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आज हम एक ऐसी समस्या की चर्चा करेंगे जिससे हमारे देशवासी या तो अनजान हैं या उन्होंने इसे इतनी स्पष्टता से समझा नहीं है। हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है जिसने स्कूलों, कॉलेजों, अध्यापकों और अभिभावकों तक में एक गलत संस्कृति कायम कर दी है और उसके कारण हमारे देश में भुल्लकड़, कमजोर, भयभीत और नाकारा लोगों की बहुतायत हो गई है। सच यह है कि नन्हे शिशु बहुत समझदार होते हैं और शुरू के दो-तीन सालों में वे बहुत कुछ सीख जाते हैं। एक से तीन साल तक के बच्चे जो कुछ करते हैं उसमें वे स्वयं को पूरी तरह झोंक देते हैं। उनका कोई काम आधे मन से नहीं होता। वे जीवन का स्वागत करते हैं, एक तरह से इसे वे निगलना ही चाहते हैं। यही कारण है कि वे इतने कम समय में इतना कुछ सीख लेते हैं। उदासीनता, ऊब, भावशून्यता आदि बाद में आते हैं। बच्चे स्कूलों में जिज्ञासा से भरे आते हैं, पर पाठ्यक्रम के बोझ, स्कूल के अनुशासन तथा मां-बाप व अध्यापकों की टोका-टाकी के कारण कुछ ही सालों में उनकी मुखर जिज्ञासा की मौत हो जाती है या मौन तो हो ही जाती है। भय मेधा का खात्मा करता है। वह बच्चे के दृष्टिकोण को, जीवन के प्रति उसकी सोच को, जीवन से जूझने के तौर-तरीकों तक को प्रभावित करता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे सामने एक नहीं बल्कि दो समस्याएं हैं। एक तो यह कि बच्चों को भयभीत होने से कैसे रोका जाए, दूसरी यह कि सोचने की उन गलत आदतों को कैसे तोड़ा जाए जो भय से पनपती हैं। एक और महत्वपूर्ण सच यह है कि असफलता को लेकर एक शिशु और एक वयस्क की प्रतिक्रियाओं में जमीन-आसमान का अंतर होता है, बल्कि एक शिशु की प्रतिक्रिया एक पांच वर्षीय बच्चे से भी भिन्न होती है। एक शिशु को असफलता से लज्जा नहीं आती, आत्मग्लानि नहीं होती, अपराध का बोध नहीं होता। कोई भी शिशु अपने से बड़ी उम्र वाले बच्चे की तरह स्वयं को कठिन या अपरिचित कामों से बचाता नहीं है। वह तो मानो जीवन का आलिंगन करने को ही अधीर और आतुर रहता है। चलना सीखने वाले बच्चे बार-बार गिरते भी हैं, छह-सात वर्ष के बच्चे साइकिल चलाना सीखते समय कई बार लुढक़ते और चोट खाते हैं। पर गिरने पर ये बच्चे यह नहीं सोचते .. 'लो देखो, मैं फिर से असफल हो गया।' इसके विपरीत ये नन्हे शिशु अपनी बनाई कठिन योजनाओं से जूझते समय केवल यही सोचते हैं .. 'अभी नहीं हुआ, चलो फिर से करें।' चलते समय या साइकिल चलाना सीखते समय बच्चे सफलता या असफलता के बारे में भी नहीं सोचते। वस्तुत: चलने या साइकिल चलाने के काम में ही उनका आनंद निहित है, न कि सफलता के किसी विचार में। वे तब केवल अपने प्रयासों और काम से मिलने वाली उत्तेजना के बारे में सोचते हैं। परंतु जब वयस्कों को खुश करना महत्वपूर्ण बन जाता है तो सफलता और असफलता के बीच गहरी रेखा खिंच जाती है। सच तो यह है कि 'सफलता' और 'असफलता' दोनों ही वयस्क विचार हैं जो हम बच्चों पर आरोपित करते हैं, पर हम यह भूल जाते हैं कि यह कल्पना ही असंभव है कि हम बच्चों में 'सफलता' के प्रति प्रेम उनमें 'असफलता' के प्रति भय जगाए बिना भी पैदा कर सकते हैं। यही कारण है कि आज हम इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर विचार करेंगे। हम जानते हैं कि हमारा व्यवहार सिर्फ हमारे 'आज' से ही प्रभावित नहीं होता