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मनुष्य इस अर्थ में भाषाजीवी कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन व्यापार भाषा के माध्यम से ही होता है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
मनुष्य इस अर्थ में भाषाजीवी कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन व्यापार भाषा के माध्यम से ही होता है. उसका मानस भाषा में ही बसता है और उसी से रचा जाता है. दुनिया के साथ हमारा रिश्ता भाषा की मध्यस्थता के बिना अकल्पनीय है इसलिए भाषा सामाजिक सशक्तिकरण के विमर्श में प्रमुख किरदार है. फिर भी अक्सर उसकी भूमिका की अनदेखी की जाती है. भारत के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में गरीबों, किसानों, महिलाओं, जनजातियों यानी हाशिए के लोगों को सशक्त बनाने के उपाय को हर सरकार की विषय सूची में दोहराया जाता रहा है.
वर्तमान सरकार पूरे देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृतसंकल्प है. आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है कि अपने स्रोतों और संसाधनों के उपयोग को पर्याप्त बनाया जाए ताकि कभी दूसरों का मुंह न जोहना पड़े. इस दृष्टि से 'स्वदेशी' का नारा बुलंद किया जाता है. अंग्रेजी राज्य की स्थापना की कथा से सभी परिचित हैं. आर्थिक फायदों के लिए अंग्रेज भारत में प्रविष्ट हुए और यहां शासन पर जिस तरह कब्जा किया, उससे स्पष्ट है कि उनके आर्थिक सरोकार सदैव प्रमुख बने रहे.
इस प्रयास में उन्होंने शोषण और दोहन तो किया ही, यहां की सांस्कृतिक और बौद्धिक-आंतरिक शक्ति को भी यथाशक्ति ध्वस्त किया. सामाजिक भेदभाव की खाई को बढ़ाते हुए भारत की पहचान को विकृत किया. शासक और शासित की स्पष्ट समझ बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजों ने कई उद्यम किए. अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा की पौध रोपी और इस तरह से योजना बनाई कि शरीर तो भारत का रहा पर मन और बुद्धि अंग्रेजीमय या अंग्रेजीभक्त हो गए.
अंग्रेजों ने व्यवस्था ऐसी चाकचौबंद कर दी थी कि अंग्रेजी से मुक्ति अंग्रेजों से मुक्ति से कहीं ज्यादा मुसीबतजदा और मुश्किल पहेली बन गई. स्वतंत्र भारत में शिक्षा का जो सांचा तैयार हुआ, उसकी आधार भूमि गुलाम भारत वाली ही थी. अंग्रेज तो भारत से विदा हो गए पर उनकी रची व्यवस्थाएं बनी रहीं और उनके साथ ज्यादा छेड़छाड़ को मुनासिब नहीं समझा गया. उनका मानसिक उपनिवेश पूर्ववत काबिज रहा. एक आरोपित दृष्टि थोप दी गई और ज्ञान सृजन में हम प्रामाणिक और प्रासंगिक नहीं हो सके. इस पूरे आयोजन में शिक्षा माध्यम अंग्रेजी ने बड़ी भूमिका निभाई.
यह देखते हुए भी कि रूस, चीन, जापान, फ्रांस या जर्मनी- हर देश अपनी भाषा में ही शिक्षा देना उचित समझता है. वे ज्ञानार्जन और शासन दोनों ही काम एक ही भाषा में करते हुए आगे बढ़ रहे हैं. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि मातृभाषा में सहजता से अध्ययन और शोध संभव होता है. बच्चा मातृभाषा की ध्वनियों की गूंज के बीच जन्म लेता है और उसी के शब्दों से अपनी वाणी को गढ़ता है. किसी अपरिचित विदेशी भाषा को शैक्षिक संवाद और संचार का माध्यम बनाकर अनुवाद की अतिरिक्त जिम्मेदारी सौंप दी जाती है.
इसका सीधा परिणाम यह होता है कि सृजनात्मकता प्रतिबंधित हो जाती है और अध्ययन में मौलिक चिंतन की जगह अनुगमन करते रहना ही नियति बन जाती है. अंग्रेजी में विश्व का अधिकांश ज्ञान उपलब्ध है और अनेकानेक देशों में उसका प्रसार है, यह विचार अंशत: ही सही है. वर्तमान सरकार ने आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी की अवधारणा को विमर्श के केंद्र में लाकर सामर्थ्य के बारे में हमारी सोच को आंदोलित किया है. इसी कड़ी में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में अवसर देने पर विचार किया गया है.
यह निर्विवाद रूप से स्थापित सत्य है कि आरंभिक शिक्षा यदि मातृभाषा में हो तो बच्चे को ज्ञान प्राप्त करना सुकर हो जाएगा और माता-पिता पर अतिरिक्त भार भी नहीं पड़ेगा. शिक्षा स्वाभाविक रूप से संचालित हो, इसके लिए मातृभाषा में अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए. एक भाषा में दक्षता आ जाने पर दूसरी भाषाओं को सिखाना आसान हो जाता है.
अतः अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा को एक विषय के रूप में अध्ययन विषय बनाना उचित होगा. भारत एक बहुभाषी देश है और ज्यादातर लोग एक से अधिक भाषाओं का अभ्यास करते हैं इसलिए बहुभाषिकता के आलोक में मातृभाषा का आदर करते हुए भाषा की निपुणता विकसित करना आवश्यक है. मातृभाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था से भाषाएं और समाज दोनों ही सशक्त होंगे. कहना न होगा कि भाषा का संस्कार ही संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन का अवसर बनेगा और लोकतंत्र में जन भागीदारी भी सुनिश्चित हो सकेगी.
Rani Sahu
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