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ज्ञान की विरासत को आधुनिक ज्ञान से जोड़ने का अनुष्ठान
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
ईशावास्य उपनिषद् के अनुसार (ब्रह्म) पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण है. पूर्ण जगत की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है. उसके बाद भी उस (ब्रह्म) की पूर्णता ज्यों की त्यों बनी रहती है, अर्थात शेष ब्रह्म भी पूर्ण रहता है.
ब्रह्म रचयिता है प्रकृति रचना है यानी ब्रह्म से प्रकृति का उदय होता है. अपने पूर्ण में से पूर्ण प्रकृति की रचना के पश्चात भी ब्रह्म पूर्ण बना रहता है. बीज से वृक्ष बनता है और वृक्ष से अनेक बीज बनते हैं. भौतिकी की शब्दावली में ऊर्जा का पदार्थ में रूपांतरण होता है.
पूरे से पूरा निकलता है और पूरे का पूरापन लेने पर भी पूरा ही बचा रहता है.
त्यागपूर्वक भोग करना ही श्रेयस्कर है
ईश उपनिषद् में ही यह स्थापना भी है कि सकल संसार में चतुर्दिक ईश्वर का ही वास है इसलिए उससे जो प्रसाद मिले उसे स्वीकार करना चाहिए और किसी अन्य की धन संपदा पर अधिकार की बात नहीं करनी चाहिए. अर्थात त्यागपूर्वक भोग करना ही श्रेयस्कर है.
जगत के प्रति यह दृष्टि सर्वोदय, स्वराज और स्वतंत्रता के लिए आंदोलन का प्रमुख आधार था.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और महर्षि अरविंद की जयंती एक साथ मनाई जाएगी
भारत का अमृत महोत्सव 'स्वराज' पाने की स्मृति को ताजा करता है और पूर्णत्व का अभिलाषी है. यह संयोग ही है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती भी साथ में मनाई जा रही है.
इस अवसर का महत्व इस अर्थ में और बढ़ जाता है कि मानसिक स्वराज को स्थापित करने का संकल्प भी नई शिक्षा नीति में किया गया है.
वैश्विक महामारी ने बुरा असर डाला है
ज्ञान की विरासत को आधुनिक ज्ञान से जोड़ने का यह अनुष्ठान ऐसे मोड़ पर हो रहा है जब वैश्विक महामारी मन, शरीर और भौतिक पदार्थ की दुनिया के आपसी रिश्तों को फिर से देखने समझने के लिए मजबूर कर रही है.
मानवता की विकास यात्रा का यह पड़ाव अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक है. चेतना ही गति रूप में ऊर्जा और स्थूल रूप में पदार्थ में रूपांतरित होती है.
प्राचीनकाल से ही भारत को ज्ञान का केन्द्र माना जाता है
भारत प्राचीनकाल से ज्ञान का केंद्र रहा है. देश के रूप में उसकी भौगोलिक सत्ता है जो विश्व की एक प्राचीनतम सभ्यता में पनपाने वाले विचारों और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है.
सत्य (स्थिरता ) और ऋत ( गति) के साथ समग्र को आत्मसात् करने की भारत-दृष्टि मनुष्य और सृष्टि को भिन्न नहीं करती और यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे की अवधारणा के साथ सबके बीच निरंतरता को स्वीकार करती है.
ऐसे में प्रकृति और मनुष्य प्रतिद्वंद्वी न होकर परस्पर निर्भर और अनुपूरक के रूप में उपस्थित होते हैं. इस विश्व दृष्टि में मनुष्य सृष्टि का केंद्र नहीं है.
प्रकृति पर नियंत्रण न करके उसके साथ सहकार करना जरूरी होता है
जड़ और चेतन जो भी है उसमें कोई निरपेक्ष भोक्ता और भोज्य नहीं है. प्रकृति पर नियंत्रण की जगह उसके साथ सहकार महत्वपूर्ण है. यह विचार अनेक रूपों में व्यक्त और ध्वनित होता रहा है.
भारतीय जीवन दर्शन में सबको देखने वाली दृष्टि अर्थात् पूर्णता की दृष्टि, जिसे गीता में सब में एक अव्यय भाव को पहचानने वाली नजर (सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्यय मीक्षते) कहा गया, अपनाने पर बल दिया गया है.
कैसे देश की जगह धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा ने ले ली जगह
स्वराज पाने के आंदोलन में जिस भारत-भाव का विकास हो रहा था वह विविधताओं के बीच धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की भिन्नताओं के बीच परस्पर सौहार्द्र और सहनशीलता से श्रेय की प्राप्ति की ओर अग्रसर था.
देश सबके विचार के केंद्र में था. स्वतंत्र भारत में इनका संकोच शुरू हुआ और देश की जगह धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा जैसी सीमित अस्मिताओं के प्रलोभन बढ़ने लगे और सामाजिक–राजनीतिक प्रश्नों पर विचार पर छाने लगे.
एक साथ एक जुट हो कर बढ़ने पर होगी देश की उन्नति
भिन्नताओं का लाभ दिखने लगा और देश या राष्ट्र के लिए समावेशी दृष्टि कमजोर पड़ने लगी जबकि जोड़ सकने वाले संचार साधनों और मीडिया की उपस्थिति तीव्र होती गई.
देश की उन्नति के लिए असहज असहनशीलता की जगह चाहिए कि हम साथ आएं. साथ बोलें. हमारे मन के तार लें.
Rani Sahu
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