बल्कि सदियों से संचित आदतें भी हमारे व्यवहार में उतर आती हैं। डोडो पक्षी की कहानी हम सब जानते हैं जो कभी मॉरीशस और हिंद महासागर के कुछ द्वीपों में रहते हुए लगातार फल-फूल रहा था। प्रकृति ने उन्हें तेजी से दौडऩे और उडऩे की क्षमता दी थी, लेकिन चूंकि जहां उनका निवास था वहां अन्य कोई जीव-जंतु नहीं था, मनुष्य भी नहीं था, यानी डोडो पक्षी को किसी से खतरा ही नहीं था, इसलिए उन्हें न दौडऩे की जरूरत थी न उडऩे की। उन जंगलों में खाना भरपूर था और वो मज़े में जीवन गुज़ार सकते थे।
प्रकृति का नियम है कि जिस गुण का उपयोग नहीं होगा, वह समाप्त हो जाएगा। यही डोडो के साथ हुआ। कहीं से भी कोई भी खतरा न होने का परिणाम यह हुआ कि उनमें खतरा पहचानने, खतरा देखकर बचने या खतरे का मुकाबला करने की क्षमता जाती रही। सोलहवीं शताब्दी में जब डच लोग उन जगहों पर पहुंचे जहां डोडो का निवास था तो उनके साथ कुत्ते और चूहे भी थे। डोडो उन्हें देखकर न भागते थे, न उड़ते थे, न ही बचाव में आक्रमण करते थे। मनुष्यों और कुत्तों के लिए वो आसान शिकार बन गए और उनके अंडे चूहों का भोजन बन गए। धीरे-धीरे इस धरती से डोडो पक्षी समाप्त हो गए और आज सिर्फ मॉरीशस युनिवर्सिटी और लंदन के नैचुरल हिस्ट्री म्यूजिय़म में इनके अवशेषों से बने प्रतिरूप ही उपलब्ध हैं। हमारे पूर्वज जब जंगलों और गुफाओं में रहते थे तो खतरा सामने देखकर आक्रमण करते थे और खतरा अपनी औकात से ज्यादा बड़ा हो तो भाग खड़े होते थे। वह प्रवृत्ति हममें आज भी मौजूद है। बच्चों को जब अनुशासन के नाम पर और सफलता का लालच देकर स्कूलों-कॉलेजों में असफलता का भय दिखाया जाता है तो वह उनकी प्रकृति में शामिल हो जाता है और असफलता से डरे ऐसे लोग वयस्क होने पर जोखिम लेने से इतना डरते हैं कि सारी उम्र डरे-डरे से रहकर जीवन गुज़ार देते हैं। कोई व्यक्ति नौकरी में किसी नई सुविधा मांगने से डर जाता है कि नौकरी न चली जाए तो कोई व्यवसायी किसी बदनीयत ग्राहक से अपना ही पैसा मांगने में डर जाता है कि ग्राहक न चला जाए। मेरे एक मित्र एक कंपनी में चीफ टैक्नालॉजी आफिसर हैं। उन्हें बचपन से ही सवाल पूछने और नई बातें सीखने की शिक्षा मिली थी। नौकरी के लिए इंटरव्यू के समय उन्होंने यूं ही पूछ लिया कि वो हफ्ते में सिर्फ तीन दिन काम करना चाहते हैं, तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ कि उनके नियोक्ता ने बिना किसी हील-हुज्जत के उनकी बात मान ली। अपने इस अनुभव का जिक़्र करते हुए वे कहते हैं कि यदि उन्होंने यह सवाल ही न पूछा होता तो उन्हें यह सुविधा मिलती ही नहीं। पर इसका मूल कारण समझकर ही हम इस तथ्य की गहराई को समझ सकते हैं कि वे नौकरी न मिलने के डर से भयभीत नहीं थे, इसलिए वे यह सवाल पूछ सके। सवाल पूछा तो सुविधा भी मिली। यदि वे डरे रहते, सवाल न पूछते तो यह सुविधा उन्हें कदापि न मिलती। अब वे तीन दिन आफिस में काम करते हैं, तीन दिन अपनी और अपने बच्चों को नई बातें या नए हुनर सीखने में लगाते हैं और रविवार के दिन छुट्टी मनाने के लिए परिवार सहित कहीं बाहर निकल लेते हैं। जिन खोजा तिन पाइया का महत्व इसी में है कि हम डरें नहीं, खोजें, पूछें, समझें और जीवन को और ज्यादा खुशहाल बनाएं।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com
By: divyahimachal
Rani Sahu
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