उपयोग के लिए बेहद जरूरी है। यह सब सही भाषा नीति से हो सकेगा क्योंकि संचार और शिक्षा के लिए वही सबसे समर्थ माध्यम है।
यह अवश्य है कि भारत की एकता भाषा पर ही नहीं टिकी है परंतु प्राचीन इतिहास में भाषिक विभिन्नता राष्ट्रीय एकता के रास्ते कभी बाधा रही हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। भाषिक चर्या के इतिहास को निकट जाने पर यही पता चलता है कि विभिन्न भाषाओं की विषयवस्तु में आश्चर्यजनक रूप से बहुत अधिक साझेदारी और समानता है और इस तथ्य से रूबरू होना या उसे सबके सामने उपस्थित करना जरूरी है। साथ ही जनजातीय और लुप्तप्राय भाषाओं और मातृभाषाओं के संरक्षण, विकास और प्रोत्साहन की भी जरूरत है।
स्वतंत्र भारत में भाषाओं के विभिन्न संस्थानों के बीच ताल-मेल बिठाना भी जरूरी है ताकि वे उन लक्ष्यों को पा सकें जिनको पाने के लिए वे बनाए गए थे। विद्यालयों में कितनी भाषाएं सिखाई जानी चाहिए इस प्रश्न का उत्तर क्षेत्र-विशेष की जरूरत पर निर्भर करेगा। देखने पर पता चलता है कि 'त्रिभाषा-सूत्र' विभिन्न राज्यों में अलग-अलग ढंग से लागू हुआ है और उसमें वस्तुत: संस्कृत और भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्ययन की हानि हुई।
वस्तुत: हमें सभी भारतीय भाषाओं को सक्षम बनाने के लिए काम करना होगा न कि किसी एक चुनी हुई भाषा को, जैसा अभी तक के रुझान के तहत अंग्रेजी को लेकर होता रहा है। इसके लिए सरकार के स्तर पर संचार के लिए भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन की ठोस नीति बनानी चाहिए। केंद्र में सभी संचार अनिवार्य रूप से द्विभाषी होने चाहिए। अर्थात हिंदी के साथ क्षेत्र विशेष की भाषा (न कि अंग्रेजी) में भी पत्र-व्यवहार होना चाहिए।
इसी तरह राज्यों को भी अपनी भाषा और हिंदी में केंद्र से पत्र-व्यवहार करना चाहिए। देश के विभिन्न राज्यों के बीच भी आपसी संचार द्विभाषी होना चाहिए। यह जरूरी है कि पत्र का उत्तर अनिवार्य रूप से उस भाषा में ही भेजा जाय जिस भाषा में मूल पत्र आया हो।
इसके लिए बुनियादी ढांचा, कर्मचारी और अधिकारियों के प्रशिक्षण की जरूरत होगी। इसके लिए हर राज्य और केंद्र में 22 भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के अनुवाद ब्यूरो की स्थापना केंद्र और राज्य के सचिवालयों में होनी चाहिए।
जब सभी भारतीय भाषाओं में शिक्षा होगी तो भाषिक और सांस्कृतिक विविधता समृद्ध होगी और उनके साथ ही सांस्कृतिक एकता भी, क्योंकि भारतीय भाषाएं भारतीय ज्ञान और संस्कृति को संजोकर रखती हैं। इन सब के कोश का कार्य वे करती हैं। यह लोकप्रचलित कलाओं में पूरे भारत में विशेष रूप से अभिव्यक्त दिखती हैं। भाषा को सुदृढ़ बनाने और देश की सांस्कृतिक–बौद्धिक एकता को मजबूत करने में कोई अंतर नहीं है परंतु यह जरूरी होगा कि सभी भारतीय भाषाओं में उपस्थित भारतीय सभ्यता और संस्कृति के योजक तत्व शिक्षा में उभर कर सामने आएं।
विषय के रूप में भाषाओं की शिक्षा ऐसी पाठ्यचर्या पर टिकी होनी चाहिए जिसमें भारत के विभिन्न भागों से मूल ग्रंथ के अंश के अनुवाद पाठ्यक्रम में जरूर शामिल हों। इस तरह हिंदी पढ़ाने की पुस्तक में उर्दू या तमिल या मणिपुरी की कथा शामिल हो, तब हम भारत की सांस्कृतिक विविधता को भारत की प्राकृतिक भाषिक विविधता के माध्यम से प्रोत्साहित करेंगे। भारत की विभिन्न भाषाओं की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सौंदर्यात्मक और ज्ञान-परम्परा से पाठ्य सामग्री ली जानी चाहिए और इस बात को पाठ्यपुस्तक बनाने वाली राष्ट्रीय संस्थाएं कड़ाई से सुनिश्चित करें।
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Rani Sahu
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