सम्पादकीय

गज़ल : किताब एक पढ़ते ज़माने लगे हैं…

Rani Sahu
7 March 2022 6:55 PM GMT
गज़ल : किताब एक पढ़ते ज़माने लगे हैं…
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तस्सवुर में खुद के ज़माने लगे हैं, हकीकत में ढलते ज़माने लगे हैं

तस्सवुर में खुद के ज़माने लगे हैं, हकीकत में ढलते ज़माने लगे हैं

तेरे वास्ते एक लम्हे का किस्सा, मुझे कहते कहते ज़माने लगे हैं

हवस या मुहब्बत सराबोर थी मैं, निकलते इस ज़द से ज़माने लगे हैं
पैदा हुआ और हुनर पा गया तू, मुझे खुद को गढ़ते ज़माने लगे हैं
आगे भी रखा तो पीछे चली मैं, हमराह चलते ज़माने लगे हैं
खुशियों पे अपनी निगाह ही कहां थी, कि तेरी ही धुन में ज़माने लगे हैं
लिखी, छापी, बांची तुम्हीं ने मुझे तो, किताब एक पढ़ते ज़माने लगे हैं।

-प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला


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