सम्पादकीय

लैंगिक असमानता से उठते सवाल

Subhi
11 Jun 2022 3:31 AM GMT
लैंगिक असमानता से उठते सवाल
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संयुक्त राष्ट्र की एजंसी ‘यूएन वीमैन’ की रिपोर्ट कहती है कि परिवार विविधता वाला ऐसा स्थान होता है जहां अगर सदस्य चाहें तो लड़के-लड़कियों के बीच समानता के बीज आसानी से बोए जा सकते हैं।

ज्योति सिडाना: संयुक्त राष्ट्र की एजंसी 'यूएन वीमैन' की रिपोर्ट कहती है कि परिवार विविधता वाला ऐसा स्थान होता है जहां अगर सदस्य चाहें तो लड़के-लड़कियों के बीच समानता के बीज आसानी से बोए जा सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि परिवारों के सदस्यों को महिला अधिकारों के बारे में जागरूक बना कर उन्हें हर नीति और फैसले में शामिल किया जाए। अगर इस बात को लोग अपने व्यवहार में शामिल कर लें तो हर समाज और राष्ट्र की तस्वीर ही अलग होगी।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि किसी देश की स्थिति वहां की महिलाओं की स्थिति से समझी जा सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज भी महिलाओं की स्थिति कोई बहुत संतोषजनक नहीं है। यही कारण है कि समाज और राष्ट्र आज अनेक विसंगतियों व संकटों के दौर से गुजर रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि ऐसे कानून, नीतियां और कार्यक्रम लागू करने की जरूरत है जिनसे परिवारों के सदस्यों की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ उनकी प्रगति और खुशहाली के लिए भी अनुकूल माहौल बन सके।

विशेष रूप से लड़कियों और महिलाओं के लिए ऐसा करना जरूरी है। अब तक हम देखते आए हैं कि दुनिया भर में महिलाओं के अस्तित्व, अधिकार और निर्णय लेने की क्षमता को नकारने का चलन आज भी बदस्तूर जारी है। परिवारों की संस्कृति और मूल्यों की दुहाई के नाम पर महिलाओं के निर्णयों और उनके अधिकारों की बलि चढ़ा दी जाती है।

'लोग क्या कहेंगे' जैसे कथन केवल महिलाओं के लिए ही होते हैं। इसीलिए यह सवाल भी उतना ही प्रासंगिक है कि पुरुषों को परिवार के मूल्यों, संस्कृति, नैतिकता और समाज के नियमों की उपेक्षा का डर क्यों नहीं दिखाया जाता। संभवत: इसलिए कि समाज केवल पुरुषों से निर्मित है या फिर पुरुष अपनी सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए ही ऐसे असमानता मूलक समाज को निरंतरता प्रदान करते आए हैं। यही कारण है कि अनेक बदलावों और कानूनों के बावजूद भी घरेलू हिंसा या महिलाओं के विरुद्ध होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा को समाज में अपराध नहीं, अपना अधिकार माना जाता है।

कई सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि अधिकांश महिलाओं ने भी पति / पुरुष द्वारा प्रताड़ित होने को अपनी किस्मत मान कर स्वीकार कर लिया। अगर महिलाएं स्वयं ऐसा सोचती हैं तो फिर पुरुष आबादी की सोच में बदलाव की बात सोचना एक चुनौती ही है।

आज भी कई ऐसे देश और समाज ऐसे हैं जहां लड़कियों को अपने परिवार की संपत्ति और विरासत में हिस्सा पाने का कोई अधिकार नहीं है। इसमें संदेह नहीं है कि वर्तमान समय में कानून द्वारा माता-पिता की संपत्ति में बेटियों को भी बेटे के समान ही अधिकार प्राप्त हो गए हैं। लेकिन तब भी बेटियों से अपेक्षा यही की जाती है कि वे खुशी-खुशी अपना हिस्सा छोड़ दें या भाई के नाम कर दें।

भौतिकतावाद की आंधी ने रिश्तों को ही तार-तार कर दिया है, जिसका प्रभाव समाज के हर तबके और हर आयु के लोगों पर देखा जा सकता है। तेजी से विस्तार लेते प्रौद्योगिकी युग में हर रिश्ते में भावनाएं समाप्त होती जा रही हैं।

हर कोई अपने आभासी संसार में व्यस्त है। ऐसे में महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब है। परिवारों में समाजीकरण के दौरान अनेक तरह के संकोच और डर महिलाओं के व्यक्तित्व में इस कदर भर दिए जाते हैं कि वे स्वतंत्रता, लोकतंत्र, उदारवाद, खुलापन, समानता, न्याय जैसे मूल्यों को अपने एवं अपने परिवार के विरोधी मूल्य मानने लगती हैं। यही पक्ष महिला को कभी पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर इकाई नहीं बनने देते।

