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बंधु, मौसम बदल रहा है? जी नहीं, वह मौसम नहीं कि जिसमें हम सिर हिला कर कहें कि अरे इस बार तो गर्मी पड़ी ही नहीं। चिलचिलाती हुई गर्मी का महीना क्या इस बार केवल किताबों में ही दिखाई देगा? यहां तो आलम यह है कि दो दिन भरपूर गर्मी पड़ती है और तीसरे दिन ऐसे भरपूर बादल घिर-घिर आते हैं, अन्धड़ चलती है, बारिश और ओले तक गिर कर हमारे घर आंगन को सराबोर कर देते हैं। लीजिए, जैसा हमारा यह तपता हुआ मैदानी इलाका न हुआ। इस शहर में चिरापूंजी घुस आया हो। अजी इतनी दूर जाने की जरूरत ही क्या है? करीब रहना है तो अपने शहर में धर्मशाला की आमद महसूस कर लो। इन बदलते मौसमों का क्या कहें? लम्बा वक्त हो गया, शायद पूरा डेढ़ साल, जब से अपने शहरों में हम वायरस कहलाने वाले आगन्तुकों का प्रवेश महसूस कर रहे हैं। यह वायरस अचानक प्रकट होते हैं और आपको महामारी का तोहफा दे जाते हैं। लीजिये साहिब, जब यह महामारी ही आपका पीछा न छोड़े, लहर दर लहर चली आये, ठंड, कंपकपी, खांसी, तेज बुखार और फिर फेफड़ों की घुटन बांटती फिरे। अच्छे भले लोगों को बिस्तर पर डाल दे। मौतों के अम्बार लगा दे, परन्तु आप इसे अभिशाप कहिए, तोहफा क्यों और कैसे कहने लगे? क्या भाषा का अपना सब ज्ञान भूल गए। ‘जी नहीं, विद्वान कहां भूलते हैं सब कुछ।’ फिर संक्रमण के रूप बदल कर लौट आने को इन्सानों पर वज्रपात नहीं, तोहफा कहने की धृष्टता क्यों करते हैं।
जरूर इनमें उनका मानवीय चेतना को जगाने का कोई संदेश छिपा होगा। सामाजिक अंतर रखने का कोई आग्रह या मास्क या सैनेटाइजर के पुन: प्रयोग की कोई चेतना छिपी होगी जिसे उन्होंने तोहफा कह दिया। नहीं बन्धु, जिन्दगी इतनी सरल और नये-नये डिजिटल हुए भारत के उस वैबीनार नुमा जहां की तरह नहीं कि जहां आपने शब्दों के अर्थ का रूप बदल कर उन्हें एक तालियां बजाने वाली आदर्शवाद धरातल दे दी। परन्तु अगर रूप बदलने की बात ही करनी है, तो महामारी की लहर दर लहर को प्रणोता उस धूर्त वायरस के बदलते रूपों की पहचान क्यों न करो? पिछले डेढ़ साल से इसने अच्छी-भली जिन्दगियों को बंद घरों के अजनबी कमरों में कैद रहने की मजबूरी बना दिया है।
सुबह, दोपहर, शाम के चेहरे बदल दिये हैं। सुबह उठने पर धर्म स्थानों की जगह अपने अन्तस में ईश्वर टटोलने का संदेश दे दिया है। दोपहर में मुंह का बुर्का ओढ़ कर दो हाथ दूर से बतियाने का संदेश अलगाव का निगाहबान बना दिया और शाम अकेलेपन की उन अनुभूतियों से सनी हुई है जहां कहवा घरों से मयखानों के दरवाजों तक तुम्हें आमंत्रित नहीं करते और छविगृहों से लेकर क्लब घर तुम्हारे बैठक कक्षों में सिमट आये हैं। यहां बीवी की नुक्ताचीनी और बच्चों की छीना-झपट तुम्हें जीवन के क्षणभंगुर हो जाने का संदेश देती रहती है। तब फिर जवाब दो तुमने इस बदले जीवन के चेहरे पर तोहफे का नकाब ओढ़ाने का साहस कैसे कर लिया? अजी आलीजाह हमने यह साहस कहां किया। हम तो अभी भी उसी फुटपाथ पर हैं, अच्छे दिन आ जाने के किसी नये भाषण पर विश्वास करते हुए। इसी विश्वास का यह तोहफा हमें बार-बार प्रदान किया जाता है। इस बार चुनाव करीब हैं, तो तनिक अधिक ऊंची आवाज से इसे प्रदान करने की कोशिश की जा रही है, ‘कि देखो, हमने महामारी की दूसरी लहर कितनी जल्दी भगा दी।’ हम इन दावा करने वालों की ओर देखते हैं जो इन्हीं बातों से महामारी के इन दिनों झोपड़ी से अट्टालिका हो गए, साइकिल से बीएमडब्ल्यू की बड़ी गाड़ी हो गये। हमने श्रद्धा के साथ उन्हें प्रणाम किया, क्योंकि आजकल यह प्रणाम लखटकिया लोगों को ही किया जाता है, फाकाकशों को कौन पूछता है।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu
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