सम्पादकीय

इस दौर में उदारता : आखिर इस घृणा का अंत कब होगा, उम्मीद की कुछ किरणें अब भी बाकी हैं...

Neha Dani
20 Jun 2022 1:46 AM GMT
इस दौर में उदारता : आखिर इस घृणा का अंत कब होगा, उम्मीद की कुछ किरणें अब भी बाकी हैं...
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दूसरों का उपकार कर, सामने वाले के चेहरे पर हंसी लाकर हम इस पृथ्वी को सुंदर और रहने के योग्य बना सकते हैं।

पिछले दिनों बांग्लादेश के लोकप्रिय अभिनेता चंचल चौधुरी ने जब यह बताया कि वह हिंदू हैं, तो उनके अनेक स्थानीय प्रशंसक स्तब्ध हो गए। यही नहीं, चंचल चौधुरी को तब एक शानदार अभिनेता के रूप में नहीं, बल्कि एक विधर्मी के रूप में देखा जाने लगा। हिंदुओं के प्रति मुसलमानों की घृणा, और मुस्लिमों के प्रति हिंदुओं की घृणा अब ऐसी चरम हो उठी है कि कभी-कभी मुझे बहुत डर लगने लगता है। यह भी जानने की इच्छा होती है कि आखिर इस घृणा का अंत कब होगा।

इस उपमहाद्वीप में अविश्वास और घृणा के मौजूदा चरम रूप को देखकर लगता है कि 1947 में विभाजन के समय भारतीय मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाकर गलती की थी। आज उनके वंशजों को बार-बार अपनी देशभक्ति का सबूत देना पड़ता है। ऐसे ही, पाकिस्तान से सभी हिंदुओं को भारत चले आना चाहिए था। आज वहां उनके वंशजों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। हिंदू लड़कियों का जबरन धर्मांतरण और निकाह वहां इतना आम है कि पाकिस्तान के अलावा बांग्लादेश से भी हिंदुओं का काफिला जब-तब भारत आता ही रहता है।
मैं बांग्लादेश में रह रहे ऐसे अनेक हिंदू परिवारों को जानती हूं, जिन्होंने अपने बच्चों के नाम के साथ टाइटिल नहीं लगाया है। जाहिर है, बगैर टाइटिल के यह पता लगाना मुश्किल है कि बच्चे हिंदू हैं या मुसलमान। इसी से पता चलता है कि बांग्लादेश में रह रहे हिंदू किस भय के माहौल में रह रहे हैं। गौर करने की बात है कि सांप्रदायिक विद्वेष को खत्म करने के लिए भारत से टूटकर पाकिस्तान बना। लेकिन सांप्रदायिक विद्वेष खत्म होना तो दूर, वह दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।
कट्टरवाद जितना बढ़ता है, एक-दूसरे के प्रति घृणा भी उतनी ही बढ़ती है। सच्चाई यह है कि इस पूरे उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक वर्चस्ववाद के निरंतर निशाने पर है। हालांकि यह भी ध्यान देने की बात है कि बहुसंख्यक समुदाय से जुड़ा हर आदमी वर्चस्ववादी सोच का परिचय देता हो या अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से घृणा करता हो, ऐसा नहीं है। दोनों ही समुदायों में उदार, नीतिप्रवण, घृणा और हिंसा-विरोधी तथा सांप्रदायिक सद्भाव संपन्न लोग हैं।
ऐसे लोग हैं, तभी मानवता के प्रति उम्मीद अभी बनी हुई है। यह भरोसा है कि दोतरफा अविश्वास और घृणा से भरे लोग इस उपमहाद्वीप को हिंसा की आग में जला देने की अपनी कुटिल मंशा में सफल नहीं हो पाएंगे। अल्पसंख्यकों को भयभीत करना, उनके खिलाफ फतवे जारी करना, उन्हें सख्त दंड देने के लिए सड़कों पर उतरना मानवता नहीं है। मानवता के सबसे सुंदर दृश्य वे हैं, जब बहुसंख्यक समुदाय के लोग अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरते हैं।
आखिर सांप्रदायिक हिंसा के भयभीत करने वाले अतीत के उदाहरणों में भी डरे हुए विधर्मियों को अपने घरों में छिपाकर शरण देने के उज्ज्वल दृष्टांतों से हमारा इतिहास भरा हुआ है। जो लोग अपने समुदाय, अपने धर्म के लोगों के लिए दूसरे समुदाय और दूसरे धर्म के लोगों को निशाना बनाते हैं, वे प्रणम्य या वरेण्य नहीं हैं। दूसरे धर्म के लोगों को अभय देने वाले, उनकी रक्षा करने वाले नि:स्वार्थ लोग ही वास्तव में प्रणम्य हैं। इस 21वीं शताब्दी में धर्मस्थलों के लिए हिंसक विवाद खड़ा करने को क्या कहा जाए!
विकासमूलक सोच तो वह है, जिसके तहत विज्ञान अकादमी, नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम, आधुनिक विश्वविद्यालय और आधुनिक अस्पताल के निर्माणों को प्राथमिकता दी जाती है, सबकी शिक्षा और सबके स्वास्थ्य की चिंता की जाती है, अमीरी और गरीबी की खाई कम करने की दिशा में कदम उठाए जाते हैं। सभ्य समाज के निर्माण के लिए मानवाधिकार, नारियों को समान अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्व देना ही होगा।
इस उपमहाद्वीप में अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की क्या स्थिति है, इसका पता फ्रांस की विख्यात संस्था 'रिपोर्टर सैन फ्रंटियर्स' की हालिया सूची से चलता है। मीडिया की स्वतंत्रता या प्रेस फ्रीडम में 180 देशों की सूची में भारत 150वें स्थान पर है, जबकि पिछले साल भारत 142वें स्थान पर था। बांग्लादेश 162वें स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान (157) तथा अफगानिस्तान (156) जैसे देश उससे ऊपर हैं। दूसरी तरफ, अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के मामले में शुरुआती पांच स्थानों पर क्रमशः नॉर्वे, डेनमार्क, स्वीडन, एस्टोनिया और फिनलैंड हैं।