कुछ समय पहले महाराष्ट्र में एक अहम फैसला लेते हुए राज्य में विधवा प्रथा बंद करने का फैसला लिया गया है। कुछ समय पूर्व सबसे पहले कोल्हापुर की एक ग्राम पंचायत ने इस फैसले को लागू किया था। इसके बाद राज्य की सभी ग्राम पंचायतों से इसे लागू करने को कहा गया।

अगर किसी महिला के पति की मृत्यु हो जाती है तो उसके अतिम संस्कार के बाद महिला की चूड़ियां तोड़ने और माथे से सिंदूर पोंछने, मंगलसूत्र निकालने जैसे कृत्य नहीं किए जाएंगे। एक लंबे समय बाद ही सही, किसी ने यह सोचा तो सही कि पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को एक जिंदा लाश की तरह जीवन जीने को क्यों बाध्य किया जाना चाहिए?

यह एक विसंगति ही तो है कि पुरुष के विधुर होने पर उसके जीवन जीने के ढंग में कोई बदलाव नहीं किया जाता, उस पर किसी भी प्रकार के कोई प्रतिबंध नहीं लगाए जाते, लेकिन महिला के विधवा होने पर उसके रंगीन कपड़े पहनने, शृंगार करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। आश्चर्य की बात है कि आधुनिकता के दौर में हर चीज में बदलाव को स्वीकार कर लिए गया है। बस महिलाओं के प्रति सोच नहीं बदली है।

परंतु महाराष्ट्र सरकार का यह महत्त्वपूर्ण फैसला महिलाओं की स्थिति में सुधारने की दिशा में एक मजबूत कदम माना जा सकता है। देश के अन्य भागों में भी ऐसी पहल की जानी चाहिए। इस तरह के छोटे-छोटे कदमों से ही महिलाओं के लिए एक समानता मूलक समाज की कल्पना साकार की जा सकती है।

आज भी ज्यादातर घर-परिवारों में महिलाओं को अपने स्वास्थ्य के बारे में भी खुद निर्णय लेने का अधिकार तक नहीं होता। महिलाएं दिन-रात परिवार के सदस्यों की देखभाल और घरेलू कामकाज में व्यस्त रहने के बावजूद भी यही सुनती आई हैं कि तुम सारा दिन करती क्या हो। यही सोच पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता का एक मुख्य कारण कहा जा सकता है।

यही सोच बिना किसी बदलाव के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रहती है। यह बात भी सच है कि समाज में बदलाव वही लोग ला सकते हैं जो अनेक विरोधों के बावजूद भी धारा के विपरीत बहने का साहस रखते हैं।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमे लड़कियों और उनके परिवार ने ऐसा कर दिखाया है। हाल में विमेंस वर्ल्ड बाक्सिंग चैंपियनशिप में देश के लिए इकलौता गोल्ड मैडल जीतने वाली निखत जरीन ने अगर लोगों के तानों और सोच की परवाह की होती कि लड़की को ऐसे खेल नहीं खेलने चाहिए जिसमे उसे छोटे कपड़े पहनने पड़ें, तो आज वह विश्व विजेता नहीं बन पाती।

विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण जीतने वाली भारतीय महिलाओं में अभी पांच महिलाएं शामिल हैं। किसी ने सही ही लिखा है- 'कहां हारती हैं औरतें, उन्हें तो हराया जाता है…लोग क्या कहेंगे, यह कह कर डराया जाता है।'

ऐसा नहीं है कि महिलाओं की स्थिति सुधारने की दिशा में यह कोई पहला कदम है। मीराबाई, भंवरी देवी, अमृता देवी आदि के प्रयासों को इन उदाहरणों में शामिल किया जा सकता है। मी टू जैसा आंदोलन भी महिलाओं द्वारा अपने विरुद्ध होने वाले शोषण व दमन के खिलाफ आवाज का एक उदाहरण है।

परंतु इस बात की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि अकेले महिलाओं द्वारा किए गए विरोध उतने सफल परिणाम नहीं दे पाते जितने महिला और पुरुष के साझा प्रयासों द्वारा किए गए बदलाव दे सकते हैं। क्योंकि जब तक समाज का प्रभुत्वशाली तबका यानी पुरुष वर्ग अपनी सोच में बदलाव के लिए तैयार नहीं होगा, तब तक महिलाओं की स्थिति में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद बेकार है। सवाल उठता है कि क्या महाराष्ट्र राज्य में उठाया गया कदम अन्य राज्यों में भी मूर्त रूप ले पाएगा?


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