स्पष्ट है, गणतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के मामले में उत्तर यूरोप के देश सबसे आगे हैं। एक गणतंत्र के रूप में बांग्लादेश की स्थिति चूंकि डांवाडोल है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार के मोर्चे पर उसकी स्थिति खराब है, इसलिए प्रेस फ्रीडम के मामले में भी उसके पास गर्व करने के लिए कुछ नहीं है। वास्तविक तौर पर सभ्य देशों की कतार में बांग्लादेश कभी शामिल भी हो पाएगा, इसमें संदेह है। वर्ष 1971 में पाकिस्तान से टूटकर बांग्लादेश के गठन के पीछे महान उद्देश्य था।
लेकिन अलग देश बनने के बाद से वह निरंतर गलत दिशा में ही जा रहा है। वहां महिलाओं के विरुद्ध, प्रगति के विरुद्ध, सभ्यता के विरुद्ध और गैर मुस्लिमों के विरुद्ध लगातार विष वमन किया जाता है। धर्म की बात करने वाले लगातार उदारवादियों के विरुद्ध फतवे जारी कर रहे हैं, जिसके कारण सड़कों पर असहिष्णु लोगों की भीड़ उमड़ती है। स्वतंत्र चिंतकों को वहां अपनी उदारवादी सोच की भीषण कीमत चुकानी पड़ती है।
पिछले अट्ठाईस साल से बांग्लादेश मेरे मानवाधिकार का जिस तरह उल्लंघन करता आ रहा है, वही लोकतंत्र के मामले में उस देश का रिकॉर्ड बताने के लिए काफी है। इस विशाल ब्रह्मांड के एक छोटे-से ग्रह में हम मनुष्यों का वास है, जिनकी आयु भी बहुत नहीं होती। मृत्यु के जरिये हमारे इस छोटे-से जीवन का एक दिन अंत हो जाता है। ऐसे में, उदार और सहिष्णु होकर हम अपनी छोटी-सी जीवन अवधि को सार्थक, अर्थपूर्ण और यादगार तो बना ही सकते हैं। दूसरों के प्रति दया और करुणा का प्रदर्शन कर, दूसरों का उपकार कर, सामने वाले के चेहरे पर हंसी लाकर हम इस पृथ्वी को सुंदर और रहने के योग्य बना सकते हैं।

सोर्स: अमर उजाला


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